पिछले कुछ वर्षों से नरमपंथी वाम-उदार सोच वाले लोगों समेत तमाम लोग ‘सियासी दबंगों’ के उभार पर अफसोस जताते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर व्लादीमिर पुतिन, शी चिनफिंग, शिंजो आबे, रेसप एर्दोगान, रोड्रिग दुतेर्ते और हमारे अपने नरेंद्र मोदी के नाम दिए जाते हैं।
उदारवादी लोग अपनी परिभाषा के ही मुताबिक सरकार के शीर्ष पर कमजोर प्रमुखों को तरजीह देते हैं जो उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं को परिलक्षित करते हैं। सत्ता में बैठे दबंगों की संख्या बढ़ते ही वे तनावग्रस्त हो जाते हैं क्योंकि ऐसे लोग उनके विचारों को तनिक भी तवज्जो नहीं देते हैं।
इसे देखने का एक और तरीका भी है। असल में सियासी तौर पर मजबूत होना एक जरूरत है लेकिन 30-35 वर्षों की अवधि में आर्थिक ताकत हासिल करने के लिए इतना होना ही अपने आप में काफी नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि अलग-अलग देशों के इतिहास में जब भी उनका आउटपुट तीव्र गति से बढ़ा है तो यह एक सशक्त शासक के रहते हुए ही हुआ है।
अगर आपको मेरी बात पर यकीन नहीं है तो साइमन कुज्नेत्स और एंगस डीटन जैसे अर्थशास्त्रियों के काम पर नजर डालें। इन्होंने ऐतिहासिक संदर्भों में तमाम आर्थिक आंकड़े मुहैया कराए हैं।
इनसे पता चलता है कि सतत आर्थिक वृद्धि के काल में ताकतवर पुरुष या महिला के ही हाथ में ही कमान रही है।
ऐसे ताकतवर शख्स दो तरह के होते है: बाजार को मजबूत करने वाले या नागरिक स्वतंत्रताओं में कटौती करने वाले नेता। डॉ मनमोहन सिंह इसके अपवाद थे जिन्होंने बेहद कमजोर नेता होते हुए भी नागरिक स्वतंत्रता पर कोई चोट पहुंचाए बगैर बाजारों को सशक्त बनाया। वामपंथी-उदारवादी विचारधारा का ध्यान खास तौर पर नागरिक स्वतंत्रता पर ही केंद्रित होता है। वहीं दक्षिणपंथी-उदारवादी सोच के केंद्र में विशिष्ट तौर पर बाजार होता है। लेकिन क्या ये दोनों परस्पर अलग-अलग बातें हैं? भारत को इसी सवाल से जूझने की जरूरत है क्योंकि 2014 के बाद सत्ता में आई मोदी की दोनों सरकारें इन्हीं दोनों मुहानों के बीच फंसती नजर आती रही हैं।
मोदी की गलती
पिछले छह वर्षों में हमारे ताकतवर नेता का अधिक जोर बाजार को मजबूती देने से कहीं अधिक नागरिक स्वतंत्रताओं को कमतर करने पर रहा है। इसका नतीजा यह है कि आर्थिक मोर्चे पर उनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है।
उन्हें अपने कामकाज से जुड़ा यह असंतुलन दूर करने की जरूरत है। भले ही मजबूत बाजार देश को आर्थिक वृद्धि की राह पर ले जाते हैं लेकिन नागरिक स्वतंत्रताओं के कमजोर पडऩे पर ऐसा नहीं हो पाता है। फिर नेता को केवल बदनामी ही मिलती है।
वैसे साफ-साफ कहें तो मोदी ऐसी गलती करने वाले अकेले नेता नहीं हैं। हालांकि लोग अब यह भूल चुके हैं कि किस तरह जवाहरलाल नेहरू जैसे बेहद सशक्त नेता भी ऐसी गलती कर चुके हैं, संविधान में किया गया पहला एवं चौथा संशोधन इसका सबूत है। इस तरह नेहरू ने ही इसकी परिपाटी रख दी थी।
संसद में भारी बहुमत रखने वाले इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी ने भी नेहरू का यही मॉडल अपनाया। मोदी की ही तरह राजीव गांधी ने भी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए आधे-अधूरे प्रयास किए थे।
यह बात बहुत अचरज में डालती है कि अपनी पार्टी भाजपा द्वारा नेहरू के प्रति लगातार आलोचनात्मक रुख अपनाए रखने के बावजूद मोदी ने बुनियादी तौर पर नेहरू का आर्थिक मॉडल ही अपनाया है। लेकिन अब समय आ गया है कि मोदी नेहरू को आखिरकार तिलांजलि दे दें। उन्हें अंतिम नेहरूवादी नेता बनने की जरूरत है।
मैंने पिछले साल अगस्त में लिखा था कि मोदी को आवडी अधिवेशन जैसा कोई आर्थिक प्रस्ताव लाने की जरूरत है। कांग्रेस पार्टी के आवडी में हुए अधिवेशन में पारित इस प्रस्ताव ने ही आर्थिक गतिविधियों में राज्य को अग्रणी भूमिका में रखने की बात कही थी। मोदी के जवाबी प्रहार में वही ताकत रखनी है लेकिन उसकी दिशा उल्टी होगी। उनके आर्थिक प्रस्ताव में इस बात का उल्लेख जरूर होना चाहिए कि राज्य आर्थिक गतिविधियों से अलग हो जाएगा क्योंकि अब वह इस मोर्चे पर असरदार नहीं रह सकता है।
नेहरू ने कहा था कि वृद्धि के लिए राज्य को केंद्रीय भूमिका में आना होगा क्योंकि आर्थिक क्रियाकलाप को केवल वही अंजाम दे सकता है। और नेहरू ने जिस तरह राज्य को आर्थिक गतिविधियों में केंद्रीय भूमिका में ला दिया, उसी तरह मोदी को आर्थिक वृद्धि के अग्रणी वाहक के रूप में निजी क्षेत्र को स्थापित करना होगा।
आर्थिक गतिविधियों के केंद्र में बदलाव की यह घोषणा मोदी को बुलंद अंदाज में 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से करनी चाहिए। आखिर ऐसे मौके दोबारा नहीं आते हैं।
