इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
भारत एक ऐसा देश है जो जल्दी ही जापान को पछाड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है और शायद इस दशक के अंत तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था। परंतु कूटनीति के मामले में हम अपनी क्षमता से कमतर प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी को जहां दुनिया के उभरते नेता के रूप में देखा जा रहा है वहीं उन्हें सक्रिय कूटनीति के माध्यम से कुछ और हासिल करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।
वैश्विक नेताओं के साथ नजर आने वाले व्यक्तिगत रिश्ते देश को स्पष्ट लाभ दिलाने वाली कड़ी कूटनीति को अपनाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं मुहैया कराते हैं। हमने यह हाल ही में देखा जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से करीबी रिश्तों के बावजूद उन्होंने भारत को शर्मिंदा कर दिया। उनका दावा है कि उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम करवाया। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात पर 25 फीसदी शुल्क लगाने की घोषणा की और चेतावनी दी कि रूस के साथ हमारे रिश्तों के चलते वह हम पर जुर्माना भी लगा सकते हैं।
इससे पहले मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग का गुजरात और तमिलनाडु में व्यक्तिगत रूप से स्वागत किया था लेकिन इसके बाद हमें गलवान में झड़प और भारत-चीन सीमा पर सैनिकों के जमावड़े जैसे हालात का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने भारतीय हवाई तथा अन्य परिसंपत्तियों पर निशाना साधने में पाकिस्तान की पूरी मदद की। उसने पाकिस्तान को हथियारों के साथ खुफिया सहायता भी मुहैया कराई। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या आज की दुनिया के दो बड़े नेताओं को खिलाने-पिलाने की मोदी की कोशिशों को दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बजाय कमजोरी की निशानी समझा गया। उनका गले लगने का खास अंदाज भारत के लोगों को भले ही पसंद आया हो लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि दुनिया के नेताओं ने इसे किस तरह लिया?
हमें दिखावे से आगे बढ़कर कुछ ठोस करना होगा। ऐसा कूटनीति और सक्रिय कदम दोनों के रूप में करना होगा। स्वदेशी आपूर्ति श्रृंखला मजबूत करके विदेशी सैन्य आपूर्ति पर निर्भरता कम करना सबसे प्रमुख बात है। हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि क्या अब तक हमारी कूटनीति सक्रियता के बजाय प्रतिक्रिया देने की रही है। हम जंगों और अपने आसपास के हालात पर केवल बयानबाजी नहीं कर सकते। हमें कुछ करना होगा और खतरों को कम करना होगा। न केवल अपने लिए बल्कि दुनिया के लिए भी। हमारी कूटनीति को सक्रिय होना होगा भले ही परदे के पीछे से ऐसा हो।
हमारे ऊपर यह दबाव बन रहा है कि हम रूस के साथ सैन्य और आर्थिक संबंध कम करें। पश्चिम एशिया की बात करें तो गाजा में अपने कदमों की बदौलत पश्चिमी जनमत इजरायल के विरुद्ध होता जा रहा है। फ्रांस और यूरोपीय संघ के कुछ देशों ने फिलीस्तीन को मान्यता दे दी है और ब्रिटेन भी ऐसा कर सकता है। भारत पर भी दबाव होगा कि वह फिलीस्तीन को लेकर कुछ करे। इजरायल के साथ करीबी रिश्ते बनाए रखना मुश्किल होगा। खासतौर पर अगर घरेलू मुस्लिम समुदाय विपक्षी दलों के जरिये दबाव बनाते हैं तब।
अमेरिका शायद इजरायल के साथ खड़ा रहेगा लेकिन यूरोप और अमेरिका में घरेलू जनमत (खासकर वाम रुझान वालों का) तेजी से इजरायल के विरुद्ध हो रहा है। यूरोप और अमेरिका का अधिकांश हिस्सा प्रमुख शक्ति के रूप में रूस के पराभव से संतुष्ट ही होगा। अपने पड़ोस की बात करें तो हम पहले ही पाकिस्तान और चीन के बीच फंसे हुए हैं। जल्दी ही बांग्लादेश भी संभावित शत्रु ताकतों में शामिल हो जाएगा। यह तथ्य है कि भारत बांग्लादेश के हिंदुओं को बचाने में कामयाब नहीं रहा है। न ही हम घुसपैठियों को रोक सके हैं।
मोदी का एक बयान समय के साथ-साथ पुराना पड़ता गया है। यूक्रेन-युद्ध संघर्ष के दौर में उन्होंने कहा था कि यह युद्ध का समय नहीं है। परंतु इसके तुरंत बाद पश्चिम एशिया में एक जंग छिड़ गई जो आज भी जारी है। हमें पाकिस्तान के साथ हाल ही में एक छोटी सी जंग लड़नी पड़ी। दक्षिण पूर्व एशिया में भी हाल ही में दो आसियान देश कंबोडिया और थाईलैंड एक सीमा संघर्ष से दो-चार हुए। युद्ध कोई नहीं चाहता है लेकिन यह शांति का समय भी नहीं है। इसलिए क्योंकि हर देश अपनी रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने में लगा हुआ है। हमारे अपने रक्षा निर्यात में उछाल आई है जो दिखाता है कि युद्ध की आहट हर जगह महसूस की जा रही है।
भारत को जंग खत्म करने के लिए अभी काफी कुछ करना होगा। साथ ही उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारे सामरिक हितों का भी बचाव हो। रूस का पराभव हमारे हित में नहीं है। वैसा होने पर वह चीन के पाले में जाएगा और हमारे रणनीतिक हित प्रभावित होंगे। हमें यूक्रेन युद्ध को खत्म करने में सक्रिय हिस्सेदारी करनी होगी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल (कुछ अन्य जो गुमनाम रह सकते हैं) को युद्ध समाप्त करने के तरीकों पर चर्चा करनी चाहिए। यह तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि यूरोपीय संघ और रूस इस बात पर सहमत नहीं होते कि भविष्य में यूक्रेन किस तरह बंटेगा या उसका शासन किस तरह होगा?
रूस एक यूरोपीय शक्ति है, और यूरोप को इसे हमेशा के लिए दुश्मन मानने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। खासकर तब जब रूस दुनिया में ऊर्जा और महत्त्वपूर्ण खनिजों का एक बड़ा स्रोत है। हमें यह सवाल उठाना चाहिए कि क्या यूक्रेन को एक तटस्थ, गैर-ईयू/गैर-नाटो राज्य बना दिया जाना चाहिए जैसे फिनलैंड शीत युद्ध के दौरान था। क्या कूटनीतिक समाधान के रूप में रूस को डोनबास क्षेत्र में, जिसे उसने पहले ही अधिग्रहीत कर लिया है, अपने सैनिक रखने की अनुमति दी जा सकती है?
भारत को केवल रक्षा क्षमताओं के परे देखने की जरूरत है। उसे नए कूटनीतिक रिश्ते कायम करने चाहिए। भारत, रूस और जर्मनी (अप्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय संघ) के बीच तनाव कम करने में भूमिका निभा सकता है। इससे रूस को चीन पर अपनी निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। अगर 1970 के दशक में पाकिस्तान, अमेरिका और चीन के बीच मेलमिलाप की वजह बन सकता था तो भारत यूरोप और रूस के बीच यह भूमिका क्यों नहीं निभा सकता?
आज जर्मनी और जापान का नेतृत्व हिटलर या हिदेकी तोजो जैसे नेताओं के हाथ में नहीं है। अगर देखा जाए तो आज बुराई की संभावित धुरी का नेतृत्व चीन के शी चिनफिंग, ईरान के आयतुल्लाह, पाकिस्तान के सैन्य जनरल और तुर्की के रेचेप तैयप एर्दोआन कर रहे हैं, जो अगली इस्लामी खिलाफत का नेतृत्व करने का सपना देख रहे हैं। विश्व शांति के लिए खतरे आमतौर पर उन शक्तियों से आते हैं जो वर्तमान व्यवस्था में बड़े बदलाव चाहती हैं, और इसमें भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील या दक्षिण अफ्रीका जैसे उभरते राष्ट्र शामिल नहीं हैं। इन देशों की कोई अत्यधिक क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा नहीं है, न ही हथियाने वाली मानसिकता है। भारत को अपनी कूटनीतिक रणनीति को निष्क्रिय से सक्रिय बनाना होगा ताकि वह एक नया शक्ति संतुलन स्थापित कर सके और अपने रणनीतिक हितों की रक्षा कर सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)