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मुश्किल वैश्विक हालात में कंपनियों की बढ़ती चुनौतियां

कंपनियों के लिए रणनीति तैयार करते समय चार चुनौतियों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए और इस माहौल में फिट बैठने के लिए कंपनियों के ढांचे में सुधार की जरूरत है।

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अजय शाह   
Last Updated- April 03, 2024 | 9:06 PM IST

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देशों के बीच वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी, श्रम और विचारों के आदान-प्रदान पर पाबंदी में ढील उच्च आर्थिक वृद्धि का प्रमुख स्रोत थी। परंतु, इस समय चार ऐसी बातें या चुनौतियां हैं जो इस वैश्विक अर्थव्यवस्था को हानि पहुंचा रही हैं। दुनिया के देशों के बीच जुड़ाव एवं संपर्क बढ़ने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि होती है वहीं, अलगाव से जीडीपी कमजोर पड़ता है।

चीन का प्रभाव कम करने के लिए संरक्षणवाद के खिलाफ आवाज उठाना नीति-निर्धारकों के हित में है। दुनिया में बदलती परिस्थितियों के बीच वित्तीय एवं गैर-वित्तीय कंपनियों के लिए अपने संगठनात्मक ढांचे की समीक्षा कर उनमें सुधार करना आवश्यक है। वे जब तक इस मोर्चे पर कदम आगे नहीं बढ़ाएंगे, तब तक वर्तमान परिस्थितियों में बेहतर कारोबार नहीं कर पाएंगे।

आइए, अब हम उन चार चुनौतियों पर विचार करते हैं। वर्ष 2018 से हम ‘तीसरे वैश्वीकरण’ के दौर में आ गए हैं। इस ‘तीसरे वैश्वीकरण’ में विकसित देशों के साथ उन देशों का आर्थिक जुड़ाव अधिक कठिन हो गया है जो विदेश नीति एवं सैन्य मामलों में उपयुक्त एवं संतोषजनक स्थिति में नहीं दिख रहे हैं।

दूसरे वैश्वीकरण के दौरान यह तर्क दिया गया था कि रूस और चीन जैसे देशों को वैश्वीकरण के ताने-बाने में शामिल किए जाने के लाभ बाद में नजर आएंगे क्योंकि ये देश स्वतंत्रता की तरफ सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं, लेकिन यह गलत साबित हुआ। प्रत्येक अल्प विकसित देश को संपन्नता एवं स्वतंत्रता की तरफ बढ़ने में कई पीढ़ियों तक संघर्ष करना पड़ा है। लेकिन तृतीय वैश्वीकरण के पक्ष में दिए जा रहे तर्क में वजन दिख रहा है।

दूसरा अहम बिंदु है कार्बन सीमा शुल्क (कार्बन बॉर्डर टैक्स)। कई लोग कार्बन सीमा शुल्क को संरक्षणवाद से जोड़कर देख रहे हैं जिसे उचित नहीं माना जा सकता। यूरोपीय उपभोक्ताओं ने ज्यादा कार्बन के इस्तेमाल से तैयार उत्पादों के लिए अधिक भुगतान करने का समझौता किया है। यूरोपीय कार्बन सीमा समायोजन ढांचा (यूरोपीय कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म) से आशय संरक्षणवाद से नहीं है बल्कि इसका संबंध यूरोप में उत्पादन या इसकी सीमा से बाहर होने वाले उत्पादन के बीच समान अवसर बहाल करना है।

सैद्धांतिक स्तर पर देखें तो यह आयात पर मूल्यवर्धित कर (वैट) की तरह है, जो व्यापार में बाधा पहुंचाए बिना घरेलू नीति (वैट दर तैयार करने की नीति) तैयार करने की गुंजाइश प्रदान करता है। कार्बन उत्सर्जन कम करने के मामले में चीन भारत से आगे है। चीन में कुल ऊर्जा उपभोग में अक्षय ऊर्जा का हिस्सा 33 फीसदी तक हो गया है और यह तेजी से विकास कर रहा है। भारत की कमजोर ऊर्जा नीति भारतीय वस्तुओं के निर्यात को कमजोर कर देगी।

तीसरा पहलू चीन से जुड़ा है। चीन की अर्थव्यवस्था गहरे दबाव में रही है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने 2013 से सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है (चीन को आधुनिक बनाने के तंग श्याओ फिंग के प्रयासों को उन्होंने पलट दिया है)। नीतिगत स्तर पर अंध राष्ट्रवाद, बाहर के लोगों के प्रति शत्रुता और निजी क्षेत्र के लोगों के खिलाफ सरकार की दमनकारी नीतियां पांव पसार रही हैं। ऐसे और कुछ अन्य कारणों से चीन की आर्थिक वृद्धि उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई है। पूर्व में चीन के नीति निर्धारकों ने ऋण मुहैया कर, आधारभूत ढांचे पर व्यय बढ़ाकर और निर्माण क्षेत्र पर ध्यान देकर अपनी अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने का प्रयास किया है। परंतु, वर्तमान समय में इन उपायों का इस्तेमाल करना कठिन हो गया है।

ऐसा लग रहा है कि अब निर्यातकों को व्यवस्था के स्तर पर सब्सिडी देने का प्रयास किया जा रहा है (यह जिस रूप में किया जा रहा है वैश्विक व्यापार उसकी अनुमति नहीं देता है)। वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन का विशेष योगदान है इसलिए उसका व्यवहार दूसरे देशों पर बड़ा असर डाल सकता है। वर्तमान समय में निर्यात पर सब्सिडी देने से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कई छोटे प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में एक विदेश नीति तैयार करना आवश्यक है जिसके माध्यम से विकसित अर्थव्यवस्थाएं चीन के साथ संवाद कर सकें।

इन तीनों व्यवस्थागत समस्याओं के बाद एक चौथी समस्या भी है। विभिन्न देश व्यापार नीति पर मनमाने ढंग से कदम उठा रहे हैं। ये कदम अक्सर गलत दिशा में जाते हैं। द जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स ऐंड ट्रेड/ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) प्रक्रिया काफी पहले खत्म हो गई है। लगभग रोज ही उदार नीतियों एवं विचारों के लिए नए खतरे पैदा हो रहे हैं।

डिजिटल सेवाओं पर वैश्विक सहमति बनाने की दिशा में व्यवधान पैदा करना ऐसा ही एक उदाहरण है। इस बात की संभावनाएं (40 फीसदी) बढ़ने लगी है कि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका में इस साल नवंबर में होने वाले चुनाव में जीत सकते हैं। अगर ट्रंप अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो दुनिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देश में नीति निर्धारण की गुणवत्ता में कमी आएगी।

यह एक कठिन संदर्भ है जिसमें हमें दुनिया में भारत की भागीदारी से जुड़ी चुनौतियों को देखना चाहिए। पिछले दशक में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश (एफडीआई) और वास्तविक डॉलर में निर्यात कमजोर रहा था। वर्ष 2011-12 से वास्तविक डॉलर में कुल निर्यात लगभग 3 फीसदी बढ़ा था। हालांकि, इस दौरान सेवाओं का निर्यात बढ़ा है। नीति निर्धारकों ने फोन के पुर्जों या इलेक्ट्रिक वाहनों पर आयात शुल्क घटाकर कुछ अच्छे कदम उठाए हैं मगर कोई रणनीति नहीं अपनाने की रणनीति के साथ कुछ समस्याएं हैं।

कंपनियों की रणनीतिक सोच प्रमुख बातों में एक है। दूसरे वैश्वीकरण में कंपनियां सुस्त थीं और उन्होंने आर्थिक नीतियों एवं राजनीतिक माहौल के बारे में अधिक नहीं सोचा। जो कंपनियां वैश्वीकरण की तरफ अधिक आगे निकलीं उनका प्रदर्शन अच्छा रहा। अच्छी कंपनियां निर्यात करती हैं और श्रेष्ठ कंपनियां बाहर एफडीआई भेजती हैं और दुनिया को इसका बड़ा फायदा मिलता है। हजारों महत्त्वपूर्ण भारतीय कंपनियां निर्यात और एफडीआई के माध्यम से अब वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ चुकी हैं।

दुनिया की सैकड़ों कंपनियों के लिए भारत भी अब महत्त्वपूर्ण बाजार हो गया है। ये घटनाक्रम भारतीय प्रगति के केंद्रीय भूमिका में रहे हैं। कोई कंपनी विभिन्न घटकों जैसे पूंजी पर नियंत्रण रखने वाले लोगों, ठेकेदारों (कॉन्ट्रैक्टर), भौतिक परिसंपत्तियों, कामगारों से मिलकर बनी होती है और विभिन्न देशों और कर बचत के लिहाज से माकूल जगहों में इसका विधि तंत्र भी होता है।

कंपनियों के लिए रणनीति तैयार करते समय इन चार चुनौतियों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। ये चुनौतियां क्रमशः तीसरा वैश्वीकरण, कार्बन सीमा शुल्क, चीन की सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी और व्यापार नीति पर विभिन्न सरकारों द्वारा उठाए गए कदम (ये अक्सर गलत दिशा में होते हैं) हैं। इस माहौल में फिट बैठने के लिए कंपनियों के ढांचे में सुधार की जरूरत है।

नीतियों एवं संगठनात्मक ढांचे में विविधता लाने से इस संकट से निपटने में मदद मिल सकती है। कुछ मामलों में प्रतिकूल परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाकर उपयुक्त कदम उठाने और वित्तीय जोखिम प्रबंधन स्थापित करने से भी मदद मिल सकती है।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं )

First Published : April 3, 2024 | 9:06 PM IST