नारायण मूर्ति उस समय सुर्खियों में आ गए जब उन्होंने युवाओं से सप्ताह में 70 घंटे काम करने की मांग कर दी। गहनता से काम करने के बहुत फायदे होते हैं। सामूहिक संस्कृति में मौज मस्ती शामिल होती है, काम और जीवन के बीच संतुलन कायम होता है और उसमें ऐसा समय भी शामिल होता है जो हम दूसरों की रचनाओं को देखते हुए व्यतीत करते हैं। परंतु यह तपस्या को समझने और एकाग्रता एवं देखने के बजाय करने के महत्त्व को समझने में विफल रहता है।
‘प्रतिभाशाली’ शब्द खतरनाक और भ्रामक है। वास्तव में हममें से कोई भी आइंस्टाइन या रामानुजन नहीं है। हममें जो कुछ है वह विचारों और काम से घुलमिलकर बनता है। वह हम पर अच्छे और चतुर लोगों के प्रभाव से निर्मित होता है। एडिसन का प्रख्यात कथन है एक प्रतिभाशाली व्यक्ति एक फीसदी प्रेरणा और 99 फीसदी मेहनत से तैयार होता है। सीपीयू सेकंड में मापी गई आयु, अनुभव के वर्षों में किए गए आकलन से बेहतर है।
प्रतिदिन हम कितने घंटे पढ़ते या काम करते हैं उससे हमारा कौशल और क्षमता तैयार होती है। जीवन की असली पहेली इससे ऊपर उठने, आविष्कार करने तथा निर्माण करने में है। वहां भी घंटे गिने जाते हैं। जब बाबा अलाउद्दीन खां युवा थे तब वह दिन में 16 घंटे रियाज करते थे। वह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महानतम शिक्षक थे और वह बच्चों को जो सिखाते थे उसमें काफी हिस्सा काम और जीवन के असंतुलन के बारे में था।
मैंने और अमित वर्मा ने हाल ही में अमेरिकी रॉक गायक ब्रूस स्पिंग्स्टीन के बारे में बातचीत की। हमें उनकी कहानी में कड़ी मेहनत की अहम भूमिका नजर आई। युवाओं को लंबे समय तक पढ़ने, सोचने और काम करने की जरूरत है। अपने लिए एक श्रेष्ठ गुरु तलाश करें और उसके प्रशिक्षु बन जाएं। चतुर और अच्छे लोगों के बीच नजर आएं। भावनात्मक माहौल भी मायने रखता है: कोटा जैसी जगह पर होना खतरनाक हो सकता है। ज्ञान पाने की कोशिश करें, न कि परीक्षा में रैंक के पीछे भागें।
ऐसी भी कंपनियां हैं जहां कई महत्त्वपूर्ण लोग दिन में कई-कई घंटों तक काम करते हैं, जहां ऐसे अहम लोग होते हैं जो अपरिहार्य हैं। यहां प्रबंधन के लिए चेतावनी आवश्यक है। एक अच्छी तरह संचालित कंपनी में किसी व्यक्ति को अपरिहार्य नहीं होना चाहिए। एक अच्छी तरह संचालित कंपनी में मजबूत प्रक्रिया होनी चाहिए। जब हम देखते हैं कि कोई कंपनी संकट प्रबंधन और कई कई घंटों के काम में उलझी हुई है तो कुछ न कुछ गलत होता है।
किसी संगठन को तैयार करने के उत्साह में कुछ वर्षों तक लंबे समय तक काम किया जा सकता है। एक कमजोर कंपनी भी कुछ वर्षों तक अतिरिक्त मेहनत करके बनी रह सकती है। जब यह गहनता बरकरार नहीं रह पाती है तब उसका अंत हो जाता है। या फिर कमजोर कंपनी वास्तविक उत्पादकता की ओर बढ़ सकती है जहां वह टिकाऊ ढंग से काम कर सकती है।
इस बात पर विचार कीजिए कि एक व्यक्ति है जो लेखा, विधि और दवा तीनों का काम करता है। सप्ताह में 70 घंटे के काम से वह 35 घंटे प्रति सप्ताह के काम की तुलना में दोगुने पैसे कमाता है। यानी वह व्यक्ति दोगुने घंटों तक काम करके दोगुनी आय अर्जित कर सकता है। क्या यह बात पूरे देश पर लागू होती है यानी क्या हर व्यक्ति के दोगुनी मेहनत करने से जीडीपी दोगुना हो जाएगा?
ऐसे तर्क वास्तव में एक किस्म का भ्रम तैयार करते हैं। कल्पना कीजिए कि सभी लेखाकार सप्ताह में 35 घंटे काम करते हैं। अगर उनमें से कोई एक 70 घंटे काम करने लगे तो अन्य लेखाकारों को प्रति सप्ताह 35 घंटे का नुकसान होने लगेगा। भारत में दिक्कत यह है कि कमजोर वृद्धि ने श्रम बाजार में ठहराव उत्पन्न कर दिया है। हम 42 करोड़ श्रमिकों पर ठिठक गए हैं। हर व्यक्ति जो कोई कौशल सीखता है वह दूसरे का रोजगार छीनता है। पारंपरिक मानवतावादी परोपकारी सोच में यह बुनियादी खामी है।
क्या भारत को विकसित अर्थव्यवस्था बनाने में इन अतिरिक्त घंटों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है? अगर श्रम को दोगुना कर दिया जाए तो हमारे श्रमिकों की तादाद 41 करोड़ से सीधे 82 करोड़ हो जाएगी। अगर प्रति सप्ताह काम के घंटों को दोगुना कर दिया जाए तो कुल मिलाकर श्रम में चार गुना इजाफा हो जाएगा। पूंजी यानी मशीन कार्यालय और अधोसंरचना में भी चार गुना इजाफा करना होगा ताकि चार गुना श्रम के साथ तालमेल रखा जा सके। उदाहरण के लिए उस भारत में शेयर बाजार का बाजार पूंजीकरण भी मौजूदा से चार गुना होगा।
यह सब करना जादू की छड़ी घुमाने जैसा होगा। इतिहास में ऐसे मौके आए हैं जब तानाशाहों ने किसी देश पर क्रूर शासन थोपा है और उत्पादन में भारी इजाफा किया है। इस तमाम हलचल के साथ हम उत्पादन और जीडीपी को चार गुना बढ़ा सकेंगे। क्या ऐसा करके हम विकसित अर्थव्यवस्थाओं के समान प्रदर्शन कर सकेंगे? नहीं, ऐसा नहीं होगा। अमेरिका 70,248 डॉलर की प्रति व्यक्ति आय के साथ अग्रणी है जो भारत से 31.1 गुना ज्यादा है।
सबसे महती और वास्तविकता से दूर वह परिदृश्य है जहां कच्चे माल की मदद से देश के जीडीपी को चार गुना बढ़ाकर भी हम अमेरिका के आसपास नहीं पहुंच सकेंगे। जले पर नमक की बात करें तो फ्रांस के श्रम कानून कहते हैं कि एक सप्ताह में 35 घंटे से अधिक काम नहीं करना चाहिए। फ्रांस की प्रति व्यक्ति आय 43,458 डॉलर है यानी भारत से 19.33 गुना अधिक। चार गुना लाभ के बाद भी हम बहुत पीछे रह जाएंगे। विकसित देशों की तुलना में भारत बेहद गरीब है।
यहां सबक यह है कि भारत के हालात बदलने के लिए उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है, न कि केवल श्रम और पूंजी की उपलब्धता। भारत गरीब क्यों है? क्योंकि कंपनियों का संगठन खराब है और कच्चे माल को उत्पादन में बदलने की उनकी क्षमता कमजोर है। बेहतर कंपनियां बनाने के मामले में हमें कई सवालों से जूझना पड़ता है।
एक सवाल तो यही है कि आखिर संचालन, रणनीति और परिचालन में कौन से तरीके अपनाए जाएं ताकि भारतीय कंपनियां बेहतर नतीजे पेश कर सकें? उसके बाद हमें एक अन्य प्रश्न का उत्तर तलाश करना होगा कि आखिर क्यों मौजूदा भारतीय कंपनियों की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं है? इसका उत्तर राज्य के संस्थानों, कार्यशैली, विधि-विधान और राज्य के दबाव में निहित है। मैंने और विजय केलकर ने इस विषय पर एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है- ‘इन सर्विस ऑफ रिपब्लिक: द आर्ट ऐंड साइंस ऑफ इकनॉमिक पॉलिसी।’
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)