राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने मंगलवार को असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों का वार्षिक सर्वेक्षण जारी किया। आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि अक्टूबर 2023 से सितंबर 2024 के बीच ऐसे छोटे असंगठित उपक्रमों की तादाद में इससे पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 13 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे रोजगार से मिलने वाली नौकरियां भी बढ़ी हैं लेकिन इसकी दर काफी कम रही है। इसे एक अच्छे संकेत के रूप में पेश किया जा सकता है क्योंकि नौकरियों में कोई भी इजाफा स्वागतयोग्य है। परंतु समेकित स्तर पर देखें तो इसे पूरी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेतक मानना मुश्किल है। खासतौर पर प्रतिष्ठानों और नौकरियों में जो इजाफा हुआ उसका अधिकांश हिस्सा ‘ओन अकाउंट एंटरप्राइजेज’(ओएई) में हुआ जहां अनिवार्य रूप से एक व्यक्ति काम करता है या जो पारिवारिक दुकान होती है जहां बाहरी किसी व्यक्ति को काम पर नहीं रखा जाता है।
इस आंकड़े से कई सवाल पैदा होते हैं। पहला, इस बात में संदेह है कि यह अर्थव्यवस्था की वास्तविक वृद्धि दर्शाता है या नहीं। छोटे कारोबारों में से कई असंगठित बने हुए हैं। ये न केवल कर और नियामकीय प्राधिकारियों की नजर से ओझल हैं बल्कि वे बड़े पैमाने पर होने वाले ऐसे सर्वेक्षणों में भी सामने नहीं आ पाते।
विगत एक दशक में अर्थव्यवस्था निरंतर संगठित हुई है। इसमें वित्तीयकरण के साथ-साथ वस्तु एवं सेवा कर तथा अन्य ढांचागत बदलावों की अहम भूमिका रही है। ऐसे में यह संभव है कि जो वृद्धि नजर आ रही है वह केवल सांख्यिकीय गणना भर हो और इसी संगठित होने को दर्शा रही हो। ऐसी सांख्यिकीय संरचनाएं पहले भी देखी गई हैं। उदाहरण के लिए कर्मचारियों के लिए बनी सरकार की अल्प बचत योजनाओं में निवेश करने वालों की संख्या में हाल के दिनों में इजाफा हुआ है। यह रोजगार में वास्तविक इजाफा दर्शाता है या केवल मौजूदा रोजगार संगठित हुए हैं, यह बहस का विषय है।
एक अन्य तथा अधिक गहन प्रश्न यह है कि यदि इस तरह के रोजगार बढ़े भी हैं तो इसे स्वस्थ अर्थव्यवस्था का संकेत माना जाए या अस्वस्थ। जैसा कि इसी समाचार पत्र में विशेषज्ञों ने कहा, रोजगार पर केंद्रित सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि हाल के समय में शहरी रोजगार कम हुए हैं। काफी लंबे समय के बाद ऐसा देखने को मिला है। जबकि इस बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़े हैं। इससे संकेत मिलता है कि एक विकासशील अर्थव्यवस्था में रोजगार निर्माण और वृद्धि के इंजन को जिस तरह काम करना चाहिए, शायद भारत में वैसा नहीं हो रहा है।
दूसरे शब्दों में कहें तो लोगों को कृषि से बाहर कहीं अधिक उत्पादक क्षेत्रों में काम करना चाहिए। अगर ऐसा है तो इन ओएई की संख्या को अर्थव्यवस्था में सुधार या वृद्धि का परिचायक नहीं माना जाना चाहिए बल्कि यह तो ऐसी खराब स्थिति का परिचायक है जहां लोग अपनी दुकानें खोलने को विवश हैं। यह काफी लंबे समय से देश के जीडीपी में असंगठित क्षेत्र की सेवाओं के दबदबे की परिभाषा रही है कि ऐसे छोटे, सेवा आधारित प्रतिष्ठान उन लोगों को नौकरियां देते हैं जो नियमित रोजगार नहीं हासिल कर पाते लेकिन जिनके लिए कृषि में भी कोई जगह नहीं होती है।
इससे यह मजबूत संकेत निकलता है कि सरकार को मझोले और बड़े प्रतिष्ठानों की वृद्धि सुनिश्चित करने की जरूरत है और इस काम को प्राथमिकता पर किया जाना चाहिए। अच्छे और स्थिर रोजगार तभी हासिल हो सकते हैं जबकि ऐसे उपक्रमों का सामान्यीकरण किया जा सके। गैर निगमित क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को सही ढंग से बढ़ावा देने की आवश्यकता है। उन्हें नीतिगत सहजता के रूप में भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और प्रशासनिक माहौल को भी अनुकूल बनाया जाना चाहिए। ताकि वे अधिक से अधिक कर्मचारियों को नियमित रूप से काम पर रख सकें।