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भाषाई कुलीनतावाद और नया भारत

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 2:50 AM IST

नए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया की अंग्रेजी का ऑनलाइन मजाक उड़ाने का जो सिलसिला चल रहा है, उसमें आप किस ओर हैं?
एक पक्ष इन हमलों को मूर्खतापूर्ण, गलत और बड़बोलापन बता रहा है। शुरुआती तौर पर मैं इस पक्ष के साथ हूं। यह मुझे उन बातों की याद दिलाता है जो राज नारायण ने मोरारजी देसाई की जनता सरकार के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में लंदन यात्रा के समय कही थीं।
पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती तो वह  मंत्रालय कैसे चलाएंगे? समाजवादी राज नारायण जिनको हम  ‘असली लालू यादव’ कह सकते हैं, ने बिना घबराए जवाब दिया था, ‘अरे सब अंग्रेजी जानते हैं हम। मिल्टन-हिल्टन सब पढ़े हैं।’ दरअसल उनके देशज तौर तरीकों और अंदाज से पता नहीं चलता था कि उनकी शिक्षा कहां तक हुई है। वह छात्र संघ के नेता, स्वतंत्रता सेनानी और 17 वर्ष की अवस्था से कांग्रेस के सदस्य थे। वह वाराणसी से जनमुख नामक समाचार पत्र प्रकाशित करते थे और राम मनोहर लोहिया के अखबार जन के संपादकीय मंडल में थे। जाहिर है ये अखबार हिंदी में प्रकाशित होते थे। अंग्रेजी भाषा में उनकी कमजोरी उन्हें इंदिरा गांधी को पराजित करने से नहीं रोक सकी। वह भी एक नहीं बल्कि दो बार।  दूसरा पक्ष मांडविया के पुराने और खराब अंग्रेजी में लिखे गए ट्वीट्स को अत्यधिक मजाकिया पाता है। इस पक्ष के मुताबिक महामारी के दौरान बतौर भारत के स्वास्थ्य मंत्री उन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है? इसके बाद दलील आती है कि नरेंद्र मोदी की भाजपा से आप और क्या आशा करते हैं? भाजपा में प्रतिभा की कितनी कमी है और भाजपा इससे अधिक अहंकार भला क्या दिखा सकती है?
मैं पहले वाले पक्ष में इसलिए हूं और मानता हूं कि ज्यादातर भारतीय इसी तरफ होंगे क्योंकि यह मानना गलत है कि जिसे अंग्रेजी आती है वही शिक्षित, पढ़ालिखा, और बुद्धिमान है। अंग्रेजी से फर्क नहीं पड़ता लेकिन एक मंत्री या सार्वजनिक जीवन में रहने वाले किसी भी व्यक्ति में राजनीतिक समझ, समझदारी, सीखने की क्षमता तथा अपनी टीम में भरोसा पैदा करने की काबिलियत होनी चाहिए।
आज कोई यह याद नहीं करता कि के. कामराज जो भाजपा में अमित शाह के उभार के पहले किसी राष्ट्रीय दल (कांग्रेस, 1963-65) के सबसे ताकतवर अध्यक्ष थे, उन्हें 11 वर्ष की अवस्था में घोर गरीबी और पिता के निधन के कारण स्कूल छोडऩा पड़ा था। उन्हें तमिल आती थी और देश के गरीबों के दिलोदिमाग के साथ उनकी राजनीतिक समझ उन्हें श्रेष्ठ बनाती थी। उनके अंग्रेजी ज्ञान की बात करें तो कह सकते हैं कि वह खुशकिस्मत थे कि ट्विटर उनके समय नहीं था। अंग्रेजी के ज्ञान की महत्ता को कम नहीं आंका जा सकता। भारत में यह सशक्तीकरण की भाषा है। यही कारण है कि लोहियावादियों का सामाजिक कुलीनतावाद के विरोध में अंग्रेजी को खारिज करना गलत था। मुलायम सिंह यादव ने इसे उत्तर प्रदेश में लागू करने का प्रयास किया लेकिन उनके बेटे अखिलेश ने बहुत समझदारी से इससे दूरी बनाई। यही वजह है कि अब योगी आदित्यनाथ और वाई एस जगन मोहन रेड्डी जैसे मुख्यमंत्री अंग्रेजी भाषी शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं। परंतु किसी भाषा में पारंगत न होने पर अनपढ़ या गंवार कहना गलत है। हम भारतीयों ने भी अंग्रेजी को अपने तरीके से बोलना, लिखना और व्याख्यायित करना सीखा है। रॉबिन राफेल जो अमेरिका की दक्षिण एशियाई मामलों की प्रभारी उप विदेश मंत्री थीं, वह बताया करती थीं कि कैसे नरसिंह राव के कार्यकाल में प्रणव मुखर्जी ने अपनी वॉशिंगटन यात्रा समाप्त की। एक साथी अमेरिकी वार्ताकार ने उनसे कहा कि वह बताएं कि मुखर्जी ने अपनी बांग्ला लहजे वाली अंग्रेजी में क्या कहा। जब उन्होंने प्रणव की बात समझाई तो वह बोले, ‘अरे रॉबिन, तुम्हारे भारतीय तो 16 लहजों में अंग्रेजी बोलते हैं।’ बात केवल शैली की नहीं है। हमारे देश में अंग्रेजी लिखने और इस्तेमाल करने के भी कई तरीके हैं और मैंने अपनी यात्राओं में इन्हें पकडऩे का प्रयास किया। पहली बार मैं सन 1981 में इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता के रूप में पूर्वोत्तर गया। उस समय जिन पत्रकारों और लेखकों से मिलना उन्होंने मुझे सलाह दी कि अमुक आदमी पर भरोसा मत करना क्योंकि वह ‘ट्रबलशूटर’ है। मैं समझता कि ट्रबलशूटर तो अच्छा व्यक्ति होगा लेकिन ब्रह्मपुत्र घाटी में यह ट्रबलमेकर यानी संकट खड़ा करने वाले का पर्यायवाची था। बंगाल में अगर आप किसी से पूछेंगे कि अमुक व्यक्ति कहां है तो आपको बताया जाएगा कि वह ‘मार्केटिंग’ करने गया है यानी खरीदारी करने। पंजाब के अधिकांश कस्बाई इलाकों में यदि आप अपने आपको एडिटर यानी संपादक बताएंगे तो आपको लगेगा कि शायद तवज्जो नहीं मिल रही लेकिन फिर उन्हें समझ आएगा कि आप ऑडिटर (अंकेक्षक) हैं और उनके चेहरे चमक उठेंगे। हम किंग वाली अंग्रेजी बनाम सिंह वाली अंग्रेजी कहकर इसकी चुटकी लेते हैं। स्वर्गीय प्रेम भाटिया ने 1970 के दशक में द ट्रिब्यून का संपादक रहते इस शीर्षक से एक लेख लिखा था।
कहने का अर्थ यह नहीं कि खराब अंग्रेजी का इस्तेमाल अच्छा है। लेकिन अगर आपकी अंग्रेजी अच्छी नहीं है तो आपको एकदम बेकार भी नहीं कहा जा सकता। सही अंग्रेजी को भी सैकड़ों तरह से परिभाषित किया जा सकता है। हर कोई स्कूल के शुरुआती दिनों में अंग्रेजी नहीं सीखता। आप भाषा से खुद को कैसे जोड़ते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपने उसे कैसे सीखा? मैंने अपनी शुरुआती स्कूली शिक्षा उस व्यवस्था में ली जहां अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान कक्षा 6 में कराया जाता। उसके बाद शिक्षक तुकबंदी के जरिये तेजी से कुछ शब्द सिखाते। पंजाब से एक उदाहरण इस प्रकार है: पिजन यानी कबूतर, उड़ान यानी फ्लाई, लुक यानी देखो, आसमान यानी स्काई। बेटी-डॉटर, पानी-वॉटर, जयहिंद-नमस्ते, हैलो-हाय। जाहिर है इन का उच्चारण फलाई, सकाई, डाटर और वाटर के भदेस अंदाज में किया गया।
हमने अखबारों, रेडियो बुलेटिन और क्रिकेट कमेंट्री से अंग्रेजी सीखी और समय के साथ सुधार किया। परंतु हम हिंदी माध्यम वाले कभी अंग्रेजी लिखने या बोलने में पूर्ण पारंगत नहीं हो सके। परंतु बदलते भारत के साथ हम आगे बढ़ते गए।
यह महीना आर्थिक सुधारों के तीन दशक पूरा होने का महीना है। वाम आलोचक कहते हैं कि इन सुधारों से देश में कुलीनता की एक नई लहर आई। लेकिन वे गलत हैं। उनमें से अधिकांश खुद पुराने कुलीनों के वारिस हैं जिन्हें आर्थिक सुधारों के बाद आई हिंदी माध्यम वालों की नई पीढ़ी ने पछाड़ दिया।
अचानक कंपनियों और नियोक्ताओं की तादाद बढ़ी और कुशल कर्मियों की मांग में भी इजाफा हुआ। दून स्कूल, सेंट स्टीफंस कॉलेज, ऑक्सफर्ड, केंब्रिज आदि इस मांग को पूरा नहीं कर सकते थे। अचानक पारिवारिक विरासत अप्रासंगिक हो गई। इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया कि आपका परिवार किस क्लब का सदस्य है। यह परिवर्तन कॉर्पोरेट बोर्ड के सी स्वीट से लेकर स्टार्ट अप, सिविल सर्विस तक और अंग्रेजी कुलीनतावाद के अंतिम किले सशस्त्र बलों तक में आया।
मैं वापस मूल मुद्दे पर लौटता हूं जो राजनीति से संबंधित है और जो हमें बताता है कि मांडविया विवाद हमें इस बारे में क्या सिखाता है। इसके अलावा मोदी से जुड़ी अवधारणा को समझने और उसके विश्लेषण में मुझसे कहां चूक हुई। कुछ समय से कहता रहा हूं कि इसके तीन अहम तत्त्व हैं: एक नया परिष्कृत हिंदूकृत राष्ट्रवाद, भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा की छवि और गरीबों तक सक्षम तरीके से कल्याण योजनाओं का लाभ पहुंचाना।एक अन्य अहम कारक है कुलीनतावाद का विरोध। बीते दशकों के दौरान अंग्रेजीभाषी कुलीनों के विरुद्ध एक लोकप्रिय बगावत तैयार हुई। हमारी स्कूली किताबों में बड़े गर्व से बताया जाता था कि नेहरू किस अमीरी में पले बढ़े। अब यह बात किसी को प्रभावित नहीं करती लेकिन चाय वाले की कहानी करती है।
मोदी को कांग्रेस नेताओं का विलोम माना जाता है। देसी बनाम पश्चिमीकृत कुलीन। जब वह लुटियन और खान मार्केट गैंग पर हमला करते हैं तो वह दरअसल मतदाताओं से कह रहे होते हैं कि इन लोगों ने लंबा शासन कर लिया जबकि वे इसके काबिल नहीं थे। यही वजह है कि जब आप मनसुख मांडविया द्वारा महात्मा गांधी को ‘नेशन ऑफ द फादर’ कहने का मजाक उड़ाते हैं तो आप दरअसल मोदी की बात को मतदाताओं तक मजबूती से पहुंचाते हैं।

First Published : July 11, 2021 | 11:37 PM IST