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बजट को चुनावी तैयारी का रूप न दें तो बेहतर

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 1:06 PM IST

आगामी केंद्रीय बजट में अत्य​धिक खर्च के बजाए राजकोषीय घाटे में तेजी से कमी लाने की योजना होनी चाहिए। बता रहे हैं ए के भट्टाचार्य 

वित्त मंत्रालय ने वर्ष 2023-24 के लिए केंद्रीय बजट तैयार करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। 1 फरवरी, 2023 को पेश किया जाने वाला यह बजट नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट होगा। ऐसा इसलिए कि सामान्य तौर पर अगला आम चुनाव अप्रैल-मई 2024 में होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से इस बजट को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पांचवें बजट और इस सरकार के अंतिम बजट को चुनाव से पहले की तैयारी के रूप में देखा जा सकता है।
हालांकि कई अहम कारणों से वित्त मंत्री को इसे चुनाव से पहले का बजट नहीं बनाना चाहिए। ऐसा इसलिए नहीं कि बजट में की गईं लोकलुभावन पेशकश सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक फायदा नहीं दिला पाती हैं। मतदाता निश्चित तौर पर याद रखते हैं कि सरकार बजट में उनके लिए किस तरह की रियायतें और राहत दे रही है जिससे उनके चुनावी विकल्प प्रभावित होते हैं।
लेकिन समस्या यह है कि मतदाता जल्दी सब कुछ भूल जाते हैं। फरवरी 2023 में उन्हें लुभाने के लिए जो भी किया जाएगा उसे एक साल से अधिक समय बाद अप्रैल-मई 2024 में होने वाले आम चुनाव तक निश्चित तौर पर भुला दिए जाने की पूरी संभावना है। ऐसे में वर्ष 2023 के बजट को चुनाव से पहले पेश किए जाने वाले बजट का रूप देने से इसके राजनीतिक फायदे कम मिलेंगे।
हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जो चीजें ज्यादा कारगर तब होंगी जब चुनाव से कुछ महीने पहले लोगों को राहत और रियायत पैकेज देने की घोषणा की जाए। मतदाता जब मतदान केंद्र पर वोट डालने के लिए जाएंगे तो उन्हें ये चीजें याद रहेंगी और सत्तारूढ़ पार्टी को इस तरह की पेशकश से अधिक लाभ मिलने की संभावना बनेगी।
शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कुछ ऐसा ही किया था, भले ही इसकी वजह से कई लोगों की भौहें तन गईं थीं। तत्कालीन वित्त मंत्री पीयूष गोयल द्वारा फरवरी 2019 में पेश किए गए अंतरिम बजट में सरकार ने किसानों के लिए 75,000 करोड़ रुपये के वार्षिक खर्च वाली आमदनी सहायता योजना ‘पीएम-किसान’ की घोषणा कर दी।
इसके अलावा गोयल ने 5 लाख रुपये तक की कर योग्य वार्षिक आमदनी वाले व्यक्तिगत करदाताओं के लिए कर छूट की घोषणा करते हुए कर नीति में अहम बदलाव किया जिसका अर्थ है कि तीन करोड़ से अधिक करदाताओं द्वारा 18,500 करोड़ रुपये का लाभ उठाया जाएगा। यह मानना उचित होगा कि वर्ष 2019 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को लाभ पहुंचाने वाले कई अन्य कारकों में पीएम-किसान योजना और आयकर रियायतें शामिल हैं।
इस तरह की पहल ने सत्तारूढ़ पार्टी को चुनावी फायदा दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। शुद्धतावादियों ने वित्तीय खर्च वाली योजनाओं की घोषणा से लैस अंतरिम बजट पर गंभीर आपत्ति जताई है। कुछ हफ्ते में चुनाव कराने जा रही किसी सरकार को अंतरिम बजट के माध्यम से खर्च या कर रियायतों की घोषणा नहीं करनी चाहिए। इससे पहले 2014 के अंतरिम बजट में कर रियायतों की घोषणा की गई थी, लेकिन ये टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए अप्रत्यक्ष करों से जुड़े थे। लेकिन 2019 में पहली बार अंतरिम बजट में प्रत्यक्ष कर में राहत देने की घोषणा की गई।
इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार को 2024 के अंतरिम बजट के साथ छेड़छाड़ करनी चाहिए। सरकार चुनाव से पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ नीतियों और योजनाओं की घोषणा करने पर विचार कर सकती है लेकिन यह अंतरिम बजट प्रक्रिया का हिस्सा नहीं हैं। इसका फायदा यह होगा कि अतिरिक्त वित्तीय खर्च का बोझ एक साल बाद उठाना होगा जिससे सरकार वर्ष 2023-24 में जरूरी राजकोषीय सुधार कर सकेगी।
अहम बात यह है कि वर्ष 2023-24 के बजट में बड़ी खर्च और रियायतों वाली योजनाओं को पर्याप्त जगह देने के लिए कोई बाध्यकारी राजनीतिक और चुनावी तर्क नहीं है जिसके परिणामस्वरूप राजस्व व्यय बढ़ जाता है और राजकोषीय सतर्कता को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके विपरीत इस वक्त यह आवश्यक है कि सरकार अपने राजकोषीय दायरे को मजबूत करे। वित्त मंत्री ने केंद्र के लिए लंबी अवधि में राजकोषीय कटौती की योजना तय की थी जबकि राज्यों पर 15वें वित्त आयोग द्वारा तय जिम्मेदारी के मुताबिक तेज रफ्तार से राजकोष में सुधार करना है।
केंद्र के राजकोषीय घाटे को वर्ष 2025-26 तक 4.5 प्रतिशत के स्तर पर लाया जाना है, जबकि राज्यों को 2023-24 तक इसे तीन प्रतिशत के स्तर तक लाना चाहिए। भले ही राज्यों का लक्ष्य कठिन है, लेकिन वर्ष 2021-22 के लिए 18 प्रमुख राज्यों के संशोधित अनुमानों के आंकड़ों से पता चलता है कि उनका संयुक्त राजकोषीय घाटा लगभग 3.4 प्रतिशत होगा और वर्ष 2022-23 में इसके कम होकर 3.3 प्रतिशत तक होने का अनुमान है।
वर्ष 2023-24 में राज्यों के लिए तीन प्रतिशत राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लग रहा है, हालांकि यह पूरी तरह से असंभव नहीं है। वहीं दूसरी ओर, केंद्र ने अपने राजकोषीय घाटे को 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 9.2 प्रतिशत से घटाकर 2021-22 में 6.7 प्रतिशत कर दिया और वर्ष 2022-23 में इसे घटाकर 6.4 प्रतिशत के स्तर पर लाने की संभावना है। अगर वित्त मंत्रालय 2023-24 के बजट को चुनाव से पहले की प्रक्रिया के रूप में देखता है तब अगले तीन वर्षों में राजकोषीय घाटे में लगभग दो प्रतिशत की कमी लाना मुश्किल होगा।
एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत के सामने अब आर्थिक चुनौतियां इतनी सख्त हैं कि आगामी बजट में यह बात शामिल करना जरूरी होगा कि सरकारी वित्त राजकोषीय मजबूती पर जोर दे जिसका वादा पहले ही वित्त मंत्री ने किया था। सरकार को वैश्विक आर्थिक मंदी, भारत के निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के बाहर जाने जैसे परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि इन सभी वजहों से विदेशी मुद्रा खाते पर दबाव बढ़ेगा।
महंगाई को नियंत्रण में रखने, आरक्षित भंडार में और कमी को रोकने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि की जरूरत को दरअसल वृद्धि से जुड़ी धारणाओं में नरमी लाने के अर्थ के रूप में भी देखा जा सकता है। वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना बढ़े हुए खर्च के माध्यम से उच्च वृद्धि की राह तलाशने की तुलना में विचार करने वाला लक्ष्य होगा क्योंकि इससे घाटा और भी बढ़ जाएगा।
पिछले दो वित्त वर्षों में संयुक्त सरकारी घाटा दो अंकों में बना हुआ है। वर्ष 2022-23 में, संयुक्त घाटा अब भी लगभग 10 प्रतिशत के स्तर पर हो सकता है। तीन साल तक घाटे का ऐसा उच्च स्तर असमान होगा। इस तरह की अधिकता के आर्थिक नतीजे भी असीमित हो हो सकते हैं। इससे पहले कि चुनावी मजबूरियां 2024 में हालात और मुश्किल बना दें, सरकार को वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट में इस बात का ध्यान रखना चाहिए और राजकोषीय घाटे में तेजी से कमी लाने के लिए अपने खर्च की प्राथमिकता तय करनी चाहिए।

First Published : October 27, 2022 | 9:06 PM IST