क्या देश में व्याप्त कड़वाहट और टकराव की राजनीति की वजह से केंद्र और राज्यों के बीच तथा राज्यों के आपसी संबंधों में भी बिखराव आने वाला है? अगर हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और दिल्ली की सत्ता पर उनके काबिज होने की केंद्रीय वास्तविकता पर नजर डालें तो इसका जवाब नहीं में मिल सकता है। लेकिन तब कुछ तथ्य और आंकड़े ऐसे उभरते हैं जो इस उत्तर का प्रतिकार करते हैं।
उदाहरण के लिए इंडिया टुडे के ताजा देश का मिजाज सर्वेक्षण को ही लें तो पिछले सर्वे की तुलना में यह कमतर नजर आता है। उस सर्वे में संकेत मिला था कि असंतोष बढ़ा है और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता गिरकर केवल 24 प्रतिशत रह गई है।
शेयर बाजार की शब्दावली का इस्तेमाल करें तो इसमें ‘तेज सुधार’ हुआ है और यह बढ़ी है। उनकी लोकप्रियता 53 फीसदी हो गई है। उनकी तथा राहुल गांधी की लोकप्रियता का फासला बढ़कर 46 फीसदी हो गया है क्योंकि उनकी लोकप्रियता केवल सात फीसदी रही। अगस्त 2021 के सर्वेक्षण में मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जो झटके लगे थे उन्हें दरकिनार कर दिया जाए तो कह सकते हैं कि हमारी राजनीति दोबारा पुरानी स्थिति में लौट गई है।
अगर इस बात की गहराई में जाएं तो वही पुरानी बात सामने आती है। यानी अपने-अपने राज्य में मुख्यमंत्री की लोकप्रियता। योगी आदित्यनाथ शीर्ष नौ में नहीं नजर आते। जाहिर है वह 10वें स्थान पर भी नहीं होंगे, वरना सूची नौ नामों के साथ समाप्त नहीं हो जाती। उनका कद बहुत बड़ा है और कोई भी प्रकाशन महज कुछ अंकों के कारण उनका नाम सूची से बाहर नहीं करेगा। पत्रिका ने कहा कि उसने केवल उन मुख्यमंत्रियों का नाम शामिल किया है जिनकी अपने-अपने राज्य में लोकप्रियता 43 प्रतिशत के औसत से अधिक है।
शीर्ष नौ राज्यों में भाजपा का केवल एक मुख्यमंत्री है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा सातवें स्थान पर हैं, उन्हें 56 फीसदी मत मिले हैं। नवीन पटनायक 71.1 फीसदी मतों के साथ शीर्ष पर हैं, ममता बनर्जी को 69.9 फीसदी मत मिले, एम के स्टालिन, उद्धव ठाकरे और पिनाराई विजयन सभी को 60 फीसदी से अधिक मत मिले। अरविंद केजरीवाल को 57.9 फीसदी मत हासिल हुए। आठवें और नौवें स्थान पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और अशोक गहलोत हैं लेकिन हमें इस तथ्य को रेखांकित करना होगा कि हिमंत भी कांग्रेस से ही भाजपा में आए हैं। देश के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में एक भी ऐसा नहीं है जो मूल रूप से भाजपा का नेता हो।
यहां विरोधाभासी बात यह है कि नरेंद्र मोदी पहले से बहुत अधिक लोकप्रिय हैं। सर्वेक्षण में अभी भी उनकी पार्टी को लोकसभा में 271 सीटों का बहुमत और उनके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को 298 सीट दी गई हैं। इसके बावजूद उनकी पार्टी 12 राज्यों में सत्ता पर काबिज है लेकिन एक आयातित मुख्यमंत्री के अलावा कोई सूची में नहीं नजर आया।
इससे स्वाभाविक रूप से यही निष्कर्ष निकलता है कि भाजपा को मिलने वाले वोट ज्यादातर नरेंद्र मोदी के नाम पर मिलते हैं। जैसा कि हमने पहले भी कहा, वह अपनी लोकप्रियता को राज्यों के नेताओं के मतों में नहीं बदल पा रहे हैं।
अपनी राजनीति और शासन पर इसके गंभीर असर को समझने के लिए थोड़ा गहराई से समझना होगा। दावोस में विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जारी किए गए हालिया आंकड़ों को देखते हुए यह और महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन आंकड़ों का वैश्विक जोखिम रिपोर्ट 2022 में उल्लेख किया गया है। डब्ल्यूईएफ हर वर्ष दुनिया भर के तकरीबन एक हजार नेताओं पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर रिपोर्ट जारी करता है। देश के अनुसार जोखिम की रैंकिंग बनाएं तो भारत के लिए सबसे बड़ा जोखिम है ‘राज्यों के आपसी संबंध में टकराव।’ हमें छूट लेते हुए इसे केंद्र-राज्य संबंधों तक विस्तारित कर देना चाहिए। हमें किसी अन्य बड़े देश में ऐसा जोखिम नहीं नजर आता।
अब इसे इंडिया टुडे के राज्यों के मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता के आंकड़ों के साथ मिलाकर देखते हैं। देशव्यापी स्तर पर भले ही मोदी अत्यधिक लोकप्रिय हों लेकिन उनके तमाम क्षेत्रीय विरोधी अपने राज्यों में उनसे भी अधिक लोकप्रिय हैं। एक को छोड़कर उनकी पार्टी का कोई मुख्यमंत्री वांछित अंक तक हासिल न कर सका। योगी जैसा कद्दावर नेता भी नहीं। लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों की बात करें तो ज्यादातर के साथ मोदी के व्यक्तिगत समीकरण भी अच्छे नहीं हैं। भाजपा और इन मुख्यमंत्रियों के दलों के बीच अक्सर विवाद की स्थिति बनी रहती है।
इंदिरा-राजीव युग के अनुच्छेद 356 की ताकत से वंचित केंद्र सरकार अक्सर केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करती है लेकिन ज्यादा इस्तेमाल से ये भी बेअसर हो रहे हैं। कम से कम दो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे यह दिखा चुके हैं कि वे अपनी पुलिस और एजेंसियों की बदौलत बदले की कार्रवाई कर सकते हैं। अब स्टालिन की तमिलनाडु पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा भाजपा के साझेदार दल एआईएडीएमके के खिलाफ सक्रिय है। अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी जीतती है तो वहां भी नजर रखनी होगी।
विगत दो पीढिय़ों के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता की शासनपद्धति दिन प्रति दिन राष्ट्रपति शासन की शैली अपनाती जा रही है। इसके साथ ही कई राज्यों में जीत हासिल करने में नाकामी और वहां उनके प्रतिद्वंद्वियों की जबरदस्त लोकप्रियता भारतीय राजनीति को ज्यादा मजबूत संघीय व्यवस्था की ओर धकेल रही है। शासन और राजनीति के बीच का यही विरोधाभास है।
उन्होंने कल्याण योजनाओं को लगभग पूरी तरह केंद्रीकृत कर दिया है, ऐसे में इसका असर केवल कल्याण योजनाओं को आगे बढ़ाने की उनकी क्षमता तक सीमित नहीं रहेगा। इसके चलते पहले ही शासन की गुणवत्ता और नए संस्थान प्रभावित होने लगे हैं। अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को पूरी तरह केंद्र के अधीन लाने के उनके ताजा प्रस्ताव का कुछ राज्यों ने जिस तरह विरोध किया है उससे भी इसे समझा जा सकता है। कुछ सीमावर्ती राज्यों ने सर्वोच्च न्यायालय में जाकर सीमा सुरक्षा बल का दायरा बढ़ाने के खिलाफ गुहार लगाई है। कई राज्यों ने महामारी को लेकर केंद्रीकृत आदेशों का विरोध किया है। इसने मोदी के सामने यह चुनौती पैदा कर दी कि उनकी अबाध लोकप्रियता उन्हें असीमित शक्ति नहीं प्रदान करती। यही कारण है कि उनकी राष्ट्रपति जैसी कार्यशैली का विरोध हो रहा है। जब वह इस दिशा में बढ़े तो जमीनी तथ्य अलग थे। मार्च 2018 तक यानी उनके पहले कार्यकाल के समय उनकी पार्टी 21 राज्यों पर काबिज थी और देश की 71 फीसदी आबादी इन राज्यों में थी। अब राज्यों की तादाद घटकर 17 (वह भी भाजपा नहीं राजग के लिए) रह गई है और केवल 49 फीसदी भारतीय इन राज्यों में रहते हैं।
प्रदेशों में शासन कर रहे विरोधी दलों के नेताओं को साथ लेना मोदी का स्वभाव नहीं है। ऐसा करना उनकी राजनीति के विपरीत होगा। आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा अगर बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है तो वह ज्यादा से ज्यादा राज्यों में अपनी सरकार बचा सकती है। वह नया राज्य शामिल नहीं कर सकती। भाजपा के निरंतर दबाव बनाने से रिश्ते बिगड़ेंगे। कह सकते हैं कि आने वाले दिनों में भाजपा और गैर भाजपा शासित राज्यों में संबंध और खराब हो सकते हैं।
