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संपादकीय: भारत में विदेशी फंडिंग

भारत को निरंतर अपने कारोबारी माहौल में सुधार करने की आवश्यकता है ताकि वह अपनी वृद्धि के लिए टिकाऊ विदेशी बचत हासिल कर सके।

Last Updated- November 12, 2024 | 9:09 PM IST
FDI inflow

भारत को टिकाऊ स्तर पर उच्च निवेश की आवश्यकता है ताकि वह लंबी अवधि तक ऊंची वृद्धि दर हासिल कर सके। देश विकास के जिस चरण में है, वहां हमारी घरेलू बचत वृद्धि की सहायता कर पाने की दृष्टि से अपर्याप्त है। ऐसे में शेष विश्व से पूंजी जुटाने की आवश्यकता है। भारत में आने वाली विदेशी पूंजी कई रूपों में और कई लक्ष्यों के साथ आती है।

उदाहरण के लिए कुछ विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (FPI) शायद केवल भारत और अपने गृह देश (मान लेते हैं अमेरिका) के बीच ब्याज दरों के अंतर का लाभ उठाने के लिए आते हों। ऐसे निवेश अल्पकालिक प्रकृति के हो सकते हैं और बहुत जल्दी वापस चले जाते हैं।

विदेशी निवेश की सबसे स्थिर किस्म वह है जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) कहा जाता है। यहां निवेशक, जो अक्सर एक बड़ा बहुराष्ट्रीय कारोबारी घराना होता है, वह दीर्घकालिक उद्देश्य के साथ भारी भरकम पूंजी निवेश करता है। यह निवेश अक्सर स्वतंत्र कारोबार के रूप में या किसी भारतीय साझेदार के साथ मिलकर किया जाता है।

पूंजी के अलावा ऐसे निवेशक बेहतरीन प्रबंधन व्यवहार और प्रौद्योगिकी भी लाते हैं जिसका अर्थव्यवस्था पर कहीं अधिक व्यापक असर होता है। ऐसे में वृहद आर्थिक नीति के दृष्टिकोण से एफडीआई को पूंजी आयात के कहीं अधिक प्राथमिकता वाले तरीके के रूप में देखा जाता है।

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) के साथ मशविरा करके सोमवार को दिशानिर्देश जारी किए और कहा कि उन एफपीआई को एफडीआई के रूप में नए सिरे से वर्गीकृत किया जाएगा जहां व्यक्तिगत कंपनियों की होल्डिंग तय सीमा से अधिक होगी।

विदेशी विनिमय प्रबंधन अधिनियम (FEMA) के तहत एफपीआई किसी कंपनी की चुकता पूंजी के 10 फीसदी तक की राशि रख सकते हैं। अगर कोई एफपीआई इस सीमा का उल्लंघन करता है तो अपेक्षा की जाती है कि वह अतिरिक्त होल्डिंग को छोड़ेगी या नए दिशानिर्देशों के अनुसार एफडीआई के रूप में दोबारा वर्गीकृत होगी। एक बार पुनवर्गीकरण होने के बाद अगर होल्डिंग 10 फीसदी से नीचे भी आ जाती है तो भी वह एफडीआई बना रहेगा।

बहरहाल, यह बदलाव स्वत: नहीं होगा। एफपीआई को सरकार से जरूरी मंजूरी लेनी होगी और निवेश करने वाली कंपनी की सहमति भी। इससे अन्य शर्तों मसलन कुछ क्षेत्रों में एफडीआई की सीमा आदि को पूरा करने में सुविधा होगी। पुनर्वर्गीकरण सीमावर्ती देशों से होने वाले निवेश जैसी शर्तों के भी अधीन होगा।
पुनर्वगीकरण का विकल्प पोर्टफोलियो निवेशकों को किसी खास कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने और विदेशी निवेश में इजाफा करने में भी मदद करेगा।

बहरहाल, यह जानने की जरूरत है कि एफपीआई जरूरी वित्तीय निवेशक हैं और उन्हें एफडीआई की सामान्य समझ में नहीं शामिल किया जा सकता है। कुछ पीएफआई लंबे समय तक निवेश किए रहना चाहते हैं लेकिन वे परिसंपत्ति प्रबंधन में विशेषज्ञता वाले वित्तीय निवेशक बने रहते हैं। नीतिगत नजरिये से देखें तो ऐसा पुनर्वगीकरण एफडीआई की आवक में छद्म इजाफा दिखा सकता है। इससे पूंजी तेजी से बाहर भी जा सकती है।

नीतिगत बदलाव कुछ कंपनियों को नियामकीय शर्तों के अधीन आसानी से विदेशी इक्विटी पूंजी जुटाने में मदद कर सकते हैं, वहीं पुनर्वर्गीकरण के कारण एफडीआई की तादाद बढ़ सकती है और पूरी समझ में उलझाव उत्पन्न हो सकता है।

एक बेहतर तरीका यह होता कि संसद पर दबाव बनाया जाता कि वह फेमा में जरूरी संशोधन करे तथा पोर्टफोलियो निवेशकों के लिए कुछ गुंजाइश बनाए ताकि वे भारतीय कंपनियों में अपनी होल्डिंग बढ़ा सकें। ऐसा निवेश में स्थिरता की शर्त के साथ किया जा सकता है। यकीनन भारत को अधिक एफडीआई की जरूरत है और हाल के वर्षों में इसकी आवक में सुधार भी हुआ है।

बहरहाल, विनिवेश और प्रत्यावर्तन को लेकर चिंताएं रही हैं जो हाल के वर्षों में बढ़ी हैं। भारत को निरंतर अपने कारोबारी माहौल में सुधार करने की आवश्यकता है ताकि वह अपनी वृद्धि के लिए टिकाऊ विदेशी बचत हासिल कर सके।

First Published - November 12, 2024 | 9:09 PM IST

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