लेख

नब्बे के दशक में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार

उस दौरान भारत में आर्थिक सुधारों का ऐसा व्यापक और लंबा दौर शुरू हुआ, जो देश ने पहले कभी नहीं देखा था।

Published by
शंकर आचार्य   
Last Updated- December 30, 2024 | 10:46 PM IST

भारत में आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निधन पर सभी क्षेत्रों के लोगों ने गहरा दुख जताया। अर्थशास्त्रियों के साथ राजनेताओं, अधिकारियों और पत्रकारों ने भी सिंह की असाधारण प्रतिभा को नमन किया और शोक प्रकट किया। प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव का पूरा समर्थन मिलने पर सिंह ने 1991 के भुगतान संकट की गंभीर चुनौती को आर्थिक सुधार लागू करने का अवसर बना दिया। उस दौरान भारत में आर्थिक सुधारों का ऐसा व्यापक और लंबा दौर शुरू हुआ, जो देश ने पहले कभी नहीं देखा था। ज्यादातर लोग इस बात से सहमत होंगे मगर इन सुधारों के प्रमुख बिंदुओं और बड़े नीतिगत कदमों की याद कुछ लोगों को ही होगी। इन बिंदुओं का संक्षिप्त ब्योरा हमें समझा देगा कि आर्थिक मामलों के माहिर मनमोहन सिंह के हम सब कितने ऋणी हैं।

वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने की पहल

सबसे पहला और अहम कदम था भारतीय बाजार को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ठीक से जोड़ना। इससे पहले लगभग चार दशकों से चल रही अंतर्मुखी विकास नीति के कारण 1950 से ही भारत की प्रति व्यक्ति आर्थिक वृद्धि दर 2 प्रतिशत से नीचे रही थी। विदेश से आने वाले सामान और सेवा पर 300 प्रतिशत का भारी-भरकम शुल्क लग रहा था। 1991 से अगले पांच साल में इसे घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया, जो तब भी ज्यादा था। पूंजीगत वस्तुओं, मध्यस्थ वस्तुओं और कच्चे माल पर लगने वाले सभी बेजा आयात प्रतिबंध और नियंत्रण वाणिज्य मंत्रालय के सक्रिय सहयोग से खत्म कर दिए गए। उपभोक्ता वस्तुओं पर ये नियंत्रण 2001 में ही खत्म हो पाए। 1991 से अगले पांच साल तक रुपये की कीमत गिरने दी गई और मुद्रा विनिमय दर की अपारदर्शी व्यवस्था खत्म कर 1993 तक बाजार से तय होने वाली विनिमय दर लागू कर दी गई। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और तकनीक हस्तांतरण से जुड़े कायदे काफी उदार बनाए गए और विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) को 1992 में भारतीय शेयर बाजार में निवेश की अनुमति दे दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि निर्यात तेजी से बढ़ा, पूंजी निवेश में भी तेजी आई और विदेश मुद्रा भंडार नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया।

उद्योगों से कड़े नियंत्रण खत्म

दूसरा बड़ा और अहम कदम उद्योग के विनियमन से जुड़ा था। जुलाई 1991 में जब मनमोहन सिंह ने अपना पहला ऐतिहासिक बजट पेश किया तब उद्योग मंत्रालय ने नई औद्योगिक नीति का प्रस्ताव संसद के पटल पर रख दिया। इस प्रस्ताव के बाद उद्योग जगत में लाइसेंस से जुड़ी कड़ी शर्तें एक तरह से खत्म ही हो गईं। दशकों से इन शर्तों के कारण भारत में उद्योग रफ्तार नहीं पकड़ पाए थे और नवाचार भी नहीं हो रहा था। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रखे गए क्षेत्रों की संख्या भी कम कर दी गई। सरकार के इस कदम से विमानन और दूरसंचार क्षेत्रों में तेज वृद्धि का रास्ता साफ हो गया। आश्चर्य की बात नहीं कि वर्ष 1992 से 1997 के बीच औद्योगिक वृद्धि दर 8 प्रतिशत के करीब पहुंच गई। भारत के इतिहास में औसत आर्थिक वृद्धि दर पहली बार 7 प्रतिशत के करीब पहुंची थी।

वित्तीय क्षेत्र में सुधार

भारत के वित्तीय क्षेत्र में 1991 में सार्वजनिक बैंकों का दबदबा था। मगर ब्याज दरों पर कड़ा नियंत्रण रखने, नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) और सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) को ऊंचा रखकर बैंकों के संसाधन हथियाने, ऋण आवंटन पर सख्त नियंत्रण तथा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के दूसरे सख्त नियंत्रण के कारण उसकी हालत अच्छी नहीं थी। 1990 तक एसएलआर लगभग 40 प्रतिशत हो गया था। वर्ष 1991 से 1996 के दौरान ब्याज दरों पर नियंत्रण समाप्त कर दिया गया और सीआरआर तथा एसएलआर काफी कम कर दिए गए। शुरुआती निजी बैंकों (आईसीआईसीआई बैंक और एचडीएफसी बैंक भी शामिल) को लाइसेंस दिए गए।

मौद्रिक नीति का नया स्वरूप

इस दौरान मौद्रिक नीति व्यवस्था नियंत्रण की बेड़ियों से निकलकर नए जमाने की जरूरतों के हिसाब से तय होने लगी। इसका मुख्य ध्यान नीतिगत ब्याज दरों और अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति पर केंद्रित हो गया। केंद्र सरकार अस्थायी ट्रेजरी बिल के जरिये मनमाना उधार लिया करती थी मगर 1994 में सरकार तथा रिजर्व बैंक के बीच समझौते के बाद यह सिलसिला भी खत्म होने लगा। इसके साथ मनमोहन सिंह ने पूरी समझबूझ के साथ रिजर्व बैंक को वित्त मंत्रालय के नियंत्रण से निकालकर स्वायत्तता देने का रास्ता भी साफ कर दिया।

पूंजी बाजार का विकास

शेयर बाजार 1991 में किसी पुराने ढर्रे पर चलने वाले क्लब की तरह काम कर रहा था। इसमें भेदिया कारोबार और दूसरे गैर-कानूनी काम धड़ल्ले से हो रहे थे। 1992 में सामने आया हर्षद मेहता कांड इसका जीता-जागता उदाहरण था। बाजार में हो रही इन अनियमितताओं से पैदा हुए रोष के बाद मनमोहन सिंह ने कई संस्थागत उपाय किए, जिनसे भारतीय पूंजी बाजार में मजबूती ही नहीं आई बल्कि बेहतर नियम-कायदे के साथ अत्याधुनिक तकनीक भी इस्तेमाल होने लगीं। ऑनलाइन ट्रेडिंग और कागज रहित रिकॉर्ड रखने का चलन शुरू हो गया।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी), सरकार के समर्थन वाले नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और नैशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड (एनएसडीएल) जैसे नए और अहम संस्थान अस्तित्व में आए। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों में सुधार हुए और सेवाओं पर भी कर लगाना शुरू हो गया। मगर यहां इसके बारे में विस्तार से चर्चा संभव नहीं हो सकेगी। फिर भी एक बात का विशेष रूप से जिक्र करना जरूरी है। मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक में अर्थशास्त्र के माहिर अधिकारियों की शीर्ष टीम तैयार करने और उसे बनाए रखने पर खास जोर दिया। मोंटेक सिंह आहलूवालिया, सी रंगराजन, एन के सिंह और वाई वी रेड्डी ऐसे ही कुछ नाम हैं। इन अधिकारियों की विशेषज्ञता, लंबे समय तक मौजूदगी और आपसी समन्वय से मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार कार्यक्रम तैयार करने एवं उन्हें लागू करने में आसानी हुई।

उपरोक्त सभी पहलुओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को असीमित मजबूती दी है। लेकिन मनमोहन सिंह की स्वयं की काबिलियत और भारतीय अर्थ तंत्र की उनकी गहरी समझ के बिना भारत का आर्थिक कायाकल्प कभी संभव नहीं हो पाता। सिंह की बुद्धिमत्ता, राजनीतिक परिपक्वता और इन सबसे ऊपर उनकी असाधारण सज्जनता एवं ईमानदारी ने वह सब कर दिखाया जो किसी दिवास्वप्न की तरह लग रहा था।

(लेखक 1993 से 2001 तक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं)

First Published : December 30, 2024 | 10:38 PM IST