कई सर्वेक्षण तथा दोपहिया वाहन जैसे क्षेत्रों के प्रदर्शन से उपजे प्रमाण यही संकेत देते हैं कि देश में आय वितरण के निचले स्तर पर व्यापक रूप से निराशा का माहौल है। विभिन्न प्रमाण मसलन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी या उपभोक्ता वस्तु कंपनियों द्वारा आय के मौसम में प्रस्तुत ग्रामीण मांग के अनुमान जैसे सर्वेक्षण शायद अलहदा तौर पर देखने पर निर्णायक नतीजे नहीं प्रस्तुत कर पा रहे हों। परंतु अगर इन्हें एक साथ रखकर देखा जाए तो निष्कर्षों को टाला नहीं जा सकता है। लगातार तीन वर्षों से घरेलू बाजार में दोपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है जो एक मजबूत संकेतक है। इससे पता चलता है कि असंगठित और ग्रामीण अर्थव्यवस्था महामारी के आगमन के पहले ही कमजोर हो चुकी थी और वायरस की एक के बाद एक आई लहरों तथा उनसे बचने के लिए की गई रोकथाम ने हालात और खराब कर दिए।
यहां सवाल यह है कि अब जबकि केंद्रीय वित्त मंत्रालय आगामी वित्त वर्ष के बजट को अंतिम रूप दे रहा है तो नीतिगत प्रतिक्रिया के क्षेत्र में क्या किया जा सकता है। वित्त मंत्री के सामने कई बाधाएं हैं। उदाहरण के लिए विनिवेश कार्यक्रम समय पर आगे नहीं बढ़ सका है और इससे प्राप्तियां अपेक्षित स्तर नहीं हासिल कर सकी हैं। राजकोषीय घाटा पहले ही बहुत अधिक है और कर्ज भी चिंताजनक स्तर तक बढ़ गया है। एक आकर्षण यह हो सकता है कि सबकुछ पहले की तरह रहने दिया जाए और वृद्धि को गति देने के लिए आसान मौद्रिक नीतियों पर यकीन किया जाए। इसके बावजूद मौद्रिक नीति के वितरण संबंधी प्रभाव भी राजनीतिक निर्णय लेने वालों के लिए चिंता का विषय होने चाहिए। अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर की आकृति का सुधार होने के संकेत हैं जिसमें अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्र और आबादी का कुछ हिस्सा महामारी के बाद की वृद्धि और आजीविका में सुधार के दौरान पीछे छूट गया है। ऐसे में शिथिल और समायोजन वाली मौद्रिक नीति से परिस्थितियां और बिगड़ सकती हैं क्योंकि इससे परिसंपत्ति मूल्य और उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति दोनों में इजाफा हो सकता है।
अंत में व्यापक सुधार सुनिश्चित करना तथा सामाजिक ढांचे में निचले पायदान पर मौजूद लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के काम को खास तवज्जो देना मौद्रिक नीति नहीं बल्कि राजकोषीय नीति का विषय है। ऐसे में बजट में केंद्रीय विचार कम कौशल वाले रोजगारों को सहायता उपलब्ध कराना होना चाहिए। सरकार की मौजूदा बुनियादी ढांचा परियोजनाएं निस्संदेह इसका महत्त्वपूर्ण घटक हैं। लेकिन इसके बावजूद अच्छे रोजगारों में कोई खास वृद्धि न होने से यही संकेत निकलता है कि दरअसल गतिरोध कहीं और है। पूंजी, श्रम तथा भूमि अभी भी समस्या बने हुए हैं। इसके अलावा नियामकीय लालफीताशाही तो है ही। बजट में ऐसे सुधार कार्यक्रमों पर जोर दिया जाना चाहिए जो रोजगार तैयार करते हों। ऐसे कार्यक्रम श्रम आधारित रोजगारों में ढांचागत दिक्कतें बरकरार रखे हुए हैं। ये ऐसे उद्योग हैं जो कम कुशल श्रमिकों के लिए भी बड़े पैमाने पर रोजगार तैयार कर सकते हैं। इनके अभाव में मध्यम अवधि में हमारी वृद्धि और गुणवत्ता दोनों प्रभावित होंगे।
बजट में इस बात को भी चिह्नित करना चाहिए कि महामारी के बाद सरकार के पास नकदी की तंगी को देखते हुए उसके बुनियादी ढांचे के लिए नियोजित व्यय के बड़े हिस्से की भरपाई निजी स्रोतों से होगी। घरेलू निजी पूंजी आसानी से उपलब्ध नहीं है इसलिए वैश्विक पूंजी जुटानी होगी। सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय निवेश एवं अधोसंरचना कोष की स्थापना की है और गत बजट में एक नए विकास वित्त संस्थान के निर्माण की घोषणा की गई थी। सरकार को उक्त निवेश कोष का आकार बढ़ाना चाहिए। इससे वित्त मंत्रालय पर से व्यय बजट का दबाव कम होगा और उन समुदायों और वर्गों की मदद की गुंजाइश बनेगी जो महामारी से सीधे तौर पर प्रभावित हुए हैं।