facebookmetapixel
Bihar Politics: बिहार की पुरानी व्यवस्था में चिंगारी बन सकते हैं जेनजी!IPO BOOM: अक्टूबर 2025 में कौन-सा IPO बेस्ट रहेगा?FPI ने तेल, IT और ऑटो शेयरों से 1.45 लाख करोड़ रुपये निकाले, निवेशक रुझान बदल रहेमल्टी-ऐसेट फंड ने इक्विटी योजनाओं को पीछे छोड़ा, सोना-चांदी में निवेश ने रिटर्न बढ़ायाचीन की तेजी से उभरते बाजार चमक रहे, भारत की रफ्तार कमजोर; निवेशक झुकाव बदल रहेIncome Tax: 16 सितंबर की डेडलाइन तक ITR फाइल नहीं किया तो अब कितना फाइन देना होगा?भारत और चीन के बीच पांच साल बाद अक्टूबर से फिर शुरू होंगी सीधी उड़ानें, व्यापार और पर्यटन को मिलेगा बढ़ावाAxis Bank ने UPI पर भारत का पहला गोल्ड-बैक्ड क्रेडिट किया लॉन्च: यह कैसे काम करता है?5G का भारत में क्रेज: स्मार्टफोन शिपमेंट में 87% हिस्सेदारी, दक्षिण कोरिया और जापान टॉप परआधार अपडेट कराना हुआ महंगा, चेक कर लें नई फीस

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत को चाहिए ठोस और कारगर नीति

समय हाथ से निकलता जा रहा है। भारत को अपने जलवायु लक्ष्य हासिल करने के लिए एक मजबूत योजना बनानी होगी और समय रहते सुधार के उपाय भी करने होंगे। बता रहे हैं अजय त्यागी

Last Updated- September 19, 2024 | 10:15 PM IST
India needs concrete and effective policy to deal with climate change जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत को चाहिए ठोस और कारगर नीति

जलवायु परिवर्तन ऐसी समस्या है, जो आम लोगों पर असर डालती है। हाल के वर्षों में बढ़ी प्राकृतिक आपदाएं इस बात की बार-बार याद दिलाती है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की एक बड़ी नाकामी विकसित देशों का उस वादे से मुकरना है, जिसमें उन्होंने विकासशील देशों को वित्तीय मदद और तकनीक देने की बात कही थी।

साथ ही उन्होंने अतीत के अपने भारी-भरकम कार्बन उत्सर्जन की भरपाई के लिए भी समुचित प्रयास नहीं किए हैं। विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन के असर का अधिक जोखिम है मगर उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया है। समय तेजी से बीत रहा है और इन देशों को अपनी रणनीति पुख्ता करनी होगी क्योंकि आरोप-प्रत्यारोप के लिए अब समय नहीं है।

इस स्तंभ में हम देखेंगे कि भारत को अंतरराष्ट्रीय संकल्प पूरे करने और सहजता के साथ कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था बनने के लिए ऐसी योजना बनाने की जरूरत क्यों है, जिसे मापा जा सके और जिसकी ठीक से निगरानी हो सके। इसके लिए वित्त जुटाने की योजना भी भारत को बनानी होगी। देश के अंतरराष्ट्रीय संकल्पों और वादों से शुरू करते हैं। इनमें सबसे बड़े वादे हैं 2005 के मुकाबले 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता को 45 फीसदी तक घटाना और शुद्ध ग्रीनहाउस उत्सर्जन को 2070 तक शून्य कर लेना। 2070 तो अभी कुछ दूर है परंतु 2030 के जीडीपी उत्सर्जन लक्ष्य का क्या?

कुछ लोग कह रहे हैं कि भारत समय से पहले यह लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ रहा है मगर असली सवाल यह है कि सरकार ने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों के लिए क्या योजना बनाई है? क्या कार्यक्रम मूल्यांकन और समीक्षा तकनीक का कोई चार्ट बनाया गया है, जिसमें विभिन्न लक्ष्यों पर पहुंचने के लिए समय सीमा तय की गई है?

लक्ष्य का कितना हिस्सा प्रशासनिक कदमों मसलन नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य तय करके, वन क्षेत्र बढ़ाकर और इलेक्ट्रिक वाहनों के माध्यम से हासिल किया जाना है और कितना हिस्सा कार्बन क्रेडिट के कारोबार जैसी बाजार गतिविधियों के माध्यम से? 2070 तक शुद्ध उत्सर्जन शून्य करने का लक्ष्य हासिल करने की आकांक्षा के लिए भरोसेमंद और सटीक योजना भी होनी चाहिए।

जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और उससे निपटने के लिए उचित प्रयासों पर आने वाले खर्च का क्या? और क्या हमारा देश इस बदलाव के वित्तीय बोझ को बरदाश्त करने के लिए तैयार है? इसके लिए भारत को कितने धन की जरूरत है, इसका आंकड़ा अलग-अलग अध्ययनों में अलग-अलग बताया गया है। अक्टूबर 2022 की एक रिपोर्ट में मैकिंजी ने अनुमान जताया कि उत्सर्जन में कमी की अपनी योजना पर आगे बढ़ने के लिए भारत को 2021 से 2030 तक हर साल औसतन 100 अरब डॉलर चाहिए मगर इस क्षेत्र में मौजूदा निवेश केवल 44 अरब डॉलर के आसपास है। इस बड़ी खाई को पाटना होगा।

इस निवेश का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र से हासिल करना होगा क्योंकि सरकार के हाथ बंधे हुए हैं और विकास के लिए धन देने वाली संस्थाएं तथा बहुपक्षीय विकास बैंक ऐसी गतिविधियों पर कम खर्च कर रहे हैं। एक आकलन में कहा गया है कि चीन को छोड़कर बाकी विकासशील देशों को 2023 से 2030 के बीच जलवायु लक्ष्य हासिल करने के लिए जो पूंजी चाहिए, उसका दो तिहाई हिस्सा विदेश से जुटाना होगा। भारत भी इससे अलग नहीं।

हमारा शेयर बाजार इतना विकसित और साख भरा है कि वहां विदेशी रकम आसानी से आ सकती है। सेबी ने ईएसजी नियामकीय व्यवस्था लागू की, जिसमें सूचीबद्ध कंपनियों के लिए कारोबारी जवाबदेही और पर्यावरण के हित की जानकारी देने वाले दिशानिर्देश शामिल हैं। यह सही समय पर उठाया गया कदम है और दुनिया भर में इस मामले में किए जा रहे उपायों जैसा ही है। दिक्कत ऋण बाजार के साथ है। जलवायु के लिए वित्त जुटाने के मकसद से विदेशी फंडों से रुपये में भारी कर्ज जुटाना है तो देसी बॉन्ड बाजार को विकसित करने की जरूरत है। फिलहाल इसमें समुचित गहराई और नकदी की कमी है।

पर्यावरण के अनुकूल निवेश को स्पष्ट श्रेणी में परिभाषित करना सरकार के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए। कई विकसित देशों ने अपने संस्थागत निवेशकों, बीमा कंपनियों, पेंशन फंड आदि को निवेश का एक हिस्सा पर्यावरण के अनुकूल परियोजनाओं में डालने के लिए कह दिया है।

हमें ऐसी श्रेणी तैयार करनी चाहिए, जिससे ऐसा निवेश भारत आ जाए। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अहम लगने वाली कई परियोजनाएं शायद वाणिज्यिक निवेश हासिल करने के लिहाज से दुरुस्त नहीं हों। ऐसी परियोजनाओं को सावधानी से चिह्नित करना चाहिए और उनमें निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार कर्ज जुटाने के लिए ऋण गारंटी दे सकती है तथा कर संबंधी रियायत दे सकती है।

इन रियायतों के बाद भी सरकार को इन गैर वाणिज्यिक परियोजनाओं में निवेश जारी रखना होगा। यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि अर्थव्यवस्था व्यवस्थित ढंग से पर्यावरण के अनुकूल बनती जाए ताकि वित्तीय स्थिरता की चिंता नहीं हो। कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा में बिना सोचे समझे अचानक बढ़ने से वित्तीय तंत्र अस्थिर हो सकता है।

उदाहरण के लिए कल्पना कीजिए कि अच्छी तरह से चल रहा कोई ताप बिजली घर नवीकरणीय ऊर्जा का संयंत्र बनाने के चक्कर में अचानक बंद कर दिया जाए और गैर निष्पादित परिसंपत्ति बन जाए तो उसके लिए कर्ज देने वालों और हितधारकों का क्या होगा। ऐसी कई घटनाएं हुईं तो अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ना तय है।

जलवायु संबंधी वित्तीय मुश्किलों और वित्तीय स्थिरता पर संभावित प्रभाव का व्यवस्थित आकलन करना होगा। जलवायु संबंधी जोखिमों को विनियमित वित्तीय क्षेत्र संस्थाओं और नियामक के मानक जोखिम मूल्यांकन ढांचों में शामिल किया जाना चाहिए।

जलवायु से जुड़े जोखिमों के लिए निगरानी और नियमन के तरीकों को वित्तीय जोखिम दूर करने के समग्र नियामकीय तरीकों में शामिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए बैंकों के पूंजी पर्याप्तता ढांचे में जलवायु जोखिम के लिए इंतजाम होना चाहिए। जिन परियोजनाओं पर जलवायु परिवर्तन के असर का खतरा है, उन्हें दिए जाने वाले ऋण को उच्च जोखिम वाले ऋण में शामिल किया जाना चाहिए।

भारतीय रिजर्व बैंक ने फरवरी 2024 में ‘डिस्क्लोजर फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट रिलेटेड फाइनैंशियल रिस्क्स’ पर दिशानिर्देश का मसौदा जारी किया था। यह फ्रेमवर्क कहता है कि नियमित संस्थाओं को संचालन के चार क्षेत्रों रणनीति, जोखिम प्रबंधन, मानक और लक्ष्य के बारे में जानकारी देनी चाहिए।

जलवायु जोखिम आकलन की दिशा में यह अहम कदम है। यह जलवायु जोखिम के आकलन, माप और खुलासे की जरूरतों को बैंकों तथा शीर्ष एवं ऊपरी श्रेणी की गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की मुख्यधारा वाली अनुपालन व्यवस्था में लाने की दिशा में अहम कदम है।

इन दिशानिर्देशों और विभिन्न प्रकार के अनुपालन के लिए समयसीमा को जल्द ही अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। ऐसे ही दिशानिर्देश सेबी और आईआरडीएआई को भी जारी करने चाहिए।

कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन एक बड़ा जोखिम सामने ला रहा है जिससे निपटने के लिए मध्यम और लंबी अवधि में व्यापक तथा परिमाण केंद्रित नीति की जरूरत है। साथ ही समय पर उपयुक्त कदम उठाने के लिए सख्त निगरानी की भी जरूरत है। केवल चाह लेने से काम नहीं बनेगा।

(लेखक ओआरएफ के वि​शिष्ट फेलो हैं तथा सेबी के चेयरमैन रह चुके हैं)

First Published - September 19, 2024 | 10:15 PM IST

संबंधित पोस्ट