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धीमी होगी चाल और ऊपर जाएंगे बाजार

भारतीय और अमेरिकी बाजारों का प्रदर्शन शानदार रहा है मगर अलग-अलग कारणों से निवेशक फिलहाल इस प्रश्न से जूझ रहे हैं कि वे आगे क्या रणनीति अपनाएं।

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आकाश प्रकाश   
Last Updated- September 03, 2024 | 11:10 PM IST

अधिकांश निवेशक फिलहाल इस पहेली में उलझ कर रह गए हैं कि भारतीय और अमेरिकी बाजारों को लेकर क्या रणनीति अपनाई जाए। पिछले 30 वर्षों के दौरान ये दोनों ही दुनिया के बेहतरीन बाजार रहे हैं, परंतु वर्तमान परिदृश्य में दांव लगाने के लिहाज से सबसे महंगे दिख रहे हैं। तो क्या यह सोचते हुए निवेशकों को इन बाजारों से दूर कहीं और निवेश की संभावनाएं तलाशनी चाहिए कि मूल्यांकन हमेशा संतुलित स्तर पर लौट आता है?

भारत और अमेरिकी बाजारों का प्रदर्शन लंबे समय से उम्दा रहा है, इसलिए क्या यह सोचना सही है कि इन दोनों बाजारों में तेजी के दिन लद चुके हैं और बारी अब दूसरे बाजारों की है, जो भविष्य में शानदार रिटर्न दे सकते हैं?

अमेरिकी और भारतीय बाजारों ने डॉलर में पिछले 30 वर्षों के दौरान शानदार रिटर्न दिए हैं और इनमें निरंतरता भी रही है। तो फिर इन दोनों बाजारों से निकलने की क्या जरूरत है? यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि मूल्यांकन के स्तर से बाजार में भविष्य में होने वाली गतिविधियों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है, वहीं दूसरे बाजार हालात सुधारने की गुंजाइश भी दूर-दूर तक नहीं दिख रही है। यह मानते हुए कि मौजूदा तेजी जारी रहेगी इसलिए इन दोनों बाजारों में दांव लगाना जारी रखा जाए या इनकी तुलना में थोड़े कमजोर बाजारों की तरफ मुड़ा जाए।

अगर अमेरिकी बाजार पर नजर डालें तो इसका प्रदर्शन पिछले कई वर्षों से शानदार रहा है। अमेरिकी बाजार से इतर जाकर दांव लगाने का कोई फायदा नजर नहीं आया है। 20वीं शताब्दी के शुरू में विश्व में कुल बाजार पूंजीकरण में अमेरिका की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत थी और यह केवल ब्रिटेन (24 प्रतिशत) से पीछे था।

वर्ष 1910 तक अमेरिका ब्रिटेन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा इक्विटी बाजार बन गया। तब से इसके पास यह ओहदा बरकरार रहा है, केवल 1980 के दशक के आखिरी पड़ाव पर जापान कुछ अवधि के लिए इससे आगे निकल गया था।

वर्ष 1989 में जापान का वैश्विक बाजार पूंजीकरण 40 प्रतिशत पर पहुंच गया था, जबकि अमेरिका 29 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ दूसरे स्थान पर था (इस आलेख के लिए सभी आंकड़े यूबीएस ग्लोबल इन्वेस्टमेंट रिटर्न्स इयरबुक से लिए गए हैं)। इस समय अमेरिका को चुनौती देने वाला कोई दूसरा बाजार नहीं है क्योंकि इसका 62 प्रतिशत से अधिक बाजार पूंजीकरण पर इसका कब्जा है।

जापान 6 प्रतिशत बाजार पूंजीकरण के साथ दूसरे स्थान पर है और 3.7 प्रतिशत के साथ ब्रिटेन तीसरे स्थान पर है। इसके बाद 2.8 प्रतिशत बाजार पूंजीकरण के साथ चीन है (ये सभी एफटी वर्ल्ड इंडेक्स और समायोजित मुक्त बाजार हिस्सेदारी पर आधारित हैं)। दुनिया में 12 बाजारों की वैश्विक शेयर बाजार पूंजीकरण में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इन 12 देशों में भारत भी शामिल है।

शेयर बाजार पर 1900 से 2023 तक के आंकड़े उपलब्ध हैं। इन 124 वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो अमेरिका ने सबसे अधिक वास्तविक रिटर्न दिया है और सालाना रिटर्न की दर 6.5 प्रतिशत रही है। अगर कोई बाजार इसके करीब है तो वह है ऑस्ट्रेलिया, जिसने डॉलर में 6.45 प्रतिशत रिटर्न दिया है मगर आकार या पूर्ण बाजार पूंजीकरण के मामले में इन दोनों बाजारों का कोई मुकाबला नहीं है।

ब्रिटेन ने 4.9 प्रतिशत वास्तविक रिटर्न दिया है जबकि जर्मनी और फ्रांस क्रमशः 3.3 प्रतिशत और 3.16 प्रतिशत रिटर्न के साथ पीछे चल रहे हैं। जापान ने डॉलर में 4.2 प्रतिशत रिटर्न दिया है।

अमेरिका बाजार के 6.5 प्रतिशत की तुलना में दुनिया के बाजारों (अमेरिका को छोड़कर) ने संयुक्त रूप से 4.3 प्रतिशत रिटर्न दिया है। अमेरिका निवेश करने के लिए पक्का दांव रहा है। अगर किसी निवेशक ने केवल अमेरिका में अपना निवेश पूरे 124 वर्षों के लिए बरकरार रखा होता तो उसके एक डॉलर का मूल्य अब बढ़कर 2,443 डॉलर हो गया होता।

अगर यही एक डॉलर दूसरे बाजारों में निवेश किया गया होता तो बढ़कर केवल 191 डॉलर हुआ होता। यह अमेरिकी निवेश पोर्टफोलियो का दसवां हिस्सा भी नहीं है। अमेरिका बाजार में निवेश नहीं करना या कम निवेश करना बुनियादी गलती रही है।

निवेश करने के बाद दीर्घ अवधि तक इसे बनाए रखने वाले निवेशकों के लिए अमेरिकी बाजार के साथ संरचनात्मक रूप से अधिक जुड़े रहना कारगर रहा है। जैसे निवेशक दीर्घ अवधि तक चक्रवृद्धि दर पर रिटर्न हासिल करने के लिए लंबा इंतजार करते रहते हैं उसी तरह गिरावट के समय या कम मूल्यांकन के दौर में उन्हें धैर्य भी दिखाना चाहिए।

अमेरिका में नई तकनीक का लाभ उठाने और अपनी कंपनियों को आगे बढ़ाने की अद्भुत क्षमता है जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सका है। शेयरधारकों के लिए मूल्य वर्द्धन, मुक्त बाजार व्यवस्था में विश्वास और जोखिम लेकर लाभ कमाने पर अमेरिका का सदैव ध्यान रहता है।

अमेरिका के पूंजी बाजार में दुनिया के किसी पूंजी बाजार की तुलना में काफी अधिक गहराई है। किसी भी दूसरे देश में अल्फाबेट जैसी कंपनी नहीं है, जो शोध एवं विकास पर सालाना 50 अरब डॉलर रकम खर्च करती है और इतनी ही रकम पूंजीगत व्यय पर भी खर्च करती है।

न ही ऐपल जैसी कंपनी भी किसी देश में है, जो सालाना 100 अरब डॉलर मुनाफा अर्जित करने की ताकत रखती है। अमेरिकी कंपनियों का बाजार पूंजीकरण और मुनाफा जी-7 समूह के देशों के संयुक्त बाजार पूंजीकरण और मुनाफे के बराबर है। अस्त-व्यस्त आव्रजन व्यवस्था होने के बावजूद दुनिया के सभी लोग अमेरिका में रहकर अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं।

यह पूरी तरह स्पष्ट है कि अमेरिकी बाजार सस्ता नहीं है और यहां गिरावट का दौर आ सकता है मगर क्या कोई भी निवेशक इसके धन सृजन के दीर्घ अवधि के प्रदर्शन के रिकॉर्ड (सिवाय छोटी अवधि में रणनीतिक दांव को छोड़कर) को नजरअंदाज कर सकता है?

जहां तक भारत की बात है तो अब भी पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। यह सच है कि पिछले 30 वर्षों के दौरान भारत ने शानदार प्रदर्शन किया है, खासकर उदारीकरण के बाद यहां के बाजार कहीं अधिक दमदार हो गए हैं।

इस अवधि के दौरान एमएससीआई इंडिया ने एमएससीआई के 5.3 प्रतिशत की तुलना में डॉलर में 8.65 प्रतिशत सालाना रिटर्न दिया है। भारत में उद्यमशीलता मजबूत है, यहां के शेयर बाजार गतिशील हैं और घरेलू पूंजी प्रवाह में भी काफी निरंतरता देखी गई है।

डिजिटल सार्वजनिक ढांचे पर भारत ने सराहनीय काम किया है और आधारभूत ढांचे पर पूंजीगत व्यय भी काफी बढ़ा दिया है। इसके साथ भू-राजनीतिक एवं आपूर्ति व्यवस्था में बदलाव से यह लाभ उठाने की स्थिति में है। भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2,500 करोड़ डॉलर पार कर रहा है और इसके साथ ही हम तेज एवं मजबूत आर्थिक वृद्धि के दौर में प्रवेश कर चुके हैं। हमारे बाजारों ने कई दमदार शेयर दिए हैं, जो दूसरे तेजी से उभरते बाजारों में काफी कम दिखाई देते हैं।

भारत तेजी से उभरते बाजारों में अब दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन गया है। क्या भारत इन बाजारों में अमेरिका जैसा अपना रसूख तैयार कर सकता है? क्या हम लंबे समय तक लगातार शानदार प्रदर्शन जारी रख सकते हैं और तेजी से उभरते बाजारों में रिटर्न देने के मामले में अपनी धाक जमा सकते हैं?

वास्तविकता यह है कि यह उतना आसान नहीं है। यह उम्मीद करना अलग बात है कि हमारा बाजार तेजी से यह मुकाम हासिल लेगा क्योंकि आने वाले दशक में यह सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार दिख रहा है। उदाहरण के लिए चीन पर विचार किया जा सकता है।

1990 से चीन का प्रदर्शन शानदार रहा है और 30 वर्षों से अधिक समय से इसकी वृद्धि लगभग 9 प्रतिशत रही है। हालांकि, वर्ष 1993 से (जब चीन दोबारा वैश्विक सूचकांकों में शामिल हुआ) शानदार आर्थिक वृद्धि के बावजूद चीन के शेयर बाजार सालाना डॉलर में वैश्विक सूचकांकों की तुलना में 2.3 प्रतिशत पीछे रहे हैं। जीडीपी वृद्धि और बाजार के प्रदर्शन में कोई सीधा संबंध नहीं है।

हमारे बाजार महंगे हैं और हमने शेयरों के मूल्यांकन के साथ अपनी उम्मीदें जोड़ रखी हैं। उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए हमें लोकलुभावन नीतियों और लघु अवधि के अस्थायी समाधान से बचने की जरूरत है। हम अपने शेयरों के प्रदर्शन को हल्के और लापरवाह ढंग से नहीं ले सकते।

अमेरिका की तरह हमारा 124 वर्षों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। उदारीकरण से पूर्व का हमारा रिकॉर्ड मात्र औसत स्तर का रहा है। हमें अर्थव्यवस्था के स्तर पर उत्पादकता में सुधार पर ध्यान देना होगा और कारोबारी सुगमता बढ़ाने पर पर भी और काम करना होगा।

किसी भी तेजी से उभरते बाजार के निवेशकों के लिए स्वतः दीर्घ अवधि के लिए उपयुक्त दांव बनने का भारत के पास अवसर और क्षमता दोनों मौजूद हैं। इस मामले में भारत भी अमेरिका की तरह है। हमें यह अवसर खोना नहीं चाहिए। बाजार से मजबूत रिटर्न पाने के लिए सरकार, कंपनी जगत और निवेशकों की तरफ से पूरी सूझ-बूझ के साथ प्रभावी कदमों की जरूरत होती है।

बाजार का प्रदर्शन दमदार बनाए रखने के लिए हमें सही रणनीति के साथ आगे बढ़ना चाहिए और मल्टिपल कम्प्रेशन (कंपनियों की मजबूत वित्तीय सेहत के बावजूद दूसरे कारणों जैसे नाजुक राजनीतिक हालात, ऊंची ब्याज दरों से इनके शेयरों में गिरावट) की स्थिति से बचना चाहिए।

शेयरों के मल्टीपल (किसी कंपनी के मूल्यांकन एवं वित्तीय प्रदर्शन को आंकने वाले मानक) उनकी आय, निवेशित पूंजी और इन दोनों में स्थिरता पर निर्भर करते हैं। इसके लिए प्रभावी पूंजी आवंटन, स्पष्ट नीति और उत्पादकता पर बखूबी ध्यान देने की जरूरत होती है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं)

First Published : September 3, 2024 | 11:10 PM IST