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वर्ष 2025 में कैसे हो खपत पर बातचीत?

वस्तु एवं सेवा कर (GST) संग्रह बढ़ा मगर शेयर बाजार में सूचीबद्ध एफएमसीजी (रोजमर्रा की खपत का सामान बनाने वाली) कंपनियों के राजस्व में बढ़ोतरी का आंकड़ा निराश करने वाला है

Last Updated- January 07, 2025 | 9:47 PM IST
Future Consumer defaulted on payments of Rs 369.59 crore in September quarter

वर्ष 2024 में देश के भीतर घरेलू उपभोग की स्थिति पर गरमागरम और गहन चर्चा देखने को मिलीं। अर्थशास्त्री, शेयर बाजार विश्लेषक, मीडिया और बाजार के जानकार अपने-अपने नजरिये से इस बारे में बात करते रहे। पहले से ही मौजूद भ्रम को आंकड़ों ने और बढ़ा दिया, जब उन्होंने विरोधाभासी संकेत देने शुरू किए। मसलन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह बढ़ा मगर शेयर बाजार में सूचीबद्ध एफएमसीजी (रोजमर्रा की खपत का सामान बनाने वाली) कंपनियों के राजस्व में बढ़ोतरी का आंकड़ा निराश करने वाला रहा। स्वास्थ्य एवं दूरसंचार का प्रदर्शन ठीकठाक रहा, दोपहिया उद्योग के पास भी शिकायत के लिए बहुत कुछ नहीं था, कुछ श्रेणियों में नए उत्पाद के बजाय इस्तेमालशुदा (सेकंड हैंड) उत्पाद की बिक्री ज्यादा देखी गई और एक ही क्षेत्र की कंपनियों के प्रदर्शन में इतना अंतर रहा कि उद्योग की औसत वृद्धि के आंकड़े बेमानी हो गए।

भारत के बारे में ज्यादातर सवालों के जवाब छिटपुट ब्योरे को एक साथ रखने पर मिल जाते हैं मगर खपत की चर्चा में इस मामले में कम धीरज दिखा। न ही असल समस्या को ईमानदारी से जांचने की कोशिश की गई जैसे निजी निवेश में सुस्ती की असली वजह मांग में कमी ही है या नहीं। चूंकि लगता है कि 2025 में भी खपत में कमी की वजहों पर चर्चा जारी रहेगी, इसलिए नए वर्ष के संकल्पों की तरह इसे और भी सार्थक बनाने के लिए सुझावों की एक सूची दे रही हूं।

1. खपत के नतीजों के बजाय खपत को बढ़ाने वाले पहलू यानी घरेलू आय और उसे बढ़ाने वाले कारकों यानी आर्थिक गतिविधियों की जीवंतता और निवेश पर चर्चा होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि यह पसंदीदा सवाल न पूछा जाए कि आर्थिक गतिविधि धीमी हो रही है, क्या खपत संकटमोचक साबित होगी? और अगर पूछना जरूरी है तथा उसका जवाब ‘हां’ है तो वहीं नहीं रुक जाना चाहिए। आगे पूछिए, ‘खपत में वृद्धि की रफ्तार आखिर किस वजह से आय में वृद्धि की रफ्तार से ज्यादा है?’ इसके बाद फैसला करें कि यह अच्छा है या बुरा। हमारे पास घरेलू आय के व्यापक और लगातार आने वाले आंकड़े नहीं हैं मगर यह समझने के लिए पर्याप्त आंकड़े हैं कि आखिर हो क्या रहा है। ये आंकड़े उन पेशों और क्षेत्रों के हैं, जिन पर परिवार निर्भर हैं, उन क्षेत्रों की हालिया आर्थिक गतिविधियों की गहनता के हैं या रोजगार के हैं।

2. घरेलू खपत को समझने के लिए हमें कंपनियों के बिक्री के आंकड़े इस्तेमाल करने ही पड़ें तो हमें वह पुराना विचार त्यागना होगा कि कुछ बड़ी कंपनियों के नतीजे ही काफी हैं। यह तो हम जीएसटी के आंकड़े इस्तेमाल करें या ज्यादा समग्र खपत स्वास्थ्य सूचकांक तैयार करें, जिसमें सीधे उपभोक्ताओं के संपर्क में आने वाले क्षेत्र अधिक हों और शेयर बाजार से बाहर की कंपनियां एवं दूसरे कारोबारी शामिल हों। औद्योगिक संगठन अक्सर इन्हीं आंकड़ों को देखते हैं।

3. हमें स्वीकार करना होगा कि छोटी कंपनियों के उत्पाद भी बहुत अच्छे हो गए हैं और खपत में उनकी हिस्सेदारी बढ़ रही है। पहले खपत पर चर्चा करते समय तथाकथित असंगठित क्षेत्र की बिक्री को बेमानी कहकर खारिज कर दिया जाता था। वे कंपनियां कर से बचती रहीं, बेहद कम खर्च की क्षमता वाले निम्न आय उपभोक्ताओं को कम कीमत पर घटिया गुणवत्ता वाले बुनियादी उत्पाद बेचती थीं। आज उनमें से कई जीएसटी चुकाने वाली बेहतरीन कंपनियां बन गई हैं, जो बड़ी कंपनियों की राह पर चल रही हैं। अब वे बाजार में सफलता हासिल करने के ऐसे कई नुस्खे आजमाती हैं, जो पहले उनकी पहुंच से बाहर थे।

कई श्रेणियों में उनकी कुल हिस्सेदारी छोटी-मोटी नहीं रही, जैसा नीलसन या कैंटर के ऑडिट में नजर भी नजर आया है। छोटे शहरों के सुपरमार्केट और एमेजॉन पर अब आपको किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के ब्रांड वाले किचन वाइप के साथ ही किसी छोटी कंपनी के ब्रांड का वाइप भी रखा मिलेगा, जिसकी कीमत भी 136 रुपये कम होगी। एमेजॉन पर बहुराष्ट्रीय ब्रांड को 4.4 रेटिंग मिली है और पिछले महीने 5,000 किचन वाइप बिके हैं। दिलचस्प है कि छोटी कंपनी के वाइप को भी 4.1 रेटिंग मिली है और 4,000 वाइप बिके हैं।

4. जब किसी कंपनी के चर्चित मुख्य कार्य अधिकारी (सीईओ) अपनी कंपनी के प्रदर्शन को बढ़ा-चढ़ाकर बताएं तो उसे ब्रह्मवाक्य मानने से बचें। नेस्ले इंडिया के चेयरमैन ने जब कहा था कि ‘देश का मध्य वर्ग घटता हुआ लग रहा है’ तो वह बात उन्होंने अपने उत्पादों विशेष तौर पर अधिक कीमत वाले पैकेज्ड दूध तथा चॉकलेट की सुस्त बिक्री को समझाने के लिए कही थी। मगर उनकी इस टिप्पणी को प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने भी विभिन्न सेमिनारों में अर्थव्यवस्था की गंभीर समस्या के सबूत के तौर पर पेश किया। नए साल में बेहतर होगा कि सीईओ अर्थशास्त्रियों की बात का हवाला दें, अपनी दलील में वजन लाने के लिए अर्थशास्त्री किसी सीईओ की बात का हवाला न दें।

5. शोधकर्ताओं को भी भारतीय ‘मध्य वर्ग’ के आकार पर कोई सिद्धांत देने से बचना चाहिए। यह आकार हर तिमाही में बदल नहीं जाता। समाजशास्त्र में मध्य वर्ग की स्पष्ट परिभाषाएं हैं, जो बताती हैं कि अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह वर्ग जरूरी क्यों है। इसमें पेशे की गुणवत्ता, कौशल, व्यय के बाद बची आय, मुश्किलों से जूझकर उबरने की मजबूती आदि शामिल हैं। इस साल हम बेहद अमीरों और बेहद गरीबों को छोड़कर बाकी सभी (यानी 80 फीसदी भारतीयों) को ‘मध्य वर्ग’ मान लें और उसके बाद ईमानदारी के साथ उन्हें वास्तविक मध्य वर्ग और दूसरी श्रेणियों के मध्य वर्ग में बांट लें। तथाकथित मध्य वर्ग की खपत बुरे दिनों में कम हो जाती है क्योंकि जो वास्तव में मध्यवर्गीय परिवार नहीं हैं, उनके पास अधिशेष आय बहुत कम होती है और उन्हें मध्य वर्ग कहा ही नहीं जाना चाहिए।

6. शहरी और ग्रामीण वृद्धि में एक दूसरे की तुलना में आते बदलाव पर अचंभा और भ्रम जताने तथा उस पर चर्चा करने में समय एवं ऊर्जा बरबाद न करें। आय के कारक अलग-अलग हैं। इसीलिए छोटे किसान और महानगर में दुकान पर काम करने वाले की खाद्य पदार्थ खरीदने की क्षमता भी अलग-अलग है और उनकी कल्याणकारी योजनाएं भी अलग-अलग हैं। वास्तव में ग्रामीण और शहरी भारत को एक वर्ग मानने के दिन लद गए। भारत बंटा हुआ है और इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। भारत में कई छोटे-छोटे भारत हैं जिनके उपभोक्ता अलग-अलग हैं। भारत के भीतर कई छोटे उपभोक्ता भारत हैं, जो अलग-अलग धुन पर चलते हैं और जिससे उन्हें आय तथा भरोसा मिलता है।

7. इसके अलावा क्या भारतीय रिजर्व बैंक का उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण देश के 19 प्रमुख शहरों से आगे जाने की कोशिश कर सकता है? देश में उपभोग पर होने वाला आधे से ज्यादा खर्च ग्रामीण परिवारों से आ रहा है और हमें पता है कि शहरी भारत जो आज सोच रहा है, ग्रामीण क्षेत्र कल वही नहीं सोचेंगे। भावनाएं इस तरह एक से दूसरे तक नहीं जातीं। साथ ही जीएसटी के अलग-अलग और बारीक आंकड़ों की जरूरत है ताकि खपत पर ज्यादा ठोस तरीके से चर्चा की जा सके।

(लेखिका उपभोक्ता आधारित कारोबार रणनीति के क्षेत्र में कारोबारी सलाहकार हैं और भारत की उपभोक्ता अर्थव्यवस्था पर शोध कर रही हैं)

First Published - January 7, 2025 | 9:38 PM IST

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