यह त्योहारों का समय है और शेयर बाजार से शेष अर्थव्यवस्था में अच्छी खबरों का प्रसार हो रहा है। इसका उलट भी उतना ही सही है। निर्यात में लगातार तेजी, कर राजस्व में इजाफा, औद्योगिक उत्पादन के उत्साहवद्र्धक आंकड़े, घटती मुद्रास्फीति, बैंकों के फंसे हुए कर्ज के बोझ में कमी, कंपनियों के मुनाफे में इजाफा और यूनिकॉर्न की बढ़ती तादाद जैसी बातों ने वित्त मंत्री को प्रोत्साहित किया कि वे इस वर्ष और अगले वर्ष लगभग दो अंकों की वृद्धि का पूर्वानुमान जताएं और निकट भविष्य में तेज वृद्धि होने की संभावना प्रकट करें।
अपनी ओर से प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि कोई भी सरकार इतनी सक्रिय नहीं रही जितनी कि उनकी सरकार है। बीते छह महीनों के प्रमाण देखें तो यह बात सही प्रतीत होती है। गति शक्ति, परिसंपत्ति मुद्रीकरण, एयर इंडिया की बिक्री, दूरसंचार का बचाव, इलेक्ट्रिक वाहन को बढ़ावा, नवीकरणीय ऊर्जा के लिए महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तय करना, अतीत से लागू कराधान को समाप्त करना और चुनिंदा उद्योगों के लिए उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन का विस्तार आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। इसके अलावा कुछ विस्तारवादी उपलब्धियों की घोषणा की गई, मसलन सरकार की मदद से तीन करोड़ मकानों का निर्माण। ये बातें मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल के मध्य उपजी पंगुता से एकदम विपरीत हैं।
सरकार की सभी पहल कामयाब नहींं होंगी, खासकर नीतिगत मोर्चे पर उसकी कमजोरी को देखते हुए, और आर्थिक गतिविधियों में जो तेजी आई है उसकी बड़ी वजह यह है कि तुलना 2020 के निम्र आधार से हो रही है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने नवीनतम आकलन में कहा है कि भारत 2021 और 2022 में एक बार फिर दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा। लेकिन यदि पिछले दो सालों को ध्यान में रखा जाए तो भारत की चार वर्ष की औसत जीडीपी वृद्धि 3.7 फीसदी से अधिक नहीं होगी। जबकि इस अवधि में जीडीपी वृद्धि का वैश्विक औसत 2.6 फीसदी रहेगा। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के विकसित देशों को पीछे छोड़ देने की संभावना बहुत उत्साहित करने वाली बात नहीं है। एशिया में पिछले दशक में बांग्लादेश, चीन, वियतनाम और ताइवान ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया जबकि थाईलैंड, फिलीपींस और दक्षिण कोरिया ने कहीं अधिक ऊंचा आय का स्तर होने के बावजूद उसकी बराबरी की। इसके बावजूद मिजाज में बदलाव आया है जिससे वृद्धि को गति मिल सकती है क्योंकि लोग खपत पर व्यय के लिए उत्साहित हो रहे हैं और कंपनियां निवेश के लिए। सरकार ने जो घोषणाएं की हैं उन्होंने भी अप्रैल-मई की ऑक्सीजन की कमी और नदियों के किनारे शव मिलने की भयावह छवियों को भुलाने में मदद की है। धीमी शुरुआत के बाद टीकाकरण भी सफल साबित हो रहा है। कोविड की तीसरी लहर आ सकती है लेकिन वह शायद ही खतरनाक साबित हो।
नकारात्मक खबरों के बीच सरकार ने जो धैर्य बनाए रखा वह भी सराहनीय है। विधिक मामलों के कुशल प्रबंधन ने पेगासस जासूसी मामले को सुर्खियों से बाहर कर दिया। नागरिक अधिकारों को पहुंच रही क्षति की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय आलोचना को माओ की शैली में मानवाधिकार तथा कल्याण योजनाओं के घालमेल के साथ किनारे कर दिया गया। चीन लद्दाख में बड़े भूभाग पर काबिज है लेकिन गृहमंत्री दावा करते हैं कि कोई देश भारत की सीमाओं में घुसने की कोशिश नहीं करेगा। जाहिर है तथ्य बेमानी हो चुके हैं। कई बार उन्हें दबा दिया जाता है या उनकी अनदेखी की जाती है। मिसाल के तौर पर यह बात कि खपत में कमी के पीछे वजह यह है कि गरीबी बढ़ी है। इसके बावजूद यदाकदा बुरी खबर सामने आ ही जाती है जो याद दिलाती है कि सब ठीक नहीं है। भारत का भूख संबंधी अंतरराष्ट्रीय सूचकांक में नीचे आना इसकी बानगी है।
अहम सवाल यह है कि क्या सतत रूप से तेज वृद्धि को लेकर वित्त मंत्री का आशावाद उचित है। सरकार की योजनाओं से कुछ गति उत्पन्न होने की आशा की जानी चाहिए लेकिन वृहद आर्थिक आंकड़े उत्साहजनक नहीं हैं। 2021 में अर्थव्यवस्था में कुल 29.7 फीसदी निवेश का अनुमान है जो एक दशक पहले के 39.6 फीसदी से कम है। केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त घाटा 11.3 फीसदी है जो 2011 के 8.3 फीसदी से अधिक है। ऋण-जीडीपी अनुपात अब 68.6 फीसदी से बढ़कर 90.6 फीसदी हो चुका है। एक दशक पहले के बेहतर संकेतक बरकरार नहीं रहे और वृद्धि में धीमापन आया। आशा की जानी चाहिए कि इस बार मामला उलट हो और मौजूदा ऊर्जा और आशावाद बरकरार रहे।