हमारा संबंध आम नहीं था बल्कि आप उसे अजीब भी कह सकते हैं। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह बाजार अर्थव्यवस्था की पुरानी लीक से हटकर थे। अनिल अग्रवाल कट्टर पर्यावरणविद् थे। वर्ष 1991 में जब मनमोहन सिंह ने भारत का उदारीकरण किया और कारोबार के लिए दरवाजे खोल दिए तो उनकी तारीफ करने वालों में हम नहीं थे। हमारा सवाल यह था कि उदारीकरण का पर्यावरण पर क्या असर होगा क्योंकि हमारी नियामकीय संस्थाएं कमजोर थीं और हमें डर था कि अर्थव्यवस्था को सबके लिए खोलने से प्रदूषण बढ़ेगा और पर्यावरण बिगड़ेगा।
लेकिन सिंह ने हमारी बातों को खारिज नहीं किया और यही बात उन्हें बाकी अर्थशास्त्रियों से अलग करती है। उन्होंने हमसे बातचीत की। ऐसा नहीं है कि उन्होंने हमारी सारी बातें मान लीं मगर उन्होंने माना कि इस पहलू पर उन्होंने विचार ही नहीं किया था। वह और जानना चाहते थे, समझना चाहते थे कि व्यवस्थाओं को इतना मजबूत कैसे बनाया जा सकता है कि पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बन जाए। यह बातचीत ‘संतुलन’ के इर्दगिर्द ही थी।
अनिल ने 1990 के दशक के मध्य में जब उद्योग को पर्यावरण के मोर्चे पर प्रदर्शन के लिए रेटिंग देना शुरू किया तो डॉ सिंह ने इसकी परामर्श समिति का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। हम कंपनियों के प्रदर्शन को कसौटी पर कसना ही नहीं चाहते थे बल्कि उन्हें बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करना भी चाहते थे। उद्योग से नियामकीय मानकों को पूरा करने के बजाय और भी प्रयास करने की हमारी मांग पर उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। वह जानते थे कि भारत जैसे देश में आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और प्रदूषण की कीमत गरीब नहीं चुका पाएंगे। ऐसे देश में कायाकल्प करने वाले कदमों की जरूरत वह समझते थे। जब 2004 में सिंह प्रधानमंत्री बने तब अनिल का निधन हो चुका था और सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट की कमान मैं संभाल रही थी। मेरी उम्र और तजुर्बा बहुत कम था मगर सिंह ने कभी मुझे कमतर महसूस नहीं कराया। उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री कार्यालय में मिलने का मौका दिया, जल संरक्षण से लेकर जलवायु परिवर्तन तक तमाम मसलों पर मेरी बात सुनी। सुनी ही नहीं बल्कि मुझे उनका हल निकालने के लिए भी कहा। उनका पूरा जोर इसी बात पर था कि ‘क्या करना चाहिए’।
उन्होंने 2005 में मुझसे बाघ संरक्षण की समीक्षा के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बनने को कहा। समिति के तमाम सदस्य इस क्षेत्र के दिग्गज थे या देश के ताकतवर संरक्षण खेमे से जुड़े थे फिर भी उन्होंने मुझ पर भरोसा जताया, जिसे देखकर मैं अभिभूत हो गई। यह समय काफी मुश्किल भी था। एक ओर सरिस्का बाघ अभयारण्य में बाघ ही नहीं बचे थे। दूसरी ओर वन अधिकार अधिनियम पर चर्चा भी चल रही थी, जिसका मकसद आदिवासियों के साथ हमेशा से हुआ अन्याय समाप्त करना और उन्हें उस जमीन का अधिकार देना था, जिस पर वे रहते आए थे। लेकिन यह वन भूमि थी और कुछ स्थानों पर तो राष्ट्रीय उद्यानों या अभयारण्यों के भीतर आती थी, जहां बाघ और दूसरे जानवर रहते थे। यह एजेंडों का टकराव था और वर्ग संघर्ष भी था – संरक्षण और आदिवासियों के बीच का संघर्ष। मनमोहन सिंह दोनों के बीच फंस गए थे। वे दोनों पक्षों का सम्मान करते थे और किसी एक के खेमे में नहीं रहना चाहते थे। वे दोनों के हितों का संतुलन चाहते थे।
मैंने रिपोर्ट बनाई मगर उसे आधिकारिक तौर पर पेश करने से पहले उन्हें सौंप दिया। मैं चाहती थी कि वह देखें कि क्या काम करने हैं और खास तौर पर संरक्षण को समावेशी बनाने की जरूरत को समझें। वह समझ गए कि क्या दांव पर लगा है और क्यों विरोध हो रहा है। उन्होंने पूछा कि मुझे यकीन है, ऐसा किया जा सकता है और दोनों पक्ष इस पर तैयार हैं। मैंने कहा कि यह मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं। मैंने अनुरोध किया कि ‘जॉइनिंग द डॉट्स’ नाम की यह रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी जाए ताकि इससे एजेंडा पर जागरूकता बढ़ेगी और नीति भी बदलेगी।
मुझे डर था कि तमाम रिपोर्टों की तरह इसे भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यह उनकी ही देन है कि बाघों के संरक्षण के लिए बहुत कुछ किया गया और इन बाघों की संख्या बढ़ी हैं। अगर बाघों को बचाने के लिए इतना कुछ किया गया, बाघों की संख्या बढ़ी और उनके पगचिह्नों के बजाय असली बाघों की गिनती हो रही है तो उसका काफी श्रेय मनमोहन सिंह को जाता है। बाद में उन्होंने मुझे जलवायु परिवर्तन और गंगा की सफाई पर प्रधानमंत्री परिषद में भी शामिल किया। मगर उन्होंने कहीं भी मुझे यह नहीं लगने दिया कि मुझे अपनी बात नहीं कहनी चाहिए चाहे वह दूसरों की बातों से कितनी भी अलग क्यों न हो। सच कहूं तो दायरे तोड़कर आगे बढ़ने की मेरी आदत को उन्होंने हमेशा बढ़ावा दिया मगर शर्त यही थी कि हल व्यावहारिक होने चाहिए।
यही कारण है कि मनमोहन सिंह, उनकी खास तरह की राजनीति और उनकी शख्सियत हमारी अतिवादी दुनिया में याद की जाती है। आज हम अपनी बनाई दुनिया में रहते हैं, जहां हम उन्हीं की बात पढ़ते-सुनते हैं, जिनसे हमारी राय मेल खाती है। हमारे पास कोई और नजरिया सुनने के लिए वक्त इसलिए नहीं है क्योंकि वह हमारे विचारों से मेल नहीं खाता और हमारे किसी काम का नहीं है। या शायद इसलिए नहीं है क्योंकि यह उस खांचे में फिट नहीं बैठता, जो कारगर खांचा कहकर हमारे सामने रख दिया गया है। सिंह के भी पूर्वग्रह थे, अपने विचार थे, जो किताबी भी थे और उन्होंने अनुभव से भी सीखे थे। लेकिन नए विचारों के लिए उन्होंने अपने दरवाजे खुले रखे क्योंकि वे खुले विचारों के थे और परिवर्तन का संकल्प लेकर बढ़ रहे थे। वह भले थे और ताकतवर भी थे, जिन्होंने सत्ता का इस्तेमाल अच्छे कामों के लिए किया।