Delhi Hospital Fire: पूर्वी दिल्ली के एक अस्पताल में आग लगने से सात नवजात बच्चों की दर्दनाक मौत एक बार फिर इस बात की गहरी और दु:खद याद दिलाती है कि हमारे नियामक अधिकारियों का गैर जिम्मेदार रवैया संस्थागत रूप ले चुका है।
ऑक्सीजन सिलिंडरों के फटने से हुई इस दिल दहला देने वाली घटना के बाद यह पता चलता है कि इस अस्पताल में कुछ भी कानून-सम्मत नहीं था। जांच से यह खुलासा हुआ कि इस अस्पताल का लाइसेंस दो महीने पहले ही खत्म हो गया था, उसके पास प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मी नहीं थे, अग्नि सुरक्षा प्रमाणपत्र नहीं था और आग से बचाव के बुनियादी उपकरण या आग लगने पर बाहर निकलने का कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं था।
अगर 12 में से 5 नवजातों की जान बच गई तो यह उन अग्निशमन कर्मचारियों की तत्काल सूझबूझ नतीजा था जो पड़ोस की एक इमारत से सीढ़ी के जरिये पीछे की तरफ से खिड़की तोड़ते हुए बड़ी मुश्किल से बच्चों तक पहुंचे।
जांच में यह भी पता चला कि इस अस्पताल का संचालन करने वाले के स्वामित्व में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अस्पताल की तीन और शाखाएं भी हैं। इसके मालिकों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई चल रही है, लेकिन इससे इस तथ्य से नहीं बचा जा सकता कि इस आपदा ने भ्रष्टाचार, बेईमानी और लापरवाही के गठजोड़ को उजागर कर दिया है जो भारत में लोक सेवाओं की विशेषता बनती जा रही है।
पिछले दो साल में दिल्ली के 66 अस्पतालों में लगी आग
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक पिछले दो साल में दिल्ली के 66 अस्पतालों में आग लग चुकी है, जो यह दर्शाता है कि अग्नि सुरक्षा से जुड़े नियम-कायदों का किस कदर उल्लंघन किया जा रहा है।
देश की राजधानी में अगर अस्पतालों की यह हालत है तो बाकी जगह कैसी होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।
उदाहरण के लिए साल 2011 में दक्षिण कोलकाता के एक बड़े अस्पताल में आग लग जाने से 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी, और ज्यादातर मृत मरीज गहन देखभाल इकाई (ICU) में थे।
बेसमेंट में जमा होने वाले चिकित्सीय कचरे और रसायन की वजह से यह आग लगी थी। जिन लोगों की मौत हुई उन्हें सीढि़यों के जरिये बचाकर निकालना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि वे इतनी संकरी थीं जिनसे स्ट्रेचर नहीं ले जाया जा सकता था। यह साफ बताता है कि अग्नि सुरक्षा जांच प्रक्रिया में ढिलाई बरती गई थी।
एक ऐसे देश में जहां सरकार का स्वास्थ्य सेवा में निवेश अपर्याप्त है, जैसा कि कोविड-19 महामारी के डेल्टा चरण में तीन साल पहले दिख गया था, निजी क्षेत्र ही स्पष्ट रूप से इस अंतर को दूर करता दिख रहा है।
इसलिए निजी अस्पतालों, चिकित्सालयों और संबंधित केंद्रों पर इस मजबूरी की बढ़ती निर्भरता यह मांग करती है एक मजबूत, प्रभावी और भरोसेमंद नियामक ढांचा बनाया जाए ताकि इमारत संहिता से लेकर चिकित्सा देखभाल की गुणवत्ता तक के मामले में न्यूनतम सुरक्षा मानकों का पालन सुनिश्चित हो सके।
विडंबना यह है कि हर राज्य की कानून की किताबों में कठोर नियम-कायदे मौजूद हैं लेकिन तथ्य यह है कि अक्सर उनकी अनदेखी बिना किसी डर के की जाती है, जैसा कि नवीनतम त्रासदी ने दिखाया है। यह एक ऐसा मसला है जिस पर समूचे देश के प्रशासन को ध्यान आकृष्ट करना चाहिए।
इस तथ्य के बाद कि दोषी अधिकारियों को दंडित करने का डर सीमित असर कर रहा है, राजनेताओं को तत्काल एक मानक संचालन प्रक्रिया के रूप में मजबूत नियामक वातावरण स्थापित करने के लिए कठोर मेहनत करनी होगी।
ये बुनियादी मूल्य किसी राष्ट्र की सफलता को निर्धारित करने में उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जितने कि बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे पर खर्च और व्यापार सुगम बनाने जैसे ऊंचे लक्ष्य।
ऐसी घटनाएं, जैसे कि पश्चिम अफ्रीका और उज्बेकिस्तान में भारत में बने कफ सीरप के सेवन से बच्चों की मौत या दूषित आई ड्रॉप से अमेरिका में दृष्टिहीनता की खबरें, या प्रतिष्ठित कंपनियों के मसालों में विषाक्त तत्त्व पाया जाना, कारोबार के एक भरोसेमंद स्थान के रूप में भारत की छवि को चोट पहुंचा रहे हैं। निर्दोष बच्चों की मौत की कीमत पर यह संदेश रेखांकित हुआ है।