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सामाजिक न्याय का झंडाबरदार बनने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि कोई आपकी जवाबदेही तय नहीं करेगा और आपके सुझाए समाधान नाकाम रहने पर भी सवाल-जवाब नहीं करेगा।
सामाजिक न्याय का विषय उठाने के लिए सबसे पहले आपको कुछ आंकड़े प्रस्तुत करने होंगे ताकि किसी खास पक्ष या समूह की तरफ इनका झुकाव साबित हो जाए। बस इसके बाद अन्याय होने का ढोल पीटना है और इसे खत्म करने के लिए कुछ भिन्न समाधान रखना है।
इतना भर करने से कोई भी सामाजिक न्याय का पक्षधर होने का चोला पहन सकता है। अगर कोई आपके सुझावों पर आपत्ति जताता है तो उसे जातिवादी, नस्लभेदी या पूर्वग्रह से ग्रसित व्यक्ति करार दिया जा सकता है। तीसरी बात यह है कि अगर आपके द्वारा सुझाए उपाय प्रभावी नहीं होंगे तब भी कोई आपसे सवाल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा।
आखिरकार, आपने आपको एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है जो सामाजिक असंतुलन के खिलाफ आवाज उठाता है और एक उदार हृदय रखता है! चौथी बात यह कि अगर आपके सुझाव वर्षों के क्रियान्वयन के बाद भी कोई परिणाम नहीं दे पाते हैं तो इसके लिए ‘तंत्रगत’ एवं ‘संरचनात्मक’ पहलुओं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। अब इन स्तरों पर सुधार के लिए तो और बड़े उपाय करने पड़ेंगे।
सबसे अच्छी बात है कि अगर इन उपायों से सफलता मिलती है तो भी आपको यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसका स्वरूप कैसा होगा। इस तरह सामाजिक न्याय के झंडाबरदार के रूप में आपका करियर सेवानिवृत्ति के बाद भी लंबा खिंच सकता है।
राहुल गांधी ने आंकड़ों के भंडार में से एक हिस्सा उठाया और कहा कि सरकार में 90 सचिवों में केवल तीन ही अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से आते हैं। वह यह साबित करना चाह रहे हैं कि नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (जितनी बड़ी आबादी, उतना हक) का प्रावधान होना चाहिए।
अगर उनका यह तर्क काम नहीं करेगा तो वह इसका ठीकरा अगड़ी जाति समूहों पर फोड़ देंगे और आरोप लगाएंगे कि वे ओबीसी की प्रगति की राह में बाधा बन रहे हैं।
उनकी पार्टी के ही प्रवीण चक्रवर्ती ने ‘द इकनॉमिक टाइम्स’ में हाल में अपने एक लेख में तर्क दिया कि उद्योग जगत में निफ्टी 50, यूनिकॉर्न संस्थापकों और निदेशकों में 90 प्रतिशत से अधिक ‘विशिष्ट’ या ‘विशेष अधिकार प्राप्त’ जातियों से आते हैं, इसलिए भारतीय उद्योग जगत को जातिगत स्तर पर समानता लाने के उपाय करने चाहिए।
चक्रवर्ती के कहने का अभिप्राय यह था कि भारतीय उद्योग जगत को न केवल उच्च प्रतिस्पर्धा, अधिक महंगे ऋण, वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था में बाधा, ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक एवं संचालन) चुनौतियों और महिला-पुरुष असमानता के साथ जातिगत विषयों से भी निपटना चाहिए।
यह सोचने वाली बात है कि क्या सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले लोगों सुझाई गईं प्राथमिकताओं पर ध्यान देने के बाद उद्योग जगत के पास कारोबार पर ध्यान देने का समय बच पाएगा।
अगर अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) के पक्ष में सात दशकों तक तीन पीढ़ियों के शासनकाल में आरक्षण व्यवस्था (अफर्मेटिव ऐक्शन) से एक ऐसी सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है जिसमें उन्हें अतिरिक्त कोटा की आवश्यकता नहीं है तो इस बात की क्या गारंटी है कि आबादी के आधार पर ओबीसी को यह लाभ देने से उनका जीवन बेहतर हो जाएगा?
अब समय आ गया है कि कोटा या आरक्षण की बात करने वाले इन लोगों से कुछ असहज प्रश्न किए जाएं। पहला प्रश्न, अगर आनुपातिक प्रतिनिधित्व ही अंतिम लक्ष्य है तो यह समाधान राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर लागू क्यों नहीं हो सकता? दक्षिणी राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश और बिहार का प्रतिनिधित्व कम क्यों रहना चाहिए?
दूसरा, अगर उपरोक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि जो राज्य परिवारों का आकार सीमित रखने में सफल रहा है उन्हें बेवजह दंडित नहीं किया जा सकता तो यह तर्क एससी एवं एसटी पर लागू क्यों नहीं हो सकता?
देश की कुल आबादी में इन जातियों की संख्या बढ़ने के कारण विधानसभाओं में इनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या में इजाफा हुआ है। अगर ऊंची जातियों ने परिवारों का आकार ओबीसी और एससी एवं एसटी की तुलना में छोटा रखा है तो उन्हें फिर किस बात का दंड मिलना चाहिए?
तीसरा प्रश्न, यह मान भी लिया जाए कि सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर असंतुलन दूर करने के लिए कोटा एक समाधान है तो इसकी एक सीमा तो होनी चाहिए। यह 69 प्रतिशत, 75 प्रतिशत या 90 प्रतिशत होगी? हम कैसे जानेंगे कि यह व्यवस्था शर्तिया काम करेगी? क्या आरक्षण व्यवस्था को सदैव ही मेधा के ऊपर वरीयता दी जानी चाहिए?
चौथी बात, अगर पूरा ध्यान सामाजिक समूहों में मौजूदा रोजगारों का वितरण आनुपातिक आधार पर करने पर है तो कोटा किस तरह नए रोजगारों के सृजन पर असर डालेगा?
जब विविधता लाने का दबाव कंपनी प्रबंधन के लिए सिर दर्द बन जाएगा तो कोई क्यों रोजगार के नए अवसर सृजित करेगा? ऐसे में वे श्रम की जगह तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं करेंगे ताकि कर्मचारियों की आंतरिक संरचना पर दिमाग खपाने के बजाय कारोबार पर ध्यान केंद्रित किया जा सके?
पांचवां प्रश्न, क्या कोटा साइबर स्पेस, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, विशिष्ट सुविधाओं वाले स्वास्थ्य देखभाल खंड या हाइब्रिड युद्ध कला में असरदार होगा, जहां कुशल लोगों की जरूरत होती है?
क्या सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने वाले लोग हमें बताएंगे कि देश में अगर पर्याप्त संख्या में ओबीसी साइबर विशेषज्ञ नहीं हैं तो क्या उन्हें इन कार्यों में भी आरक्षण या कोटा का लाभ दिया जाना चाहिए?
छठा प्रश्न, जिन क्षेत्रों में कम हुनर चाहिए और जहां विभिन्न जाति समूहों के लोग आसानी से एक दूसरे की जगह ले सकते हैं तो वहां कोटे की क्या जरूरत है जब कुछ बुनियादी योग्यताओं वाले आवेदकों के बीच लॉटरी प्रणाली से ही बात बन जाएगी?
सातवां प्रश्न, राष्ट्रव्यापी जाति सर्वेक्षण ऐसी क्या विशेष बात बताएगा जो एक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण नहीं बता पाएगा?
उदाहरण के लिए अगर यह दावा किया जाए कि कुछ समूह रोजगारों में कम प्रतिनिधित्व पा रहे हैं तो इसके बाद यह बात नहीं उठेगी कि इन समूहों में गरीब लोगों को तरजीह दी जाए?
अगर जातिगत सर्वेक्षण में जातियों के भीतर कमजोर लोगों को लाभ देने का जिक्र नहीं होगा तो संपन्न लोग बिना बेवजह कोटे का अनुचित लाभ लेंगे। हम यह क्यों मान लें कि हमें जाति से संबंधित संख्या या आंकड़ों का अनिवार्य रूप से पता लगाना चाहिए मगर किसी जाति में ही पिछड़े लोगों को नजरअंदाज कर दिया जाए?
आठवीं बात, कोई भी जाति या यहां तक कि सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण हमें यह नहीं बता पाएगा कि क्यों कुछ लोग ऊंचे पदों पर पहुंच जाते हैं तो कुछ मझोले या निचले स्तरों पर ही रह जाते हैं।
इसका कारण यह है कि सफलता एवं विफलता के कई कारण होते हैं और यह कहना निराधार होगा कि जातिगत संरचना के कारण कुछ सामाजिक समूह पीछे रह गए जबकि कुछ आगे निकल गए।
क्षेत्रीय, सांस्कृतिक एवं अन्य कारक भी जिम्मेदार होते हैं। अगर अमेरिका में कई भारतीय कंपनियों में शीर्ष स्तरों पर पहुंच गए हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें पहले से विशेष अधिकार या मिले हुए थे।
नौवीं बात, अगर किसी सामाजिक समूह में सभी स्थितियां समान होती हैं तब भी व्यक्तिगत प्रतिभा, किसी खास समय में उपलब्ध अवसर और किस्मत सफलता एवं विफलता का निर्धारण करते हैं।
सामाजिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न समाज में भी परिणामों में समानता सुनिश्चित नहीं किए जा सकती। हां, हम अनुचित भेदभाव या किसी खास समूह के पक्ष को अनुचित लाभ देने वाली व्यवस्था को दूर करने का लक्ष्य जरूर तय कर सकते हैं।
दसवीं बात, सामाजिक समूह अपने सदस्यों को सामाजिक पूंजी मुहैया कराते हैं। दूसरे समूहों के लोगों के बजाय अपने समूहों के लोगों की मदद करना मानव का सामान्य स्वभाव है और यह स्वभाव महज कोटा निर्धारित करने से दूर नहीं हो सकता।
सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले लोग तो ये सवाल पूछेंगे भी नहीं, समाज में असमानता दूर करने एवं किसी खास समूह के पक्ष में काम करने वाली व्यवस्था का समाधान खोजना तो दूर की बात है।
कोटा अस्थायी उपचार है मगर अपने आप में पूर्ण समाधान नहीं है। मगर औसत राजनीतिज्ञों को यह बताने का कोई फायदा नहीं क्योंकि उनकी सोच चुनाव तक ही सीमित है और भविष्य की पीढ़ियों से उनका कोई गंभीर सरोकार नहीं है।
(लेखक स्वराज पत्रिका के संपादकीय सलाहकार हैं)