बैंकरों को लग रहा है कि राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) में जाना महंगा है। उन्हें लगा कि वीडियोकॉन की वेदांत समूह को बिक्री में बैंकों को अपना 95.85 फीसदी बकाया छोडऩा होगा यानी वे 64,838 करोड़ रुपये के अपने कुल स्वीकृत दावों में से केवल 4.15 फीसदी की ही वसूली कर पाएंगे।
एनसीएलटी के पीठ का मानना था कि वीडियोकॉन के लिए पेशकश 2,568 करोड़ रुपये की अनुमानित परिसमापन कीमत के करीब है। परिसमापन की कीमत को गोपनीय रखा जाता है और बैंकों की ऋणदाताओं की समिति के सामने इसका खुलासा बोलियों पर अंतिम फैसला लिए जाते समय ही किया जाता है। ऐसा लगता है कि पीठ परिसमापन कीमत के बाहर आने की संभावना की तरफ इशारा कर रहा है।
गोपनीय जानकारी के इस तरह बाहर आने में खतरा स्पष्ट होना चाहिए। अगर कोई बोलीदाता यह मानता है कि मुकाबले में कोई गंभीर बोलीदाता नहीं होगा तो वह परिसमापन कीमत के आसपास कीमत बोलकर अपना दांव खेल सकता है। इसके बाद अगर कोई बोलीदाता परिसमापन कीमत पर किसी कंपनी का अधिग्र्रहण कर लेता है तो शायद वह इसे चलाने में ज्यादा दिलचस्पी न रखे। अगर वह आकलन करता है कि उसे अनुमानित परिसमापन कीमत से 15 फीसदी ज्यादा कीमत मिल सकती है तो वह उसके परिसमापन का फैसला ले सकता है।
किसी कंपनी को बोलीदाता को बेचने का मकसद उसे चालू रखना, नौकरियों एवं आमदनी को बचाना है। जहां उसे परिसमापन कीमत के करीब बेचा जाता है, वहां यह उद्देश्य खत्म हो सकता है। कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो बोलीदाता को समाधान योजना पेश करने के बाद किसी कंपनी के परिसमापन से रोकता है।
शिवा इंडस्ट्रीज के एक अन्य मामले में बैंकों ने एनसीएलटी से 4,863 करोड़ रुपये के बकाया कर्ज में से 93 फीसदी छोड़कर प्रवर्तक के साथ समाधान की मंजूरी मांगी। एनसीएलटी के पीठ ने एक स्पष्टीकरण मांगा और अपना आदेश सुरक्षित रख लिया। यह बकाये में इतनी छूट है, जिसका फैसला बैंकों के लिए खुद लेना मुश्किल होगा। उन्हें यह मानना चाहिए कि एनसीएलटी के तत्वावधान में ऐसा करने से उन्हें यह सुरक्षा मिलती है कि ‘हमने उचित प्रक्रिया का पालन किया है।’ आईबीसी का रास्ता तैयार करने के मुख्य मकसदों में से एक बैंकों की वसूली में सुधार लाना था। वे पुनर्गठन, एक बारगी निपटान और परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों (एआरसी) को बिक्री के जरिये पर्याप्त वसूली नहीं कर पा रहे थे। एआरसी से बहुत कम पुनर्गठन हो पा रहा था। वे बैंकों के लिए केवल परिसमापन प्रक्रिया किसी तीसरे पक्ष को सुपुर्द करने की साधन भर थीं। इसके नतीजतन वसूली बहुत कम थी। नवगठित राष्ट्रीय परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी लिमिटेड से उम्मीद है कि हमें गंभीरतापूर्वक परिसंपत्ति पुनर्गठन देखने को मिलेगा।
क्या एनसीएलटी में वसूली बेहतर है? मैक्वायरी सिक्योरिटीज के मुताबिक अगर हम भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से एनसीएलटी में भेजे गए शीर्ष नौ खातों को छोड़ देते हैं तो एनसीएलटी के तहत वसूली औसतन 24 फीसदी रही है। हमें इसे लेकर अचंभित नहीं होना चाहिए। केवल आठ फीसदी मामलों का समाधान हुआ है। तीस फीसदी मामलों का परिसमापन हुआ है। बैंकों को यह देखना चाहिए कि क्या हाल के वर्षों में बैंकों की अगुआई में समाधान में वसूली बेहतर रही है।
बैंकों के लिए एनसीएलटी नहीं बल्कि बैंक की अगुआई में समाधान पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। वे जहां संभव हो, वहां पुनर्गठन के जरिये उद्यमों को चालू रखने में सक्षम होने चाहिए। हालांकि ऐसा उतना नहीं होता है, जितना होना चाहिए क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में बैंक अधिकारियों को डर होता है कि कई साल बाद भी कानून प्रवर्तन एजेंसियां उनके पीछे पड़ सकती हैं। उन्हें ऐसी व्यवस्था की दरकार है, जिसमें उन्हें बकाया कर्ज में छूट देने के लिए संरक्षण मिले। ऐसी व्यवस्था के अभाव के कारण ही जब से एनसीएलटी वजूद में आया है, यही पहला सहारा बन गया है।
परिसंपत्तियों की बिक्री से स्वत: ही बेहतर कीमत निर्धारण या वसूली नहीं होगी। नीलामी कुशल होनी चाहिए। किसी कुशल नीलामी के लिए बहुत से बोलीदाता होने, उचित आरक्षित कीमत जैसी शर्तें इतनी कठिन हैं कि ये विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी मुश्किल से ही पूरी हो पाती हैं।
इसके अलावा एनसीएलटी के तहत समाधानों पर मुकदमेबाजी और बड़ी तादाद में मामलों के कारण देरी का असर पड़ रहा है। मैक्वायरी का अनुमान है कि मामलों के परिसमापन या समाधान में 400 से अधिक दिन लगते हैं, जबकि इसके लिए निर्धारित समय-सीमा 270 दिन ही है। बोलीदाताओं को पता होगा कि किसी परिसंपत्ति के अधिग्रहण में काफी समय लगेगा और इसके नतीजतन परिसंपत्तियों की कीमत में कमी आएगी। वे इसके मुताबिक ही अपनी बोलियां लगाएंगे। यह साफ नहीं है कि एनसीएलटी के मामलों में बिक्री परिसंपत्तियों का कितने बेहतर ढंग से विज्ञापन किया जाता है। कम से कम कुछ मामलों में निवेश बैंकरों को वैश्विक स्तर पर खरीदार तलाशने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। निजी इक्विटी फंड तलाशे जाने चाहिए। शायद बैंकर ऐसा करने में ज्यादा सक्षम हैं।
उन मामलों में बोली से प्रवर्तकों को बाहर रखने के प्रावधान पर भी फिर से विचार करने की जरूरत है, जिनमें प्रवर्तकों ने जान-बूझकर डिफॉल्ट नहीं किया है। एनसीएलटी के एक पीठ ने हाल में सुझाव दिया था कि डीएचएफएल के मामले में प्रवर्तकों को बोली लगाने का एक मौका दिया जाना चाहिए। इस सुझाव से बैंक खफा थे और वे यह मामला एनसीएलएटी में लेकर गए हैं।
बैंकों का यह मानना सही है कि प्रवर्तकों को डिफॉल्ट करने के बाद परिसंपत्तियों की बोली लगाने की मंजू्री देने से नैतिक जोखिम पैदा होता है। लेकिन बहुत से ऐसे मामले हैं, जिनमें डिफॉल्ट उन वजहों से हुए, जो प्रवर्तकों के नियंत्रण से बाहर थीं। निश्चित रूप से जान-बूझकर डिफॉल्ट करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन डिफॉल्ट के प्रत्येक मामले को नैतिकता के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए और बैंकों को अपने ऋणों की उचित वसूली से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। यह अच्छा विचार है कि जिन प्रवर्तकों ने जान-बूझकर डिफॉल्ट नहीं किया है, उन्हें एनसीएलटी में बोली की मंजूरी दी जाए। जहां बैंकरों को लगता है कि प्रवर्तक का ट्रैक रिकॉर्ड भरोसेमंद नहीं हैं, वहां उन्हें अपनी वाजिब वजह बताकर बोली जीतने वाले प्रवर्तकों को खारिज करने और अगली बोली को स्वीकार करने का अधिकार होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि बैंकरों को विवेकाधिकार दिए जाने का दुरुपयोग होगा। लेकिन ऐसा विवेकाधिकार नहीं दिए जाने का नतीजा ऋण की कमजोर वसूली के रूप में सामने आता है। अगर वीडियोकॉन और शिवा इंडस्ट्रीज को मानक नहीं बनाना है तो दिवालिया प्रक्रिया पर फिर से विचार करने की जरूरत है।
बैंकिंग को लेकर उम्मीद
फंसे ऋणों (एनपीए) में उतनी बढ़ोतरी नहीं हुई, जितनी आशंका थी। यह महामारी के समय में भारतीय बैंकिंग के बारे में रोचक बात है। आरबीआई की ताजा वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट (एफएसआर) में आशावादिता को लेकर कुछ गलत नहीं है।
जनवरी 2021 की एफएसआर में कहा गया था कि एनपीए बेसलाइन केस (बेहतर स्थिति) में सितंबर 2021 तक अग्रिमों का 13.5 फीसदी रहेगा। अब इसका अनुमान है कि बेसलाइन एनपीए मार्च 2022 में 9.8 फीसदी होगा, जो मार्च 2021 में 9.5 फीसदी के आंकड़े से मामूली अधिक है। पिछले साल कुछ समाचार शीर्षकों में कहा गया था, ‘आरबीआई का एनपीए 14.8 फीसदी रहने का अनुमान।’ यह सितंबर 2021 में सबसे बुरे हालात का अनुमान था। अब आरबीआई का कहना है कि सबसे बुरे हालात में एनपीए मार्च 2022 में 11.22 फीसदी रहेगा।
आरबीआई के संशोधित आंकड़ों का क्या मतलब है? पहला, महामारी की दूसरी लहर से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र मुख्य रूप से अप्रभावित रहा है। अगर आरबीआई के आगामी वर्ष के अनुमान सही साबित होते हैं तो यह वास्तव में आश्चर्यजनक होगा। इससे यह पता चलेगा कि पिछले दशक के संकट के वर्षों के बाद आज भारतीय बैंकिंग प्रणाली कितनी मजबूत है। यह इस बात का भी सबूत होगा कि दूसरी लहर का वृहद आर्थिक प्रभाव उतना अधिक नहीं है, जितना निराशावादियों ने अनुमान जताया था। स्तंभ लेखक का रुख सही साबित हुआ है।