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राज्यपालों की बढ़ती मुखरता बनी सरकार के लिए मुसीबत

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 11:53 PM IST

ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्यपालों के मामले में थोड़ी बदकिस्मत है। इस संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति जिन्हें केवल नजर आना चाहिए, बोलते हुए नहीं दिखना चाहिए वे हाल में काफी अधिक मुखर रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह सिलसिला हाल में शुरू हुआ हो। सन 2014 में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार सत्ता में आई थी तब सहकारी संघवाद शब्द चर्चा में था। परंतु राज्यपाल की भूमिका की कभी समीक्षा नहीं हुई।
दिक्कतों की शुरुआत एक विदाई के प्रकरण से हुई। असम के आईएएस अधिकारी रहे ज्योति प्रसाद राजखोवा को अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था। सन 2016 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उनसे पद छोडऩे को कहा जिस पर उन्होंने इनकार कर दिया। इसके बाद राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा उन्हें पद से हटा दिया गया। यह तब हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा अरुणाचल प्रदेश विधानसभा सत्र बुलाने की तारीख 14 जनवरी, 2016 के बजाय 16 दिसंबर, 2015 कर दी थी। ऐसा तत्कालीन नबाम तुकी सरकार के विश्वास मत हासिल करने के लिए किया गया था जिन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया। इसके बाद भाजपा के समर्थन से कालिखो पुल के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस ने अदालत का रुख किया। जुलाई 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने 15 दिसंबर, 2015 की यथास्थिति बरकरार करने का निर्णय सुनाया और अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार की वापसी हुई। अदालत ने कहा कि राज्यपाल ‘विधानसभा की गतिविधियों से छेड़छाड़ नहीं कर सकते।’ उसने राज्य में लगा राष्ट्रपति शासन भी समाप्त कर दिया और राजखोवा के लिए गए सभी निर्णय समाप्त कर दिए। इन परिस्थितियों में कांग्रेस के अलग हुए धड़े की नई सरकार बनी। कालिखो पुल ने आत्महत्या कर ली और आत्महत्या के पहले लिखे पत्र (जिसे मृत्यु पूर्व घोषणापत्र होने के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया) में उन्होंने कई बड़े लोगों के नामों का उल्लेख किया जिन्होंने उनसे संपर्क करके कहा था कि वे उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर बहाल कराने में ‘मदद’ कर सकते हैं। भाजपा ने दावा किया कि राजखोवा के कदमों से उनका कोई लेनादेना नहीं।
यह सिलसिला यहीं समाप्त नहीं हुआ। पुदुच्चेरी की उप राज्यपाल (एलजी) किरण बेदी को उस समय बदल दिया गया जब राज्य में कांग्रेस की सरकार और एलजी दोनों में बार-बार टकराव हो रहा था। बेदी ने अधिकारियों की तत्परता की निगरानी के लिए एक व्हाट्सऐप समूह बनाया। मुख्यमंत्री वी नारायणस्वामी ने कहा कि सरकारी अधिकारी सोशल मीडिया समूह में शामिल नहीं हो सकते। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि वे बिना पहले उन्हें सूचित किए एलजी से आदेश न लें। उन्होंने अधिकारियों से यह भी कहा कि वे बिना कैबिनेट की अनुमति के एलजी से न मिलें। बेदी ने इन बातों की अनदेखी की और भाजपा के तीन नामित विधायकों को शपथ दिला दी जबकि यह काम विधानसभा अध्यक्ष का था। आखिरकार विधानसभा चुनाव के पहले उन्हें बदल दिया गया।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और 2019 में जयदीप धनखड़ के राज्यपाल बनने के बाद से ही दोनों के बीच तनाव रहा है। शुरुआत में धनखड़ तृणमूल कांग्रेस सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। और साफ कहा जाए तो तृणमूल कांग्रेस भी राज्यपाल को खिझाने का कोई मौका नहीं गंवाती थी। उदाहरण के लिए भला कौन सा राजनीतिक दल होगा जो राजभवन पर भेड़-बकरियों के साथ प्रदर्शन करे? लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद जब तृणमूल कांग्रेस सत्ता में वापस आई तो धनखड़ ने साहस दिखाने के बजाय विवेक का इस्तेमाल किया और भवानीपुर में ममता बनर्जी की जीत के बाद उन्हें शपथ दिलाने का काम विधानसभा अध्यक्ष पर छोडऩे के बजाय उन्होंने खुद उनको शपथ दिलाने का निर्णय लिया। इसके बाद वह आधे घंटे तक उनसे चर्चा करते रहे। कहने का तात्पर्य यह कि शुरुआती उतार-चढ़ाव के बाद ऐसा लगता है कि धनखड़ ने सरकार के साथ रिश्तों में शांति स्थापित कर ली है।
परंतु सत्यपाल मलिक के साथ मामला ऐसा नहीं रहा। कश्मीर में उनका कार्यकाल विवादों में रहा। सन 2019 में वहां का राज्यपाल बनने के तुरंत बाद उन्होंने करगिल में लोगों के बीच कहा, ‘कश्मीर में सबसे बड़ी बीमारी भ्रष्टाचार है…हाथों में बंदूक लिए ये युवा बिना किसी कारण के पुलिस अधिकारियों को मार रहे हैं। आप उन्हें क्यों मार रहे हैं? उन्हें मारिये जिन्होंने आपके देश को लूटा और कश्मीर की पूरी संपत्ति लूटी। क्या आपने उनमें से किसी को मारा? यह सब करके कुछ हासिल नहीं होगा।’ ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। आखिरकार उन्हें गोवा भेज दिया गया जहां भाजपा की सरकार थी। उन्होंने एक टेलीविजन चैनल से कहा, ‘गोवा सरकार के हर काम में भ्रष्टाचार था इसलिए मुझे वहां से हटा दिया गया।’ गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने केंद्र से गुजारिश की कि उन्हें वहां से हटा दिया जाए तो उन्हें मेघालय भेज दिया गया। मेघालय से वह किसानों के आंदोलन स्थल पहुंच गए। राज्यपाल पद पर रहते हुए उन्होंने किसानों से कहा कि कैसे कुछ भाजपा नेताओं ने कश्मीर में पैसे कमाए। भाजपा के पूर्व महासचिव राम माधव जो उस समय जम्मू कश्मीर के प्रभारी थे, ने राज्य में राज्यपाल के आचरण को लेकर जांच की मांग की है।
भाजपा पर पहले ही आरोप हैं कि वह संवैधानिक संस्थाओं को क्षति पहुंचा रही है। यही वजह है कि पार्टी कोई कदम उठाने से बच रही है। परंतु हमारे देश को कुछ राज्यपालों और उनके पूर्ववर्तियों (नारायणदत्त तिवारी को याद कीजिए) द्वारा उत्पन्न शर्मिंदगी से बचाने की आवश्यकता है। कांग्रेस ने राजभवनों का इस्तेमाल निर्वाचित सरकारों को गिराने के लिए किया। भाजपा राज्यपालों को अनुचित व्यवहार करने दे रही है। इन सब में द्रौपदी के चीरहरण की तरह क्षति संविधान की हो रही है।

First Published : October 29, 2021 | 11:07 PM IST