करीब वर्ष 2007 के बाद से ही देश का खुदरा उद्योग नीतिगत ध्यान के केंद्र में रहा है लेकिन यह बात भी उसे ढांचागत बदलाव के अनिवार्य असर से बचाने में नाकाम रही है। वितरकों का असहयोग इसका ताजा प्रमाण है। विडंबना यह है कि दो दशक से अधिक समय में भारतीय खुदरा नीति पूरी तरह भ्रमित रही है और 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी उसके इसी स्थिति में रहने की आशा है।
ऐसा इसलिए कि रोजगार, आजीविका और उपभोक्ताओं के फायदे जैसे अहम सवालों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार तथा मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार दोनों इस मुद्दे पर केंद्रित रहीं कि इस क्षेत्र में विदेशी कारोबारियों और उनकी पूंजी को प्रवेश दिया जाए या नहीं। यह चिंता मूल रूप से वाम दलों की है जिनके समर्थन से संप्रग की सरकार चल रही थी, विदेशी पूंजी और कारोबारियों को लेकर वही सोच दक्षिणपंथ में भी नजर आने लगी है। असली कहानी यह है कि समूचे राजनीतिक फलक में खुदरा नीति को निहित स्वार्थ के नजरिये से देखा जा रहा है- शुरुआत में घरेलू कॉर्पोरेट खुदरा कारोबारी (हालांकि अब वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश चाह रहे हैं) और राजनीतिक रूप से रसूखदार किराना नेटवर्क जिन्हें लगता है कि संगठित खुदरा और ई-कॉमर्स के कारण उनका कारोबार खत्म हो जाएगा।
हमारे यहां अभी भी तमाम विसंगतियां हैं। मसलन एकल ब्रांड खुदरा और थोक व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत है लेकिन कुछ शर्तों के साथ। बहुब्रांड खुदरा में 51 फीसदी हिस्सेदारी की इजाजत है। यह एक कृत्रिम भेद है जो अब दुनिया में कहीं और नहीं नजर आता।
खुदरा कारोबार को लेकर राजनीतिक जोखिम के बचाव की इस कोशिश में दिलचस्प बात यह है कि इन बातों के बावजूद भारतीय बाजार में विदेशी खुदरा ब्रांड की आवक नहीं रुकी है। बीते दो दशक में भारत में लगभग सभी बड़े वैश्विक ब्रांड नजर आए हैं। नीतिगत दिक्कतों से उलझने के बजाय वैश्विक खुदरा कारोबारियों ने भारतीय साझेदारों के साथ मिलकर प्रवेश करने का आसान रास्ता अपनाया क्योंकि भारत एक तेजी से बढ़ता उपभोक्ता बाजार है।
परंतु विदेशी ब्रांडों की भारतीय उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं को संतुष्ट करना ही एकमात्र घटना नहीं है। नोटबंदी/वस्तु एवं सेवा कर की हड़बड़ी भरी प्रस्तुति/कोविड-19 के आगमन आदि के पहले इस क्षेत्र के कारण बढ़ते रोजगार साफ देखे जा सकते थे। खासतौर पर महिलाओं के लिए काफी अवसर पैदा हुए थे। कई अर्थशास्त्रियों ने जोर देकर कहा कि लाखों रोजगार तैयार करने वाली विनिर्माण फैक्टरियों के लिए निवेश जुटाना बहुत अहम है। परंतु भारत इसमें पीछे रह गया और फैक्टरियां बहुत तेजी से स्वचालित होती गईं और वैश्विक विनिर्माण में लगने वाला धन पूर्वी यूरोप या चीन के पड़ोसी वियतनाम तथा इंडोनेशिया जाने लगा। ई-मोबिलिटी से हालात बदल सकते हैं लेकिन अभी वह बाजार तैयार होने की प्रक्रिया में है। हालांकि यह सच है कि खुदरा कारोबार में उस कदर रोजगार नहीं हैं जितने कि विनिर्माण में हैं लेकिन यह कारोबार भारतीय बाजारों में मौजूद कम कुशल तथा अद्र्धकुशल कर्मचारियों के लिए अनुकूल है।
खुदरा ई-कॉमर्स के क्षेत्र को भी ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा हालांकि इस कारोबार में दो बड़ी वैश्विक खुदरा कंपनियों वालमार्ट और एमेजॉन का दबदबा है। पारंपरिक कारोबार में समस्याओं के बाद वालमार्ट ने आखिरकार फ्लिपकार्ट को खरीद लिया। इन दोनों कंपनियों ने भारत में ई-कॉमर्स क्रांति का नेतृत्त्व किया जिसके चलते नायिका जैसी कंपनी को इतने उच्च प्रीमियम पर सूचीबद्धता हासिल हुई।
इसके बावजूद इस क्षेत्र को लेकर नीतिगत रुख यही रहा है कि कारोबारी सुगमता बढ़ाने के बजाय नियंत्रण पर जोर दिया जाए। पहले की नीतियां जो प्रेस विज्ञप्ति के जरिये सामने आती थीं उनमें ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों को अपनी खुदरा कंपनियों की वस्तुओं का कारोबार करने से रोका गया था।
इस बात ने फ्लिपकार्ट और एमेजॉन को प्रेरित किया कि वे इन नियमों से निजात पाने के लिए कुछ तोड़मरोड़ करें। इस वर्ष के आरंभ में जारी मसौदा नीति ने इन प्रतिबंधों को और अधिक विशिष्ट कर दिया तथा ई-कॉमर्स कंपनियों की फ्लैश सेल पर भी रोक लगा दी। ध्यान रहे कि घरेलू पारंपरिक खुदरा कारोबारियों द्वारा संचालित स्टोर ब्रांडों पर इस तरह का कोई प्रतिबंध नहीं होता। न ही उनके त्योहारी मौसम में भारी छूट देने पर कभी कोई प्रतिबंध लागू किया गया। फ्लैश सेल्स पर रोक किराना लॉबी की शिकायतों के कारण लगाई गई।
घरेलू किराना कारोबारियों के पक्ष में हुए इस पक्षपात को लेकर केवल दो बड़ी कंपनियों और विश्लेषकों ने ही आपत्ति की लेकिन एक बार यह स्पष्ट होने के बाद कि नई नीति विदेशी और भारतीय ई-कॉमर्स के बीच कोई भेद नहीं करती, भारतीय खुदरा जगत की बड़ी कंपनियों ने भी विरोध करना शुरू किया। उनकी बात सुनी जाती है या नहीं, इसकी जानकारी अंतिम नीति आने पर ही मिलेगी जिसके बारे में सरकार का कहना है कि उसे ‘शीघ्र’ जारी किया जाएगा।
इस बीच एक बात जिसकी हर किसी ने अनदेखी की है वह है बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता वस्तु वितरकों की वास्तविक पीड़ा। उभरती घरेलू बी2बी शृंखलाओं को बेहतर मार्जिन की पेशकश और कम कीमत के कारण उन्हें आपूर्ति शृंखला में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। हड़ताल की धमकी तथा ऐसे ही अन्य कदमों ने दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली बड़ी कंपनियों को वार्ता के लिए विवश किया है।
बी2बी वितरकों को कब बेहतर हिस्सेदारी मिलती है यह एक अलग विषय है। यानी नीति निर्माताओं के लिए मामला विदेशी बनाम देसी या प्रतिस्पर्धा के स्वरूप का नहीं है बल्कि उन्हें एक उभरते कारोबार के मानवीय पहलुओं का अनुमान लगाने की जरूरत है।