सरकार ने गत सप्ताह घरेलू खपत व्यय सर्वेक्षण के कुछ नतीजे जारी किए। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के बीच 2.60 लाख परिवारों में खपत को लेकर एक व्यापक सर्वेक्षण किया। बीते एक दशक में यह पहला ऐसा सर्वेक्षण है जिसके नतीजे सार्वजनिक किए गए हैं। हालांकि 2017-18 में भी ऐसा सर्वेक्षण किया गया था लेकिन आंकड़ों की गुणवत्ता संबंधी समस्या के कारण आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। एक दशक पुराने आंकड़ों के साथ तुलना ने कुछ सुर्खियां बटोरीं।
उदाहरण के लिए खाद्य में ग्रामीण परिवारों के व्यय का अनुपात 2011-12 के 53 फीसदी से कम होकर 2022-23 में 46 फीसदी हो गया। इस अनुपात पर सरकार की ओर से बढ़े हुए अनाज आवंटन का सटीक प्रभाव नहीं जाना जा सकता है इसलिए इस आंकड़े से कोई नीति संबंधी निष्कर्ष निकालना असुरक्षित ही माना जाएगा।
इससे भी दिलचस्प यह है कि ग्रामीण परिवारों की खपत के व्यय में 40 फीसदी का इजाफा हुआ और शहरी परिवारों में एक तिहाई। ये ठोस आंकड़े हैं लेकिन यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि खपत में सामान्य वृद्धि, सकल घरेलू उत्पाद में नॉमिनल वृद्धि से उल्लेखनीय रूप से कम है। इससे सवाल पैदा होते हैं: क्या भारत सरकारी निवेश या सरकार समर्थित वृद्धि का रुख कर रहा है जबकि पारिवारिक व्ययों में कमी की जा रही है?
राष्ट्रीय खातों के मुताबिक प्रति व्यक्ति निजी खपत व्यय, खपत सर्वेक्षणों से निकली राशि से करीब दोगुना है। यह अंतर अस्वाभाविक नहीं है लेकिन इसकी मदद से इस वृहद आर्थिक प्रश्न को हल नहीं किया जा सकता है कि खपत को अभी भी भारतीय वृद्धि के वाहक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है अथवा नहीं।
सामान्य तौर पर सर्वेक्षण के पिछले संस्करण के आंकड़ों के साथ तुलना करने से बचा जाना चाहिए क्योंकि दोनों सर्वेक्षणों की प्रविधि में काफी अंतर रहा है। पिछले दौर में कम वस्तुओं के व्यय से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे जबकि नए संस्करण में परिवारों के साक्षात्कार के लिए डिजिटल तरीका अपनाया गया और अधिक वस्तुओं पर व्यय को शामिल किया गया।
इस सर्वेक्षण के आंकड़ों की तुलना एक दशक पहले के आंकड़ों से करना शायद समझदारी भरा और आसान न हो किंतु इस दौर के सर्वेक्षण के आंकड़ों का बारीकी से अध्ययन किया जाएगा। उदाहरण के लिए व्यय में असमानता के कुछ परेशान करने वाले परिणाम सामने आए हैं।
खपत व्यय के हिसाब से देश की आबादी का निचला पांच प्रतिशत हिस्सा, शीर्ष पांच प्रतिशत हिस्से की तुलना में केवल दसवां भाग व्यय करता है। कुल वितरण में भी असमानता है। खपत व्यय के मामले में राज्यों का भौगोलिक अंतर भी चिह्नित किया गया है। सर्वेक्षण को कोविड के बाद उस समय अंजाम दिया गया जब खपत व्यय में इजाफा हो रहा था।
यही वजह है कि कुछ विश्लेषकों ने कहा है कि इन निष्कर्षों को सावधानी के साथ देखना चाहिए। सरकार को इससे यही सबक लेना चाहिए कि इन सर्वेक्षणों को नियमित रूप से अंजाम दिया जाना चाहिए ताकि बेहतर नीति बन सके।
इस प्रकार के सर्वेक्षणों की आवृत्ति बढ़ाने की आवश्यकता है। खपत के तरीके भी तेजी से बदल रहे हैं और नीति निर्माताओं को सही निर्णय लेने के लिए तेज और सही आंकड़ों की आवश्यकता है। खपत सर्वेक्षणों का इस्तेमाल उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में शामिल वस्तुओं को नए सिरे से तय करने के लिए भी किया जाता है।
अगला उचित कदम होगा इस सूचकांक को उन्नत बनाना ताकि मौद्रिक नीति को बेहतर बनाया जा सके। इसके अलावा खपत रुझान में बदलाव यह बताता है कि खाद्य बास्केट के भीतर भी परिवारों का अनाज पर व्यय कम हो रहा है।
खपत बास्केट में बदलाव उत्पादकों के लिए एक संकेत है। गारंटी वाला समर्थन मूल्य मांगने के बजाय किसानों को उन वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां उपभोक्ता व्यय बढ़ रहा है।