अजरबैजान की राजधानी बाकू में आगामी 11 से 22 नवंबर के बीच आयोजित होने जा रहे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (कॉप29) में जलवायु वित्त तथा इसके लिए राशि जुटाना वार्ताकारों के बीच प्रमुख विषय होगा।
विभिन्न देश, खासकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देश जलवायु वित्त के मामले में करीब 800 अरब डॉलर की कमी का सामना कर रहे हैं और महामारी के कारण सार्वजनिक फंडिंग में भारी कमी आई है।
ऐसे में नीति निर्माता और जलवायु कार्यकर्ता शिद्दत से ऐसे तरीके तलाश कर रहे हैं जिससे निजी क्षेत्र की फंडिंग जुटाई जा सके। यह बात और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि यह माना जा रहा है कि विकासशील देश, जो इस वित्त के मुख्य लाभार्थी होंगे (क्योंकि उनका विकास जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है) और उन्हें 2030 तक 5.9 लाख करोड़ डॉलर की आवश्यकता होगी।
बहरहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि निजी वित्त इस भारी-भरकम राशि के बड़े हिस्से की भरपाई करने में शीर्ष भूमिका निभा भी पाएगा या नहीं। अब तक की बात करें तो जलवायु वित्त में निजी क्षेत्र की भागीदारी देखकर ऐसा नहीं लगता है कि हरित और ईएसजी फंड में इजाफा होने के बावजूद वर्तमान हालात में कुछ खास परिवर्तन आएगा।
वर्ष 2022 तक जलवायु वित्त के क्षेत्र में जो भी फंड जुटाए गए उनमें निजी क्षेत्र की भागीदारी करीब 20 फीसदी रही। फंडिंग के इस स्रोत को बढ़ावा देने के लिए कई मोर्चों पर मौजूद चुनौतियों से निपटना होगा। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की फंडिंग का अब तक का रुझान यही बताता है कि विकासशील देशों की जोखिम अवधारणाएं और आर्थिक एवं निवेश नीतियों की दक्षता, निजी निवेशकों के निर्णयों में अहम भूमिका निभाएगा।
जलवायु वित्त के क्षेत्र में निजी पूंजी का बड़ा हिस्सा यानी करीब 81 फीसदी हिस्सा जलवायु परिवर्तन को रोकने पर केंद्रित था। जलवायु परिवर्तन को अपनाने के क्षेत्र में 11 फीसदी राशि दी गई। यह विडंबना ही है कि इसका अधिकांश हिस्सा विकसित देशों को गया। महत्त्वपूर्ण बात है कि निजी क्षेत्र से आने वाली 85 फीसदी पूंजी सबसे कम जोखिम प्रोफाइल वाले विकासशील देशों पर केंद्रित रही।
कम आय वाले देश जहां इस पूंजी की जरूरत अधिक थी उन्हें केवल 15 फीसदी राशि मिली। कुछ विश्लेषकों के अनुसार मुद्दे की मूल वजह है निवेश के लिए तैयार परियोजनाओं की कमी। परंतु इस परियोजना पाइपलाइन को तैयार करने में सरकारी और बहुराष्ट्रीय संस्थानों के समर्थन की अहम भूमिका होगी जिनकी मदद से जोखिम कम किया जा सकेगा और प्रतिफल और निर्गम पर नजर रखी जा सकेगी।
उदाहरण के लिए भारत जैसे देशों में यह कवायद दिक्कतदेह बन जाती है क्योंकि बिजली की कीमतें तय करने के मॉडल में दीर्घकालिक ढांचागत कमियां हैं और नवीकरणीय ऊर्जा के वितरण एवं पारेषण के साथ तकनीकी दिक्कतें जुड़ी हुई हैं।
बिजली के क्षेत्र में राजनीतिक कारणों से प्रेरित सब्सिडी के चलते भी राष्ट्रीय ग्रिड से जुड़ी हरित ऊर्जा उत्पादन परियोजनाओं का लाभ समय पर नहीं मिल रहा है। आंकड़ों की कमी और अविकसित वित्तीय बाजार भी निजी क्षेत्र के निवेश को बाधित करते हैं।
अगर जलवायु नियंत्रण से संबंधित परियोजनाएं मसलन हरित ऊर्जा की दिशा में बदलाव की राह में इतनी चुनौतियां हैं तो जलवायु परिवर्तन को अपनाने के क्षेत्र में निजी निवेश जुटाना और कठिन होगा। पुनर्वनीकरण, जल संरक्षण या चक्रवात और तूफानों की अग्रिम चेतावनी जैसी गैर वाणिज्यिक परियोजनाओं के क्षेत्र में निजी पूंजी के आने की कल्पना करना थोड़ा मुश्किल काम है।
लब्बोलुआब यह है कि जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी निवेश जुटाने की तमाम कोशिशों के बीच सरकारी और बहुपक्षीय पूंजी की आवक जारी रखनी होगी। मुख्य भूमिका उनकी ही होगी जबकि निजी क्षेत्र की फंडिंग पूरक भूमिका में होगी। परंतु इस राशि को जुटाने के लिए भी प्राप्तकर्ता देशों को अपनी राज्य क्षमता मजबूत करनी होगी। परियोजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ानी होगी। इन बुनियादी सुधारों के बिना निजी पूंजी जुटाना मुश्किल बना रहेगा।