इस बार गणतंत्र दिवस की झांकियां ‘विरासत और विकास’ के इर्द-गिर्द थीं, जो हमें यह परखने का अच्छा मौका देती हैं कि उदारीकरण के बाद से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर भारतीयता का कितना रंग चढ़ा है और यह भी कि विदेशी वस्तुओं के प्रति लगाव से देसी सामान के साथ सहज होने तक हमने कितना लंबा सफर तय किया। इसे आंकने-परखने का सबसे अच्छा जरिया भोजन और कपड़े होते हैं।
नब्बे के दशक का शुरुआत में दुनिया भर के सलाहकार भारतीय मार्केटिंग जगत को बता रहे थे कि भारत से पहले विकसित हुए देशों की ही तरह यहां की जनता भी पाश्चात्य कपड़े और खाना-पीना अपनाने जा रही है, जिसके लिए उन्हें तैयार हो जाना चाहिए। जापान के किमोनो की तरह साड़ी भी तीज-त्योहार, समारोहों या औपचारिक कार्यक्रमों में ही पहनी जाएगी। इसी तरह कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ने के साथ ही भारतीयों के नाश्ते में कॉर्न फ्लेक्स जैसे अनाज और ठंडा दूध शामिल होता जाएगा। लेकिन 25 साल बाद तस्वीर कुछ अलग दिखती है।
खानपान और कपड़े काफी बदल गए हैं और आप भारत पर जड़ बने रहने का दोष नहीं लगा सकते। लेकिन बदलाव एक लकीर या दिशा में नहीं हुए हैं। इस बदलाव में नए और पुराने का संगम दिख रहा है। समाज के सभी वर्गों में साड़ी अब बहुत कम पहनी जा रही है मगर इतनी कम भी नहीं पहनी जा रही है कि सार्वजनिक स्थल पर किसी को साड़ी पहने देख आप चौंक जाएं। हां, आजकल कुछ बड़े शहरों में कामकाजी या सामाजिक कार्यक्रमों में साड़ी पहनी महिलाएं कम दिकती हैं मगर साफ-सुथरे बिजनेस सूट पहनी युवा लडकियां उन्हें पुरातनपंथी कहकर मुंह भी नहीं बिचकाती हैं। बल्कि अब तो साड़ी पहनने वाली महिलाओं को सशक्त बताया जाता है।
मजे की बात है कि साड़ी आधुनिक होती जा रही है। वह जमाना गया, जब महिलाएं साड़ी से मेल खाते रंग और शैली के ब्लाउज तलाशने में समय खपाती थीं। अब तो साड़ी स्नीकर्स, टी-शर्ट और क्रॉप टॉप के साथ भी पहनी जा रही हैं। हर दाम की साड़ी के रंग, डिजाइन और कपड़े में नए प्रयोग किए जा रहे हैं। महंगी साड़ियों में तो ज्यादा ही प्रयोग हो रहे हैं। जो युवा पीढ़ी 18 फुट लंबी साड़ी लपेटने का झंझट नहीं चाहती उसके लिए बाजार में ‘रेडी-टु-वियर’ साड़ी आ गई है। शहरों में उच्च वर्गों के पुरुष भी पीछे नहीं हैं और औपचारिक-अनौपचारिक मौकों पर ‘एथनिक’ कहलाने वाली पोशाकों खूब पहन रहे हैं। ब्रांड भी उनका यह शौका पूरा करने के लिए तैयार खड़े हैं। पुरुषों के लिए भी रेडी-टु-वियर धोती आ गई है।
इधर हर वर्ग की महिलाएं ‘नॉन-एथनिक’ कपड़ों के साथ भी तरह-तरह के प्रयोग कर रही हैं क्योंकि ई-कॉमर्स किफायती दाम पर उन्हें बढ़िया कपड़े मुहैया भी करा रहा है। अस्सी के दशक में पाश्चात्य पोशाक पहने लोगों को अगल नजर से देखा जाता था मगर अब ऐसा बिल्कुल नहीं रहा। युवतियां जींस पहनकर बेखटके मंदिर जा रही हैं और महिला कॉन्सटेबल नवरात्रि के दौरान वर्दी के साथ सिंदूर और गजरा लगाकर ड्यूटी पर आ रही हैं।
रूढ़िवादी विचारों वाले एक समुदाय से आई एक युवा पेशेवर ने बताया कि वह अपने माता-पिता के साथ अपने ही समुदाय की एक शादी में जा रही है। जब उससे पूछा गया कि वहां कपड़े क्या पहन रही है तो उसने बताया, ‘डिजाइनर जींस और अच्छा सा टॉप।’ वह ख्याल भी नहीं था कि दकियानूसी माहौल में वह कैसी आधुनिक पोशाक पहन रही है। उसी समुदाय से आने वाले एक युवा कारोबारी ने बताया, ‘यह सब बाहरी दिखावा है। किसी को फर्क नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना है।’ भारत में आधुनिकता को अक्सर धीरे-धीरे खुलती मुट्ठी कहा जाता है और वह मुट्ठी बहुत खुल रही है।
भारत में आज हर ओर महिलाएं अपनी पसंद के कपड़े पहन रही हैं। बाकी दुनिया की तरह यहां भी महिलाएं पारंपरिक पोशाक से पैंट की ओर बढ़ रही हैं मगर इसके लिए उत्तर भारत के पारंपरिक सलवार कमीज को नया रूप दिया जा रहा है। ‘पंजाबी ड्रेस’ कहलाने वाली यह पोशाक दूर दक्षिण में भी खूब दिख जाती है। अब तो इस रीमिक्स ड्रेस पर दुपट्टा भी नहीं पहना जाता, जो कुछ अरसा पहले तक शालीनता का प्रतीक माना जाता था। दुपट्टा अब औपचारिक मौकों पर ही पहना जाता है और वह भी एक कंधे पर पड़ा रहता है। कुर्ता या कुर्ती टॉप अब अनगिनत पैटर्न और लंबाई में आते हैं और पैरों में उनके साथ जींस समेत कई तरह की पोशाक पहनी जाती है। इससे वेस्टर्न, फ्यूजन, इंडो-वेस्टर्न और एथनिक समेत कई तरह के अंदाज वाली पोशाकें बन जाती हैं।
कई भारतीय अभिनेत्रियां दुनिया भर के चर्चित समारोहों में पश्चिमी परिधान पहनकर रेड कारपेट पर जलवे बिखेर रही हैं। भारतीय डिजाइनर पूरी दुनिया में फैशन के मशहूर अड्डों में भारतीय कला को विदेशी पोशाकों के साथ मिलाकर सुर्खियां बटोर रहे हैं।
खानपान की कहानी तो और भी मजेदार है। भारत के लोगों ने दुनिया भर के व्यंजन अपना लिए हैं और भारतीय जायके का तड़का लगाकर उन्हें नए रूप में परोस रहे हैं। आपको सड़क किनारे ठेलों और दुकानों पर चाइनीज, इटालियन, बर्मीज, थाई और मेक्सिकन व्यंजन पकाते और खिलाते लोग दिख जाएंगे। बड़े-बड़े बाजारों में होटलों और बेकरी के बाहर लिखा मिल जाता है – ‘बिना अंडे वाला’ 100 प्रतिशत असली बेल्जियन वैफल! दुनिया भर में हरेक व्यंजन अब रूप बदलकर ‘जैन’ खाने में शामिल हो रहा है। मोमोज, नूडल्स और पिज्जा अब भारत के हर कोने में रम गए हैं और उनका फ्यूजन तो और भी लोकप्रिय हो रहा है। मुंबई में युवा उद्यमियों के एक रेस्तरां में विदेशी व्यंजनों को मुंबइया अंदाज में बनाकर परोसा गया तो आसपास के लोकप्रिय रेस्तरांओं से भी ग्राहक उनके यहां उमड़ पड़े। इससे क्या पता चलता है? लजीज भारतीय व्यंजन हमेशा लोकप्रिय रहेंगे। पश्चिम के रंग में रंगे अमीर युवा भारतीय अब महंगे भारतीय ब्रांडों की शराब भी बिना किसी हिचक के खरीद और पी रहे हैं।
अब हमें ग्लोबल होना पसंद है, देसी होना पसंद है और ग्लोबल देसी होना भी पसंद है। हम सब कुछ अपना लेते हैं, किसी को खांचे में नहीं रखते और हमने भारतीय तथा पाश्चात्य के बीच की दीवार गिरा दी है। बस, भारत के भीतर बड़े बिजनेस स्कूल अलग हैं, जहां क्लास की तस्वीर लेते समय या प्लेसमेंट साक्षात्कार के लिए जाते समय महिलाओं को पश्चिमी कपड़े पहनना जरूरी होता है। वे मानते हैं कि इससे कॉलेज की ‘ग्लोबल, प्रोफशनल’ छवि को बढ़ावा मिलता है। अब उन्हें यानी कल के आत्मनिर्भर आत्मविश्वासी भारत के नेताओं को भी आसपास से कुछ सीखने की जरूरत है।
(लेखिका ग्राहक केंद्रित कारोबारी रणनीति में परामर्श देती हैं और भारत की उपभोक्ता अर्थव्यवस्था पर शोध कर रही हैं)