उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर जून में घटकर 2.1 फीसदी रह गई। यह दर भारतीय रिजर्व बैंक के 4 फीसदी के लक्षित दायरे से उल्लेखनीय रूप से नीचे है। मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का अनुमान लगाते हुए मौद्रिक नीति समिति यानी एमपीसी ने अपनी जून बैठक में अग्रिम नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए नीतिगत रीपो दर को 50 आधार अंक कम करके 5.5 फीसदी कर दिया था। कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि मुद्रास्फीति की दर आने वाले महीनों में नरम बनी रहेगी और वे इस बात को लेकर बहस कर रहे हैं कि क्या एमपीसी को भविष्य में नीतिगत दरों में कमी करनी चाहिए? नीतिगत नजरिये से देखें तो यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि अर्थशास्त्री और पेशेवर अनुमान लगाने वाले क्या सोचते हैं लेकिन केंद्रीय बैंकर घरेलू मुद्रास्फीति संबंधी अनुमानों को लेकर भी सचेत रहते हैं। रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों की ओर से प्रकाशित एक नए शोध प्रपत्र में परिवारों के मुद्रास्फीति संबंधी अनुमानों और उभरते रुझानों पर ध्यान दिया गया है। इसके कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
अब यह ज्ञात तथ्य है कि अपेक्षाएं आर्थिक परिणामों पर असर डालती हैं। ऐसे में केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति के प्रबंधन पर भी बहुत अधिक ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए अगर मुद्रास्फीति के अनुमानों का सही प्रबंधन नहीं किया गया तो मुद्रास्फीति की दर में इजाफा और आसानी से सामान्यीकृत हो सकता है। इससे केंद्रीय बैंक का काम और कठिन हो जाएगा। उच्च नीतिगत दरों के कारण उत्पादन में गिरावट आ सकती है। ऐसे में अनुमानों का प्रबंधन कीमतों को टिकाऊ रखने की दृष्टि से अहम है। जैसा कि प्रपत्र कहता है, पेशेवर अनुमान लगाने वालों के उलट परिवारों की मुद्रास्फीति की अपेक्षाएं अनुभव जनित होती हैं और उतारचढ़ाव को लेकर शंकालु भी। महत्त्वपूर्ण बात है कि अध्ययन, जिसने रिजर्व बैंक के परिवारों के मुद्रास्फीति पूर्वानुमानों के आंकड़े इस्तेमाल किए हैं, उसने 2014 के उच्चतम स्तर से मुद्रास्फीति अपेक्षाओं में गिरावट दर्ज की। मुद्रास्फीति को लक्षित करने की लचीली व्यवस्था (एफआईटी), नीतिगत हस्तक्षेप और वैश्विक दबावों में कमी ने भी इसमें मदद की।
मुद्रास्फीति संबंधी अपेक्षाओं में कमी संकेत देती है कि परिवारों के स्तर पर नियम आधारित नीतिगत प्रणाली को लेकर अधिक सहजता है। चूंकि लक्ष्य के बारे में सभी जानते हैं और अगर परिवारों के स्तर पर यह माना जाता है कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति के परिणामों के साथ सुसंगत बनाने के लिए काम करेगा तो इससे कीमतों को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलेगी। अध्ययन यह भी दिखाता है कि पूर्वानुमान समग्र मुद्रास्फीति से अधिक सुसंगत हैं बजाय कि खाद्य मुद्रास्फीति के। हालांकि, व्यापक खाद्य मुद्रास्फीति के दौरान उम्मीदें ऊंची बनी रहती हैं। दिलचस्प बात यह है कि महिलाओं को लगातार वृद्धि का रुझान नहीं दिखता। यद्यपि, 45 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों की इस मामले में प्रत्याशा अधिक होती हैं, जो उनके अनुभव को दर्शाता है।
नीतिगत नजरिये से देखें तो प्रपत्र कुछ अहम निष्कर्ष पेश करता है। जैसा कि हमने ऊपर बताया, एफआईटी में बदलाव ने अनुमानों पर सकारात्मक असर डाला है। बहरहाल, सरकार की ओर से आपूर्ति क्षेत्र के हस्तक्षेप ने भी इसमें मदद की है। उदाहरण के लिए निर्यात पर प्रतिबंध। हालांकि ऐसे कदमों ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद की है लेकिन उत्पादकों को इनकी कीमत भी चुकानी पड़ी है। इसके अलावा ऊंची मुद्रास्फीति के दौर में खाद्य मुद्रास्फीति में इजाफा भी अनुमानों को ऊंचे स्तर पर रख सकता है। यह भी दर्शाता है कि खपत बास्केट में खाद्य वस्तुओं की उच्च हिस्सेदारी है। अध्ययन के अनुसार, परिणाम दिखाते हैं कि अनुमानों के प्रबंधन और कल्याण में सुधार के लिए शीर्ष मुद्रास्फीति को लक्षित करना महत्त्वपूर्ण है। एफआईटी को अपनाने के बाद से ही लक्ष्य को लेकर उल्लेखनीय बहस होती रही है। कई अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि चूंकि मौद्रिक नीति का खाद्य कीमतों पर सीमित प्रभाव होता है इसलिए रिजर्व बैंक को समग्र मुद्रास्फीति को लक्षित करना चाहिए। हालांकि, परिवारों के स्तर पर समग्र दर को ही देखा जाता है और यदि इस दर से एक महत्त्वपूर्ण घटक हटा दिया जाए तो इससे नीति-निर्माण और अपेक्षाओं पर प्रभाव पड़ सकता है, जिसका असर कुल मूल्य स्थिरता और दीर्घकालिक विकास पर भी हो सकता है।