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स्त्रियों के समावेशन की जमीनी हकीकत

अक्सर पूछा जाता है कि महिलाओं की मौजूदगी अनिवार्य बनाने वाले कानून के बाद भारतीय निदेशक मंडलों में क्या बदला है?

Last Updated- March 13, 2025 | 9:53 PM IST
women directors in company boards

देश के सभी हवाई अड्डों पर पुरुष और महिला यात्रियों के लिए अलग-अलग सुरक्षा जांच और बॉडी स्कैनिंग की व्यवस्था है। अधिकतर देशों में ऐसा नहीं है। वहां सभी लोग एक ही स्कैनर वाली चौखट से गुजरते हैं। हां, अगर किसी महिला की और जांच की जरूरत पड़ती है तो उसके लिए महिला सुरक्षाकर्मी होती हैं। मगर यह जांच खुले में ही की जाती है।

भारत के हवाई अड्‌डों पर हर किसी की अलग-अलग जांच की जाती है और इसके लिए हाथों में पकड़े जाने वाले स्कैनर का इस्तेमाल होता है। महिलाओं की जांच के समय शायद उनके स्त्री होने का खास ध्यान रखा जाता है और इसीलिए यह काम पर्दे के भीतर किया जाता है। वहां लगे पर्दे को दिन में हजारों बार हाथ से खोला-बंद किया जाता है। इस कारण महिला सुरक्षाकर्मियों को पुरुष कर्मियों के मुकाबले ज्यादा शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है। यह मेहनत और भी बढ़ गई है क्योंकि अब छोटे-बड़े सभी हवाई अड्डों पर महिला मुसाफिरों की तादाद बढ़ती ही जा रही है।

महिला सुरक्षाकर्मी इस तरह की बेकार और थकाऊ कवायद करती हैं मगर इसके लिए उन्हें पुरुषों के मुकाबले ज्यादा वेतन नहीं मिलता। हैरत की बात यह है कि कभी किसी ने उन्हें इस मेहनत से बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया। किसी को यह ख्याल ही नहीं आया कि इस बेकार की कवायद और मेहनत को खत्म करने के लिए कोई नई व्यवस्था बनाई जा सकती है या पर्दों के बजाय नई तरह का सुरक्षा जांच कमरा तैयार किया जा सकता है।

हाथ में पकड़े जाने वाले स्कैनर शरीर से उचित दूरी पर रखे जाते हैं और उनके इस्तेमाल के समय दुपट्टा या साड़ी का पल्लू हटाने की जरूरत भी नहीं होती। ऐसे में सुरक्षा के उस पर्दे वाले घेरे को खत्म किया जा सकता है और इसमें किसी की गरिमा कम भी नहीं होगी। यह काम ज्यादा दुस्साहसी लग रहा हो तो एक और कारगर तरीका है। उसमें सुरक्षा वाले घेरे या कमरे को नए तरीके से डिजाइन किया जा सकता है, जिसमें पर्दे तो हट जाएं मगर निजता बनी रहे।

मैंने महिला सुरक्षाकर्मियों से कई बार पूछा है कि उन्होंने यह व्यवस्था बदलने की मांग क्यों नहीं की? एक ही जवाब मिलता है कि उन्होंने कई बार अपने पुरुष अधिकारियों से इस बारे में शिकायत की है मगर कोई तवज्जो नहीं देता। अगर यह कोई कारोबारी दिक्कत होती, जिससे नफा या नुकसान हो रहा होता या पुरुषों को परेशान करने वाली कोई बात होती तो अब तक इसे सुलझा दिया गया होता।

स्त्रियों के साथ भेद करने वाली या प्रतिकूल व्यवस्था कई तरह से दिखती है। जब महिला यात्री हवाई अड्डों पर अलग और कम भीड़ वाली डिजि यात्रा सुरक्षा कतारों में जाना चाहती हैं तो अक्सर पुरुष सुरक्षाकर्मी उन्हें सलाह देते हैं, ‘मैडम, आप लेडीज क्यू में चली जाना, यहां नहीं’। इससे गुजरा जमाना याद आता है, जब टॉयलेट पर भी पुरुष, महिला और एक्जिक्यूटिव (यानी पुरुष) लिखा होता था। ये उदाहरण दिखाते हैं कि स्त्री-पुरुष को समान बरतने वाली कई पहल अच्छी मंशा मगर खराब या दकियानूसी सोच के कारण बेकार हो जाती हैं।

लंबे समय तक भारतीय कंपनियों के निदेशक मंडलों यानी बोर्ड में महिलाएं नहीं होती थीं या महज एक महिला होती थी। अब कानूनी अनिवार्यता के कारण महिलाओं की उपस्थिति पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है और धीमी गति से ही सही महिलाओं का अनुपात बढ़ रहा है। मेरे लिए बहुत खुशी की बात है कि बीते कुछ दशकों में कई बोर्डों में काम करने के बाद अब मैं ऐसी बड़ी सूचीबद्ध कंपनी के बोर्ड में हूं, जहां ज्यादातर निदेशक महिला हैं और चेयरपर्सन तथा प्रबंधन निदेशक की कुर्सी पर भी दो पेशेवर महिलाएं ही बैठी हैं। यह कमिंस इंडिया का बोर्ड है, जो फार्चून 500 की सूची में शामिल इंजीनियरिंग कंपनी कमिंस इंक की भारतीय सहायक कंपनी है। कमिंस इंक में भी चेयरपर्सन और सीईओ महिला ही हैं। क्या इस बोर्ड की बैठक कुछ अलग लगती हैं? बिल्कुल नहीं। हम दुनिया के किसी भी अन्य बोर्ड की तरह ही काम करते हैं। बोर्ड बैठकों में या लंच के समय होने वाली चर्चा भी कुछ अलग नहीं होतीं। फिर भी जब कमिंस इंक की ग्लोबल चेयरपर्सन और सीईओ जेनिफर रम्सी भारत आईं तो उन्होंने भारतीय बोर्ड के साथ रात्रि भोज में और विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ मुलाकात में साड़ी ही पहनी। और मेरी पीढ़ी की महिलाएं 1980-90 के दशकों में विदेशी बैठकों में साड़ी पहनने से कतराती थीं।

अक्सर पूछा जाता है कि महिलाओं की मौजूदगी अनिवार्य बनाने वाले कानून के बाद भारतीय निदेशक मंडलों में क्या बदला है? ऐसे में ‘महिला निदेशकों को प्रशिक्षण’ देने का नया और तेजी से फलता-फूलता धंधा निराश करता है क्योंकि पुरुष निदेशकों को ऐसा कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था। उम्मीद है कि बोर्ड प्रमुख ऐसे बोर्ड बनाने की पहल करेंगे, जहां कामकाज में महिलाओं की बराबर भागीदारी होगी। इसके लिए किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत नहीं है बल्कि ऐसे तरीके बनाने हैं, जिसमें हर किसी को भागीदारी का और अपनी बात रखने का मौका मिले। मगर यह बदलाव किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि संगठन का जिम्मा है।

अच्छी खबर यह है कि मनोनयन तथा वेतन तय करने वाली समितियां और बोर्ड सदस्य तलाशने वाली फर्में सक्षम निदेशक बनने योग्य महिलाएं तलाशने में जुटी हं और उन्हें पात्र महिलाएं मिल भी रही हैं। बुरी खबर यह है कि महिला उम्मीदवारों के चयन के समय पैमाने मुश्किल कर दिए जाते हैं। इसके बाद भी अच्छी खबर यह है कि क्षमतावान महिला स्वतंत्र निदेशकों की तादाद बढ़ रही है।

अंत में, चेयरपर्सन शब्द का इस्तेमाल अब बोर्ड रूम में चेयरमैन के साथ खूब किया जाता है। हालांकि यह हमेशा स्त्रियों के लिए उतना समावेशी नहीं रहता, जितना सोचा गया होगा। अरसा पहले एक बड़े सार्वजनिक उपक्रम की कार्यकारी चेयरमैन चुनी गई एक महिला से पूछा गया कि वह खुद को ‘चेयरपर्सन’ क्यों नहीं कहतीं? जवाब था कि इससे कंपनी में कई लोगों को लग सकता है कि उन्हें असली काम नहीं बल्कि कुछ हल्का काम दिया गया है। खुद को चेयरपर्सन के बजाय चेयरमैन कहलाकर वह स्त्रियों को वाकई में ताकतवर दिखा पाती हैं।

First Published - March 13, 2025 | 9:45 PM IST

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