भारत जब ऋषि सुनक से लेकर शेख हसीना वाजेद और जो बाइडन तथा तमाम अन्य वैश्विक नेताओं तथा अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडलों का स्वागत कर रहा था (भारत के लिए यह एक अभूतपूर्व क्षण) तब दो सुर्खियां बनने लायक बातें मुख्य विपक्षी दल की ओर से सामने आईं।
पहली बात, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का द इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर छपा साक्षात्कार और दूसरी ब्रसेल्स में मीडिया से बातचीत के दौरान राहुल गांधी के वक्तव्य।
डॉ. सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना में कुछ नहीं कहा। भारत की दशा-दिशा के बारे में सकारात्मक रुख अपनाते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक सौहार्द के माहौल में देश का प्रदर्शन बेहतर रह सकता है। राहुल गांधी ने ज्यादा सीधी बात की और सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश में लोकतांत्रिक पतन की जिम्मेदार है।
हालांकि दोनों इस बात को लेकर सुस्पष्ट थे कि रूस और यूक्रेन के मामले में मोदी सरकार ने सही रुख अपनाया और दोनों ने उस रुख का समर्थन भी किया। गांधी ने तो एक कदम आगे बढ़कर कहा कि अगर विपक्ष की भी सरकार होती तो वह कमोबेश यही रुख अपनाती।
भारतीय राजनीति के लिए यह नई बात नहीं है। अतीत में भी विदेश नीति और सामरिक नीति के कुछ अत्यंत अहम मसलों पर सत्ताधारी दल और मुख्य विपक्षी दल आमतौर पर सहमत रहे हैं। हाल के दिनों में हमारी राजनीति विभाजित रही और उसमें ध्रुवीकरण भी देखने को मिला है। यह इस कदर हुआ है कि एकजुटता के एकदम सामान्य शब्द भी अब सुर्खियों में आने लायक बन गए हैं।
यह कैसे शुरू हुआ इसे समझने के लिए गहन शोध की आवश्यकता नहीं है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रिश्तों में वाजपेयी युग के बाद खासी कड़वाहट आई है।
आडवाणी के दौर में आपसी सौहार्द गायब हो गया और कटुता प्रबल हो गई। इसने व्यापक राष्ट्रीय हित को भी नुकसान ही पहुंचाया। आइए देखते हैं इसके तीन बढि़या उदाहरण। इनमें से दो पूरी तरह विदेश नीति से संबद्ध हैं और एक अर्थशास्त्र से लेकिन इनके प्रभाव व्यापक हैं। आइए इन पर विचार करते हैं:
अब करीब एक दशक बाद यह आकलन करना उचित होगा कि इन नीतियों की क्या स्थिति है। भारत-अमेरिका रणनीतिक समझौते अब पहले से अधिक गहरे हैं और मौजूदा सरकार परमाणु समझौते के इस कदर हक में है कि वह इससे जुड़े जवाबदेही वाले मसले को भी हल करना चाहती है।
बांग्लादेश की बात करें तो सीमा विवाद को निपटाना मोदी की शुरुआती कामयाबियों में था और इस पर कोई विवाद भी नहीं हुआ। बहुब्रांड खुदरा की बात करें तो कदम दर कदम प्रतिबंध समाप्त किए गए या शिथिल किए गए। ई-कॉमर्स की बात करें तो वैश्विक कंपनी एमेजॉन या अन्य विदेशी (ज्यादातर चीनी और कुछ जापानी) फंडिंग वाली स्टार्टअप भाजपा के उन नेताओं के लिए सबक हैं जिन्होंने संसद का रुख किया था और मात खाई थी।
अगर आप अधिक शंकालु प्रकृति के हैं तो आप कह सकते हैं कि कांग्रेस ने मोदी सरकार की यूक्रेन-रूस नीति पर जो रुख दिखाया है उसमें चौंकाने वाला कुछ नहीं है क्योंकि यह उनकी पीढि़यों से चली आ रही सोवियत समर्थक, पश्चिम विरोधी नीति के अनुरूप है।
तथ्य यह है कि कांग्रेस 10 वर्षों से सत्ता से बाहर है और उसने अमेरिका के साथ कई पहल कीं। उसने भारत को पश्चिम के खेमे में लाने की दिशा में निर्णायक पहल की। चीन के आक्रामक उभार ने अब भाजपा के लिए इसे और आसान बना दिया है।
यह सही है कि कांग्रेस में कई लोग मनमोहन सिंह की नीति को लेकर शंकालु बल्कि नाराज भी थे। फिर भी उन्होंने इसे कबूल किया। मोदी के शासन के 10वें साल में हम देख रहे हैं कि उसकी अमेरिका नीति, गहरी सामरिक साझेदारी और रूस से इतर अन्य देशों ने हथियार खरीद को लेकर कांग्रेस ने कभी आलोचना या हमला नहीं किया।
राष्ट्रीय राजनीति में इस बदलाव की अहमियत को समझने के लिए हमें 40 वर्ष पीछे नजर डालनी होगी। मार्च 1983 के आरंभ में इंदिरा गांधी ने गुट निरपेक्ष शिखर बैठक की मेजबानी की थी और बांग्लादेश की आजादी के बाद इसे अपने सबसे बेहतरीन विदेश मामलों संबंधी अवसर के रूप में चिह्नित किया था। फिदेल कास्त्रो द्वारा इंदिरा गांधी को गले लगाना उस दौर की यादगार छवि थी। भारत के राजनीतिक और नीतिगत क्षेत्र के कुलीन तब तक एक तरह के क्रांतिकारी देश होने बोध में गौरव अनुभव करते थे।
बाद में राजीव गांधी के कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में जब हालात मुश्किल हुए तो उन्होंने भी नानी याद दिलाने की धमकी सोवियत संघ या चीन को नहीं दी थी बल्कि तब भी अमेरिका ही शैतान था।
गुटनिरपेक्ष शिखर बैठक से इस जी20 शिखर बैठक और जो बाइडन, इमैनुएल मैक्रों तथा ऋषि सुनक के साथ द्विपक्षीय वार्ता तक भारत एक छद्म गुटनिरपेक्षता से आपसी लेनदेन की स्वायत्तता तक का सफर तय कर चुका है।
जब पी वी नरसिंह राव ने हिचकिचाहट के साथ बदलाव की दिशा में की दिशा में पहला कदम उठाया था तब उन्हें अपनी पार्टी और भाजपा दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा था। हमें ध्यान देना होगा कि अगर उन्होंने आर्थिक सुधार नहीं किए होते तो भारत को यह वैश्विक दर्जा नहीं मिलता।
हमारी वृद्धि, अर्थव्यवस्था का आकार और हमारी जनांकिकी में सुधार आदि हमारी अहम सामरिक संपत्ति हैं। यह सारा कुछ एक अच्छी केस स्टडी है जिसे वित्तीय बाजार कारोबारी संयुक्तीकरण की शक्ति कहते हैं। इसे आगे ले जाने का श्रेय वाजपेयी, मनमोहन सिंह और मोदी को भी जाता है।
भारत के वैश्विक नजरिये में बुनियादी बदलाव इस तथ्य की वजह से है कि हमारी प्रतिस्पर्धी राजनीतिक शक्तियां राष्ट्रहित में एकजुट हुई हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध के मसले पर कांग्रेस द्वारा मोदी सरकार का समर्थन भी ऐसा ही एक और क्षण है जो हमारी विभाजित राजनीति के बारे में हमें बेहतर महसूस कराता है।