भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपने मुद्रास्फीति-लक्ष्यीकरण ढांचे की समीक्षा के लिए एक परिचर्चा पत्र जारी कर अच्छा कदम उठाया है। मार्च 2026 में मुद्रास्फीति-लक्ष्यीकरण ढांचे की अनिवार्य दूसरी पांच वर्षीय समीक्षा से पहले इस परिचर्चा पत्र के जरिये प्रमुख पहलुओं पर प्रतिक्रिया मांगी गई है। वर्ष 2021 में पहली पांच वर्षीय समीक्षा में इस तरह का सार्वजनिक परामर्श नहीं हुआ था। यह तर्क दिया जा रहा है कि यह परिचर्चा पत्र सरकार द्वारा जारी किया जाना चाहिए था क्योंकि मुद्रास्फीति लक्ष्य फिर से निर्धारित करने की जिम्मेदारी आरबीआई अधिनियम के अंतर्गत सरकार की है।
कई विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने तब से चर्चा पत्र के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। समग्र (हेडलाइन) बनाम मुख्य (कोर) मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण के मुद्दे पर इस समाचार पत्र द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण सहित कई टिप्पणियां आई हैं, जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) समूह (बास्केट) के विभिन्न घटकों के भार में उचित बदलाव के साथ समग्र मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण का समर्थन करती हैं। अन्य मुद्दों पर यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में ही अधिक मत आए हैं।
आरबीआई कई तरह के कार्य करता है, जिनमें कुछ वास्तव में विरोधाभासी हैं। इसके प्रदर्शन को वस्तुनिष्ठ रूप से आंकने के लिए मुख्य प्रदर्शन संकेतक (केपीआई) बताना आसान नहीं है। 2016 में आरबीआई अधिनियम में संशोधन का उद्देश्य आरबीआई को मुद्रास्फीति नियंत्रित करने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहना, उसे जवाबदेह बनाना और रीपो दर तय करने में पारदर्शिता लाना था।
यह ढांचा उचित रूप से काम कर रहा है और इसके साथ मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) भी प्रभावी साबित हुई है। प्रत्येक एमपीसी बैठक के बाद आरबीआई मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि के अनुमानों के अलावा अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से समझाने में मुखर रहा है। एमपीसी बैठक के एक पखवाड़े के बाद प्रत्येक सदस्य के विचार भी सावर्जनिक किए जाते हैं।
एक विषय जो अक्सर सामने आता रहता है वह है आरबीआई को अपने सांविधिक दायित्व पूरा करने में अधिक स्वतंत्रता देना। यह विषय अनिवार्य रूप से ‘मूल्य स्थिरता बनाम आर्थिक वृद्धि’ बहस से उत्पन्न होता है। ‘मूल्य स्थिरता’ और ‘आर्थिक वृद्धि’ दोनों वांछनीय लक्ष्य हैं। हालांकि, यह समझने की जरूरत है कि आर्थिक वृद्धि के लाभ प्रति व्यक्ति आय असमानता और अन्य कारकों के कारण विभिन्न समूहों के बीच असमान रूप से वितरित होते हैं, वहीं गरीब लोगों और असंगठित क्षेत्रों पर मूल्य वृद्धि का अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इस तरह, मूल्य स्थिरता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह कार्य केंद्रीय बैंक को इसलिए सौंपा गया है क्योंकि निर्वाचित सरकार के लिए ब्याज दरों पर सटीक और समय रहते निर्णय लेना मुश्किल हो सकता है। यह सच है कि राजकोषीय नीति एवं अन्य सरकारी उपाय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आदर्श रूप में उचित परिणाम प्राप्त करने के लिए मौद्रिक और राजकोषीय दोनों नीतियां समन्वय के साथ लागू होनी चाहिए ताकि दोनों एक दूसरे को मजबूती दे सकें। मगर सदैव ऐसा नहीं हो सकता। मौद्रिक नीति के माध्यम से वह हासिल करने की कोशिश करना प्रतिकूल परिणाम ला सकता है जो राजकोषीय नीति के दायरे में है। केंद्रीय बैंक को न केवल हर समय अपने ‘दायित्व’ का पालन करना चाहिए, बल्कि उसे इसका पालन करते हुए भी दिखना भी चाहिए।
आरबीआई के परिचर्चा पत्र में दो प्रश्न हैं। पहला प्रश्न यह है कि क्या मुद्रास्फीति लक्ष्य 4 फीसदी में 2फीसदी की घट-बढ़ समायोजित की जानी चाहिए और दूसरा प्रश्न यह है कि क्या 4 फीसदी के बिंदु लक्ष्य को अधिक लचीली सीमा में बदलना चाहिए, इस पृष्ठभूमि में इसकी जांच की जानी चाहिए।
मौजूदा 4 फीसदी मुद्रास्फीति लक्ष्य के साथ 2 फीसदी घट-बढ़ का प्रावधान 2016 में उचित ठहराया जा सकता था क्योंकि तब देश में केंद्रीय बैंक के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण निर्धारित करने की नई प्रथा शुरू हो रही थी। वर्ष 2026 में इस ढांचे की समीक्षा करते समय घट-बढ़ का प्रावधान थोड़ा कम किया जाना चाहिए। मौजूदा दायरा दरवाजे से ज्यादा खिड़की चौड़ी रखने जैसा है। इसी तरह, एक लचीली सीमा अपनाने के बजाय 4 फीसदी लक्ष्य बरकरार रखा जाना चाहिए ताकि केंद्रीय बैंक का ध्यान मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने के अपने मुख्य दायित्व से न भटके।
वर्ष 2016 में आरबीआई अधिनियम में संशोधन के बाद पिछले नौ वर्षों के दौरान एक विवादास्पद मुद्दा यह रहा है कि केंद्रीय बैंक समग्र मुद्रास्फीति 6 फीसदी से नीचे रखने में असमर्थ रहा है। उदाहरण के लिए दिसंबर 2019 और अगस्त 2023 के बीच सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति दर 44 महीनों में से 26 में 6 फीसदी से ऊपर रही थी। कोविड के बाद काफी समय तक आरबीआई कहता रहा कि मुद्रास्फीति में वृद्धि अस्थायी है। बाद में कहा गया कि आपूर्ति से जुड़ी बाधाओं के कारण मुद्रास्फीति ऊंचे स्तरों पर पहुंच गई थी और यह तर्क भी दिया गया कि मौद्रिक नीति यह समस्या दूर करने का सही जरिया नहीं है। इस तर्क में कुछ दम हो सकता है। तब भी यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि भविष्य में ऐसी स्थितियों से निपटने का क्या तरीका है जब केवल मौद्रिक नीति में बदलाव लाने से बात नहीं बनेगी? यह कोई सैद्धांतिक प्रस्ताव नहीं है। वैश्विक अनिश्चितताएं, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आए संस्थानों में कमजोरी और बढ़ता संरक्षणवाद ऐसी बातों की आशंका और बढ़ा देते हैं।
आरबीआई अधिनियम, 1934 की धारा 45जेडएन के तहत यह प्रावधान है कि अगर आरबीआई पिछली तीन तिमाहियों में औसत मुद्रास्फीति 6 फीसदी से नीचे रखने में विफल रहता है तो उसे सरकार को इससे जुड़ी रिपोर्ट सौंपनी चाहिए। इस रिपोर्ट में मुद्रास्फीति लक्ष्य प्राप्त करने में विफल रहने के कारण बैंक द्वारा प्रस्तावित उपचारात्मक कार्रवाई और उन उपायों के समय पर क्रियान्वयन के बाद यह लक्ष्य हासिल करने में लगने वाले अनुमानित समय का जिक्र होना चाहिए। आरबीआई ने नवंबर 2022 में सरकार को ऐसी रिपोर्ट सौंपी थी। यह स्पष्ट नहीं है कि उस रिपोर्ट में क्या कहा गया है और सरकार ने क्या कार्रवाई की है? क्या ऐसी स्थितियों में लक्ष्य पूरा नहीं करने के लिए कोई रियायती प्रावधान (एस्केप क्लॉज) प्रदान करने की कोई जरूरत या इसका कोई औचित्य है? इसका सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाना चाहिए और फिर एक ठोस निर्णय लिया जाना चाहिए।
दिसंबर 2022 में ‘मुद्रास्फीति लक्ष्य के उल्लंघन’ पर लोक सभा में सवाल किया गया था कि क्या आरबीआई रिपोर्ट सार्वजनिक की जाएगी, इसके जवाब में सरकार ने कहा था कि आरबीआई अधिनियम, 1934 एवं उसमें वर्णित प्रावधान रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की अनुमति नहीं देते हैं। कानून इस बात पर मौन है कि सरकार को रिपोर्ट के साथ क्या करना चाहिए और इसी का हवाला देकर रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं करने का कारण बताया जा रहा है। यह शायद ही कोई तर्क हो सकता है। सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने से क्यों कतराना चाहिए? वास्तव में, इस रिपोर्ट की जांच वित्त मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति द्वारा की जानी चाहिए और संसद में इस पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अगर रिपोर्ट सार्वजनिक होती है तो इसमें हर्ज ही क्या है!
निष्कर्ष तो यही निकलता है कि आरबीआई को मुद्रास्फीति पर पैनी नजर रखनी चाहिए जबकि संसदीय निगरानी व्यवस्था यह मकसद पूरा करने में उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करेगी।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो और सेबी के पूर्व अध्यक्ष हैं।)