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हर हाल में हार जाएंगे हिजाब के हिमायती

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 2:21 PM IST

भले ही शीर्ष अदालत का फैसला हिजाब के पक्ष में आ जाए, तब भी उसके समर्थक परास्त हो जाएंगे, क्योंकि असली लड़ाई राजनीति के रण में लड़ी जानी है।  
उच्चतम न्यायालय जल्द ही हिजाब मामले पर फैसला सुनाएगा। चूंकि इस मामले के पीठ से जुड़े वरिष्ठ न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता 16 अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो माना जाए कि इसमें कुछ हफ्ते ही लगेंगे। हम संभावित फैसले को लेकर अटकल तो नहीं लगा सकते, लेकिन मैं यही कहना चाहूंगा कि शीर्ष अदालत का निर्णय चाहे जो हो, उसमें याचियों की ही हार होगी। कैसे? यदि अदालत उनकी याचिकाओं (ऐसी कई याचिकाएं हैं) को खारिज कर देती है तो यह कानूनी पराजय होगी, जो समझ आती है। परंतु यदि न्यायालय का आदेश उनके पक्ष में गया तो उनकी हार कैसे होगी?
इसका जवाब यही है कि ऐसी स्थिति में वे गणतंत्र के सर्वोच्च न्यायालय को उस मान्यता पर स्वीकृति दिलाने में सफल हो जाएंगे, जो निश्चित रूप से एक रूढ़िवादी परंपरा है। हमने जानबूझकर ‘प्रतिगामी’ शब्द से परहेज किया है, क्योंकि यह आलोचनात्मक है। दूसरी ओर रूढ़िवादी एक कथन या तथ्य है। यदि अदालत हिजाब को पसंद का मामला करार देती है तब भी यह एक सामाजिक रूढ़िवादी पसंद ही होगी।
यदि शीर्ष अदालत कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को पलटकर यह व्यवस्था देती है कि हिजाब एक आवश्यक धार्मिक परंपरा है तो यह दोहरी हार होगी। इससे तमाम भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए विकल्प नहीं रह जाएगा। विकल्पों का दायरा बढ़ने के बजाय वे और सिकुड़ जाएंगे। 
यदि ऐसा आदेश आता है तो यह ईरान में अयातुल्लाओं के लिए वरदान जैसा होगा। उनकी दलील होगी कि देखिए एक पंथनिरपेक्ष गणतंत्र की शीर्ष अदालत भी कह रही है कि हिजाब किसी भी उम्र के स्तर पर एक आवश्यक धार्मिक परंपरा है। तब हमारे इस्लामिक गणतंत्र में कोई इस पर कैसे आपत्ति कर सकता है? उसमें भी एक क्रांतिकारी इस्लामिक गणतंत्र में। 
यह कहना विशुद्ध रूप से भाषणबाजी होगा कि भारत में तमाम आधुनिक और बौद्धिक लोग हिजाब को लेकर पसंद के मामले में इतने भावुक हो रहे हैं, जबकि ईरान में महिलाएं इसके विरुद्ध अपनी जान जोखिम में डालकर इससे मुक्ति के लिए बलिदान तक दे रही हैं।  हालांकि, भारत में इस पर टकराव बहुत सीमित है।
यहां पेच इस पर नहीं फंसा कि मुस्लिम महिला हिजाब पहन सकती है या नहीं। भारत में तो इस पर मौजूदा बहस और अदालती लड़ाई स्कूल में बच्चियों-किशोरियों के हिजाब पहनने तक सिमटी है। कर्नाटक का मुद्दा सीनियर स्कूल जाने वाली लड़कियों की पोशाक के ऊपर हिजाब पहनने से जुड़ा है।
यही संभावना है कि इन स्कूलों को ‘कॉलेज’ करार देकर इस मुद्दे को जनमानस में विरूपित कर दिया गया। परंतु ये कॉलेज नहीं, बल्कि जूनियर कॉलेज हैं, जहां कक्षा 11 और 12वीं की पढ़ाई होती है। वहां विरले ही मामलों में कोई वयस्क होगा। भारत में अमूमन 17 साल की उम्र तक 12वीं कक्षा उत्तीर्ण हो जाती है। इस पहलू से हमें मुद्दों को सुलझाने में मदद मिलनी चाहिए। 
लोकतंत्र में शायद ही कोई समय हो, जब ध्रुवीकरण न हो। हालांकि यह वह समय है जब हम अपने इतिहास में सबसे अधिक ध्रुवीकृत हैं। यह एक तथ्य है। आखिर हम स्थिति से और क्या निष्कर्ष निकालें, जब कोई पार्टी मुख्य रूप से एक ही धार्मिक मान्यता वाले मतदाताओं के दम पर लगातार दो चुनाव जीत जाए?
पिछले दो लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं बना। ध्रुवीकृत मतदाता एक पक्ष की सरकार बनाते हैं। ऐसे में उससे इतर लोगों में असुरक्षा एवं असहजता का भाव आना स्वाभाविक है। किनारे कर दिए गए अल्पसंख्यक तब हाथ-पैर मारते हैं और अपनी उन जड़ों को मजबूत बनाने में जुटते हैं, जो उन्हें प्रिय होती हैं। राजनीतिक रूप से अक्सर यह बहुत खराब जाल होता है।
इसकी जटिलता को समझने के लिए हम 37 साल पीछे जाते हैं। यह मामला एक 73 वर्षीय तलाकशुदा महिला शाहबानो द्वारा गुजारा भत्ता मांगने के लिए अदालत की शरण में जाने से जुड़ा था। एक नितांत निजी मामले ने धार्मिक-राजनीतिक रंग ले लिया, क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरुओं को यह अपने पर्सनल लॉ को चुनौती देता दिखा, जिसमें निकाह के समय मेहर की प्रतिबद्धता के सिवाय किसी और गुजारे भत्ते का प्रावधान नहीं। यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा।
मामले की सुनवाई तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ (भावी मुख्य न्यायाधीश के पिता) का पीठ कर रहा था, जिसने इंदौर की उस महिला के पक्ष में फैसला सुनाया। उन्हें बमुश्किल 500 रुपये का गुजारा भत्ता मिला, लेकिन उसे मुस्लिम जीवनपद्धति पर आघात के रूप में देखा गया।
कई जगहों पर मुस्लिम भीड़ ने चंद्रचूड़ (सीनियर) के पुतले फूंके। मैने 1985 में उस मामले की रिपोर्टिंग की थी और ‘इंडिया टुडे’ के लिए आवरण कथा लिखी, जिसके लिए कई लोगों के साथ ही जमात-ए-इस्लामी-हिंद के तत्कालीन अमीर मौलाना अबुल लईस से भी बात की थी। उन्होंने कहा था कि भारतीय मुसलमानों की लड़ाई उनके जीवन और संपत्ति को लेकर नहीं, बल्कि पहचान और संस्कृति से जुड़ी थी। 
यह केवल धर्मगुरुओं तक ही सीमित नहीं था। यहां तक कि सैयद शहाबुद्दीन जैसे शीर्ष शिक्षाविद्, पूर्व राजनयिक और उत्कृष्ट बुद्धिजीवी ने भी रूढ़िवादियों का पक्ष लिया। उन्होंने इस फैसले को बौद्धिक के साथ-साथ राजनीतिक रूप से भी चुनौती दी और बिहार में किशनगंज लोकसभा उपचुनाव में उतरकर जीत भी हासिल की, जिस सीट को एक साल पहले ही राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने 1.3 लाख मतों के अंतर से जीता था।
मैंने उनसे बात की और उन्होंने बहुत बेबाकी से कहा कि यह समावेशन की अस्वीकार्य प्रक्रिया के खिलाफ एक लड़ाई थी। यह लड़ाई वह कैसे लड़ रहे थे? कांग्रेस के मुस्लिम वोट बैंक का ध्वंस करके कि ‘यह मुस्लिम वोट बैंक अब दरक रहा है और राजा का लाव-लश्कर इसे वापस हासिल नहीं कर सकता।’ शहाबुद्दीन एकदम सही थे, क्योंकि शाहबानो मामले के बाद कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक दोबारा कभी लामबंद नहीं हो सका।
इसने हिंदुओं को आक्रोशित करने के साथ ही भाजपा को भी इस अभियान में मदद पहुंचाई कि कांग्रेस अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में लगी है। फिर हिंदुओं को दिलासा देने के प्रयास में राजीव गांधी ने कई बड़ी गलतियां कीं, जिनमें बाबरी-अयोध्या स्थल का ताला खुलवाना भी शामिल था, जिसे हाल में जयराम रमेश ने भी एक भूल माना, जिसने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को और कुपित कर दिया तो यह कदम हिंदुओं को भी आश्वस्त नहीं कर सका।
नरेंद्र मोदी को लगातार दो बार मिला बहुमत अंततः उसकी ही राजनीतिक परिणति है। याद रहे कि यह सब एक 73 वर्षीय गरीब-अशिक्षित तलाकशुदा महिला को महज 500 रुपये गुजारा भत्ता देने के मामले से शुरू हुआ था। 
ऐसा नहीं कि तब आधुनिकता के पक्ष में आवाजें नहीं उठीं। मुस्लिम समुदाय के भीतर ऐसे भी कई लोग थे। राजीव गांधी सरकार में मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने दलील दी कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप न किया जाए। मेरी उसी आवरण कथा के लिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘मेरा मजहब, इस्लाम प्रगतिशील और आधुनिक हो रहा है।’ हाल में संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने वाली पांच मुस्लिम हस्तियों में से एक शाहिद सिद्दीकी उस समय उर्दू दैनिक ‘नई दुनिया’ के युवा संपादक थे। तब उन्होंने कहा था, ‘हर छोटे-शहर का मौलाना अपने संकीर्ण हितों और उद्देश्यों के लिए अब नेता बन गया है।’
कौसर आजम भी थीं। वह हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाती थीं। उन्होंने अफसोस जताया कि मुस्लिम समाज में महात्मा गांधी और राजा राममोहन जैसे सुधारकों का अभाव है और उन्हें इसका दुख भी था कि हामिद दलवई जैसे आधुनिकतावादी का युवावस्था में ही निधन हो गया।
जेएनयू में प्रोफेसर जोया हसन भी उदारता एवं आधुनिकता के पक्ष में थीं। तब उदार और आधुनिक आवाजों की अनदेखी हुई और उसके राजनीतिक परिणाम भी सामने आए। ये परिणाम इतने गंभीर थे कि करीब चार दशक बाद भी हम हिजाब मसले पर उसी प्रकार के टकराव में उलझे हैं। हिजाब को ‘पसंद’ का मामला बताने पर तहजीब, पहचान  और समावेशन की अस्वीकार्य प्रक्रिया आदि को आड़ बनाकर वैसी ही दलीलें गढ़ी जा रही हैं।
बड़ा अंतर यही है कि शाहबानो मामले में आधुनिकता के पक्ष में जो शिक्षित, सम्मानित और स्थापित मुस्लिम आवाजें उठीं, उन्होंने अब पाला बदल लिया है। तब उन्होंने एक बढ़िया नैतिक एवं बौद्धिक लड़ाई लड़ी और हार गए। वे अब दूसरे खेमे की ओर से लड़ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह यही है कि वे नरेंद्र मोदी को लेकर चिंतित हैं। अफसोस की बात यही है कि अदालत का फैसला चाहे जो, लेकिन वे फिर से हार के कगार पर हैं। 

First Published : October 2, 2022 | 10:48 PM IST