फाइनैंशियल टाइम्स के 3 अप्रैल के अंक में छपे आलेख ‘यूरो डॉलर पर क्यों नहीं छा सकता’ में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बैरी आइशनग्रीन और पेरिस स्थित साइंस पीओ के प्रोफेसर मार्क फलांद्रियू ने दोनों मुद्राओं के भविष्य पर चर्चा करने में काफी वक्त खर्च किया है।
उनका कहना है कि डॉलर के प्राथमिक सुरक्षित मुद्रा नहीं रहने के जो कयास लगाए जा रहे हैं, वे एक ऐसे मॉडल की कल्पना करने से पैदा हुए हैं, जो 21वीं सदी की हमारी दुनिया में हो ही नहीं सकता। इस मॉडल के पैरोकार मानते हैं कि मुद्रा का अंतरराष्ट्रीय दर्जा एक खास तरह के ‘नेटवर्क इफेक्ट’ की वजह से होता है।
मिसाल के तौर पर डॉलर के ही मामले को लें, तो केंद्रीय बैंकों के नेटवर्क की वजह से उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का दर्जा मिला हुआ है। किसी भी देश का केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा डॉलर के रूप में ही रखता है, क्योंकि बाकी सभी केंद्रीय बैंक भी ऐसा ही करते हैं। लेकिन आलेख में कहा गया कि 1924-25 तक पाउंड ही विश्व भर में भंडारण मुद्रा के तौर पर प्रचलित था।
लेकिन उसके बाद डॉलर उसे धकेलकर इस मुकाम पर काबिज हो गया। लेकिन इस मुकाम पर पहुंचने का मतलब यह नहीं है कि उसे कभी खतरा नहीं हो सकता। डॉलर को खतरा झेलना भी पड़ा था। जब दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं मंदी की शिकार हुई थीं और अमेरिका में जबर्दस्त आर्थिक संकट मुंह बाएं खड़ा हो गया था, तब अंतरराष्ट्रीय भंडारण मुद्रा का तमगा भी डॉलर से छिन गया था। 1930 के दशक में ‘अमेरिकी अर्थव्यवस्था के घातक कुप्रबंधन’ का नतीजा भी ऐसा ही हुआ था।
लेकिन इन बहसों और तर्कों में खासी खामियां हैं। सबसे पहले, दोनों प्रोफेसर 20वीं सदी का उदाहरण दे रहे हैं, जब डॉलर ने पाउंड की जगह ली थी। दिलचस्प है कि वे खुद ही यह भी मान रहे हैं कि यह मॉडल 21वीं सदी की हमारी दुनिया में नहीं चल सकता। दरअसल, उनके दूसरे तर्क भी उस सिद्धांत की वकालत कर रहे हैं, जिसके मुताबिक डॉलर के अस्तित्व पर संकट की बात बढ़ाचढ़ाकर कही जा रही है।
उनकी बात से कुछ लोग सहमत भी हो सकते हैं, लेकिन सनद रहे कि दुनिया में कुल मुद्रा भंडार का 65 फीसद हिस्सा आज भी अमेरिकी मुद्रा यानी डॉलर में ही है। इसकी वजह डॉलर का तरजीही दर्जा ही है। लेकिन इस दर्जे के नाम पर दूसरे आर्थिक आधारों को अनदेखा करना कहां तक सही है? एक पहलू यह भी है कि अमेरिका को उसके चालू खाते का घाटा अपनी ही मुद्रा में करने का ‘विशेषाधिकार’ क्यों दिया जाए।
धन दरअसल वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय का साधन होता है। इसके साथ ही भंडारण के लिए भी उसकी उपयोगिता होती है। लेकिन दोनों ही मामलों में डॉलर की उपयोगिता पर सवालिया निशान लग गए हैं।
विनिमय की बात करें, तो जिन वस्तुओं की कीमतें डॉलर में तय की जाती हैं, उनमें से ज्यादातर के कारोबार में भी मुद्रा के तौर पर इसी का प्रचलन है। लेकिन तरजीह वाला पहलू जिस दिन खत्म हो गया (मसलन ईरान, रूस और वेनेजुएला तेल के निर्यात में डॉलर की जगह यूरो का इस्तेमाल करते हैं), उस दिन तस्वीर बिल्कुल उलट जाएगी क्योंकि धन के भंडार के मामले में डॉलर का इस्तेमाल दिनोदिन कम हो रहा है।
40 साल पहले एक डॉलर की कीमत 360 जापानी येन के बराबर थी। मौजूदा ऋण संकट वित्तीय बाजार का आकार बढ़ जाने की वजह से ही पैदा हुआ है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। 1990 में डॉटकॉम बुलबुले को याद कीजिए, उसका आकार भी वैसे ही बढ़ा था, जैसे आज घरों की कीमत और प्रतिभूति जमानत के साथ हुआ है।
वित्तीय बाजार की तो बात ही मत कीजिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश की कर कटौती, बजटीय घाटे और इराक तथा अफगानिस्तान युद्ध में 30 खरब डॉलर का खर्च कोई अच्छे संकेत तो नहीं दे रहा है।
यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था आज की तारीख में तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मुकाबले बड़ी है। उसमें शामिल देशों के कुल कारोबार को इकट्ठा कर दें, तो अमेरिकी कारोबार भी उसके सामने बौना साबित हो जाएगा। इसी तरह यूरोपीय संघ के बॉन्ड बाजार की हालत अच्छी है और तरलता की तंगी से भी उसे जूझना नहीं पड़ रहा है।
अमेरिकी राजनीति भी विलक्षण ही है। वहां के राजनीतिज्ञ लोकतंत्र की बुनियाद रखे जाने के बाद से कुछ अजीबोगरीब विश्वास लेकर चल रहे हैं। वे हमेशा मानते हैं कि भगवान ने उनके देश को आशीर्वाद दिया है और पूरी दुनिया को पूंजीवाद और लोकतंत्र का निर्वाण देने के लिए उसे जरिया बनाया है। उनके मुताबिक अमेरिका दुनिया का अकेला देश है, जो चाहे कितना भी कम उत्पादन करे, उसे ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने का अधिकार है।
नास्तिक होने की वजह से ऐसे ‘दैवीय अभियान’ और ऐसी आस्था मेरे गले तो नहीं उतर पाती। इसके बनिस्बत मुझे सोचे-समझे, आजमाए गए ठोस आर्थिक आधारों में ज्यादा भरोसा है। इसीलिए मुझे लगता है कि डॉलर भंडारण मुद्रा का अपना दर्जा गंवा देगा और उसकी जगह या तो यूरो आएगा या युआन वह जगह ले लेगा।
मैं इस बात से इत्तफाक रखता हूं कि सर्वमान्य होने का फायदा हमेशा नहीं रहता, लेकिन दोनों प्रोफेसर डॉलर के मामले में बहस मुबाहिसा करते समय यह क्यों नहीं मानते। मेरा तो यही मानना है कि सर्वमान्य होने या तरजीह मिलने का फायदा डॉलर को लंबे अरसे तक हासिल नहीं होगा।