बजट में किसानों के लिए कर्जमाफी का ऐलान एक ऐसे चौराहे की तरह है
अगर कर्जमाफी योजना को ठीक तरीके से अमल में लाया जाता है, तो यह भारतीय कृषि में सुधार के लिए रास्ता साफ करेगा। लेकिन इसके ठीक उलट यहां से किसानों की बदतर हालत और खाद्य संकट के रूप में दूसरा रास्ता भी मौजूद है। इसके अलावा कर्जमाफी के मद्देनजर दो और रास्ते खुलते हैं। इसके तहत पहला भारतीय बैंकिंग के इतिहास में एक अच्छी शुरुआत की ओर जाता है और दूसरा इसके ठीक उलट बैंकों की तबाही की ओर।
पहले हम सकारात्मक रास्ते का रुख करते हैं। कर्जमाफी आम चुनाव की संभावनाओं को ध्यान में रखकर उठाया गया राजनीतिक कदम है। यह फैसला संदेश देता है कि कृषि क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा है। साथ ही इसके जरिये किसानों और पूरे देश को यह संदेश भी जाता है कि सत्ता पर काबिज लोग भी इस समस्या को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं। साथ ही महानगरीय केंद्र भी इससे अनजान नहीं हैं और यह समस्या संपूर्ण विकास की प्रक्रिया में बहुत बड़ी बाधा है। इस फैसले से एक और संदेश पहुंच रहा है वह यह कि महानगरों द्वारा विकास का भरपूर फायदा उठाए जाने के बाद ऐसी ही संपन्नता अब वैसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है
, जो इस विकास की प्रक्रिया में छूट गए हैं।इस मामले का खतरनाक पहलू यह है कि इस गंभीर समस्या के हल की दिशा में उठाए गए पहले कदम के बाद कुछ और नहीं किया जाएगा। अगर ऐसा होता है तो न सिर्फ कृषि संकट बरकरार रहेगा
, बल्कि यह एक और बड़ा संकट (बैंकों के लिए मुसीबत का सबब) पैदा करेगा। इस खतरे के बारे में बैंकों के प्रधान कार्यालयों में चर्चाओं का दौर शुरू हो चुका है। ऐसी खबरें मिल रही हैं कि जिन किसानों ने पहले ही अपना कर्ज चुकता कर दिया है, वे अब संबंधित बैंकों की शाखाओं में जाकर कर्ज वसूली के लिए कड़े कदम उठाए जाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को कोस कर रहे हैं। इन किसानों को इस बात का बेहद अफसोस है कि उन्होंने सही वक्त पर अपना कर्ज चुकता कर दिया है। उन्हें लग रहा है कि काश! उन्होंने अब तक कर्ज नहीं चुकाया होता, तो उनके पैसे बच जाते।कृषि क्षेत्र की सफलता और बैकिंग सेक्टर का भविष्य एक
–दूसरे से काफी हद तक जुड़े हुए हैं। कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए कई कदम उठाए जाने की जरूरत है। जहां तक बैंकों का सवाल है, व्यावसायिक, ग्रामीण और सहकारी बैंकों को हर किसानों (उनकी माली हालत और मुश्किलों के आधार पर) के मामले को अलग करके देखना पड़ेगा। मिसाल के तौर पर हो सकता है कि मौसम या गड़बड़ बीज के कारण किसी किसान की फसल चौपट हो गई हो, जबकि किसी अन्य किसान की फसल काफी अच्छी रही हो और उसने अपनी पूंजी बीमारी के इलाज या बेटी की शादी में खर्च कर डाली हो। एक अन्य सूरत यह भी हो सकती है कि फसल काफी अच्छी रही हो, लेकिन उसकी कीमतों में काफी गिरावट आ गई हो।इस पूरे मामले में हर किसान की व्यक्तिगत हालत के बारे में पता किए बगैर एकमुश्त कर्जमाफी से वित्तपोषण का विकल्प व्यावहारिक रूप से मुमकिन नहीं हो पाएगा। साथ ही किसान वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर भी नहीं बन पाएंगे। इसके अलावा कर्जों की गैरवसूली सालाना फीचर बन जाएगी। अगर ऐसा होता है तो फिर कर्ज देने के मामले में बैंक आनाकानी करने लगेंगे और कृषि क्षेत्र की बदहाली दूर नहीं होगी।
कृषि क्षेत्र का बेहतर भविष्य टेक्नॉलोजी और खेती के लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराए जाने पर निर्भर करता है। अगर वित्तीय पैकेज का इस्तेमाल उचित तरीके से नहीं किया जाता है, तो यह कृषि क्षेत्र और बैंक दोनों के लिए काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है।कर्जमाफी का यह तोहफा कर्ज भुगतान की संस्कृति को चौपट कर देगा और इसका हश्र भी वैसा ही होगा
, जैसा कि इस तरह के पिछले मामलों का हुआ है। किसानों के लिए कर्जमाफी और वित्तपोषण सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए बैंकों को मुख्य एजेंट बनाने का यह काफी मुफीद मौका है। कौशिक बसु (ईपीडब्ल्यू, 2 फरवरी 2008) के मुताबिक, बैंकों के राष्ट्रीयकरण (1969) और यूटीआई की शुरुआत (1964) ने स्वतंत्र भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।राष्ट्रीयकरण की वजह से बैंक अपना विस्तार करने को मजबूर हुए और बैंकों के बचत खाते में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई। गौरतलब है कि
80 के दशक में लातिनी अमेरिकी देशों में विकास सुस्त पड़ने की प्रमुख वजह वहां के बैंकों का कर्ज देने में अक्षम होना था। हालात यहां तक पहुंच गए थे कि छोटे और लघु उद्योगों को कार्यशील पूंजी मुहैया कराने के लिए भी बैंकों के पास फंड नहीं बचे थे। कहने का मतलब यह है कि संपूर्ण विकास का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है, जब क्रेडिट डिलिवरी का काम एक निश्चित वित्तीय नेटवर्क के जरिये किया जाए।खेती की मुश्किलों को दूर करने के लिए क्या करने की जरूरत है
, इस बात को आलू की फसल की वर्तमान हालत से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। देश के ज्यादातर इलाकों में आलू की फसल काफी अच्छी है और कीमतें काफी कम हैं। पश्चिम बंगाल, जहां आलू प्रमुख नकदी फसल है, किसान इस फसल को कोल्ड स्टोरेज में रख रहे हैं।इसके मद्देनजर कोल्ड स्टोरेज की रसीद को बैंक गारंटी का दर्जा दिया जाना चाहिए, ताकि किसान इस रसीद के आधार पर बैंक से पैसा लेकर इसके लिए अन्य साधनों से लिए कर्ज का भुगतान कर सकें। बैंकों के लिए अब गांवों में जाकर कृषि अर्थव्यवस्था के लिए मौद्रिक समर्थन मुहैया कराना भले ही बहुत लाभदायक नहीं है, लेकिन ऐसा करने के लिए उन पर दबाव डाला जा सकता है, जैसा कि 70 के दशक में किया गया था। अगर कृषि क्षेत्र को बैंकों के जरिए वित्तीय सहारा मिल जाता है, तो खेती की रौनक फिर से लौट सकेगी।