कोविड-19 महामारी के इस अंधेरे दौर में नौकरी एवं अर्थव्यवस्था की बदहाली के बीच 5.6 करोड़ परिवारों को बीते तीन महीनों में काम मिला जिससे उन्हें राहत मिली। उन्हें यह काम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत प्राप्त हुआ जो सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने वाली शायद सबसे बड़ी योजना है। पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ के संवाददाताओं ने विभिन्न इलाकों के दौरे में यह पाया कि ग्रामीण रोजगार में वृद्धि हुई है और कई जगहों पर तो पढ़े-लिखे एवं कुशल कामगार भी इसका हिस्सा बने हैं। इसने लोगों को गरीबी के चंगुल में फंसने से बचाया। इस कार्यक्रम ने लोगों को भले ही अकुशल काम दिए लेकिन उससे लोगों को दिहाड़ी मजदूरी मिली जिससे वे अपने परिवारों का पेट भर सके। सवाल यह है कि रोजगार सृजन के इस वृहद कार्यक्रम को किस तरह टिकाऊ परिसंपत्तियों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। यह कार्यक्रम आज की तारीख में राहत मुहैया करा रहा है लेकिन भविष्य में यह किस तरह से आजीविका को सुरक्षित रखने का आधार बन सकता है? हमारा ध्यान इसी बिंदु पर रहने की जरूरत है।
कोरोनावायरस से उपजे गंभीर संकट के समय लाखों लोगों के अपने गांव लौटने के बीच अप्रैल से जून में इस योजना के तहत छह लाख से अधिक जलाशय एवं जल-भराव स्थलों का निर्माण एवं मरम्मत की गई। इस तरह लोगों को अपने घरों के पास ही तालाब खोदने या छोटे बांध बनाने या बदहाल पोखरों की मरम्मत का काम मिला। मॉनसून की बारिश ने इन जल-भंडारण स्थलों को लबालब भरकर न केवल भूजल को रिचार्ज करने एवं बाढ़ को रोकने में अहम भूमिका निभाई होगी बल्कि आने वाले सूखे दिनों के लिए पानी को भी जमा रखने का काम किया होगा। इससे कृषि की भी हालत सुधरी। हमें याद रखना होगा कि भारत के अधिकांश खेतों की सिंचाई नहरों से नहीं बल्कि भूजल से होती है। बारिश का पानी इक_ा करने एवं उसके संरक्षण की हमारी हर कोशिश आर्थिक वृद्धि का रास्ता तैयार करती है। मेरे सहकर्मियों ने पाया कि इस अवधि में कई पोखर-तालाब बनाए गए हैं। इसका मतलब है कि जमीन पर काम हुआ है। अब सवाल इन जलाशयों के टिकाऊपन को परखने का है। क्या ये टिकाऊ हैं? क्या इससे जल उपलब्धता में भी सुधार होगा? यह मसला भी उतना ही अहम है लेकिन अभी तक थोड़े साक्ष्य ही हैं जो बताएं कि इन जलाशयों के टिकाऊपन को भी परखा जा रहा है। मनरेगा संबंधी सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2017 से लेकर 2018 के दौरान 13 लाख कार्य जल संरक्षण एवं भूजल रिचार्ज में किए गए। अगर आप खेतों में बनाए गए करीब 3.5 लाख छोटे तालाबों को भी जोड़ लें तो फिर हमें देश में जल संरक्षण के लिए एक बड़ी क्षमता का निर्माण कर देना चाहिए था। इस मामले को अब सरल अंकगणित से देखते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में करीब 6.5 लाख गांव हैं और इनमें से हरेक गांव में हर साल जल-भंडारण के कम-से-कम चार कार्य जरूर होने चाहिए। जलस्रोतों की संख्या में हर साल होने वाली वृद्धि को ध्यान में रखें तो समय बीतने के साथ देश में किसी भी तरह का जल संकट नहीं होना चाहिए।
लेकिन जल संकट की स्थिति है। हमारे गांवों में पानी की भारी कमी है और साफ पेयजल की कमी का खमियाजा तो खराब सेहत के रूप में चुकाना पड़ता है। भारत सरकार ने सही ही कहा है कि इसका पेयजल मिशन घरों तक पानी के पाइप पहुंचाने का लक्ष्य न होकर उनमें पीने लायक पानी की आपूर्ति करना है। घरों तक जाने वाली इन पाइपों में साफ पानी तभी सुनिश्चित किया जा सकेगा जब भूजल रिचार्ज असरदार एवं टिकाऊ हो। इसके लिए ऐसे ढांचों की जरूरत होगी जिनमें बारिश का पानी जमा किया जा सके। ऐसे में मनरेगा के तहत निर्मित लाखों जल-भंडारण इकाइयों को नजदीकी आबादी से जोडऩे की जरूरत है ताकि उनकी निगरानी के अलावा उन्हें चालू हालत में भी रखा जा सके। इस तरह ये इकाइयां टिकाऊ परिसंपत्ति बन सकेंगी।
समस्या यहीं पर है। आज भी इस कार्यक्रम में केवल किए गए ‘कार्यों’ की ही गिनती होती है। निजी खेतों में बने छोटे तालाबों के सिवाय जल संरक्षण इकाइयों के बारे में शायद ही कोई जानकारी उपलब्ध है। जल शक्ति मंत्रालय ने कहा है कि अब वह मनरेगा के तहत निर्मित जलाशयों द्वारा भूजल रिचार्ज की निगरानी भी करेगा। यह एक स्वागत-योग्य कदम है। इससे यह कार्यक्रम मौजूदा दौर से इतर पारिस्थितिकीय आधारों के निर्माण एवं सशक्तीकरण में भी अहम भूमिका निभाएगा जिससे लोगों को आजीविका के अलावा भविष्य का लचीलापन भी मिलेगा। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मनरेगा के तहत किए जाने वाले कार्य की प्रकृति भी बदले। इसमें प्राकृतिक खाद बनाने से लेकर पेड़ लगाने तक के काम भी शामिल किए जाएं। सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों के लिए निजी जमीन पर शौचालयों के निर्माण को भी इसमें शामिल कर दिया है। अप्रैल-अगस्त के बीच महामारी से अर्थव्यवस्था के हलाकान होने के समय मनरेगा के तहत 1.55 करोड़ निजी कार्य भी कराए गए। इनमें पशुओं के लिए शेड बनाने और खेतों में तालाब खोदने से लेकर खेतों की तारबंदी तक के काम भी शामिल हैं। गरीबों को अपना भविष्य सुरक्षित बनाने का एक मौका मिला और इसके लिए उन्हें भुगतान भी किया गया।
मैं इस बात को इसलिए लिख रही हूं कि इन योजनाओं को लेकर सनक का मुझे अंदाजा है।
हम कहते हैं कि गड्ढे खोदना एवं हर साल खराब हो जाने वाली सड़कें बनाना कीन्सवादी मॉडल है। लेकिन यह अनुत्पादक श्रम है। फिर ऐसे लोग भी हैं जो मनरेगा को स्थानीय जन-प्रतिनिधियों के संरक्षण में चलने वाली भ्रष्ट योजना बताकर इसे खारिज कर देंगे। लेकिन कार्य के अधिकार वाली यह योजना न केवल कोविड महामारी के विषम समय में राहत दे रही है बल्कि आने वाले समय के लिए भी हमें संरक्षित कर रही है। वैसे इसका यह मायने भी है कि ‘कार्य के अधिकार’ को ‘आजीविका के अधिकार’ में परिवर्तित करना होगा।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं)
