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Editorial: वृहद आर्थिक स्थिरता का लाभ

Macroeconomic stability: रिजर्व बैंक ने कुछ अन्य बातों के अलावा घोषणा की थी कि वह विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा करेगा।

Last Updated- February 11, 2024 | 9:45 PM IST
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इसमें दो राय नहीं कि 2013-14 में भारत की अर्थव्यवस्था मुश्किल हालात से दो-चार थी। वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम वर्ष था और तब से अब तक हालात में सुधार हुए हैं। ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा गत सप्ताह प्रस्तुत श्वेत पत्र की बहुत सीमित नीतिगत प्रासंगिकता है। 

भारत की समस्याएं उस समय सामने आ गई थीं जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने वर्षों की क्वांटिटेटिव ईजिंग के बाद मौद्रिक सहजता कम करने के संकेत दिए थे। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद राजकोषीय घाटे में महत्त्वपूर्ण इजाफा हुआ था और मुद्रास्फीति तथा चालू खाते के घाटे में इजाफा हुआ था। 

वर्ष 2012-13 में चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 5 फीसदी के करीब था। इसके अलावा वृद्धि को गति प्रदान करने की कोशिश में बैंकों को ऋण देने के लिए प्रोत्साहित किया गया। अक्सर ऐसी परियोजनाओं को ऋण देने को कहा गया जो टिकाऊ नहीं थीं। इसके परिणामस्वरूप फंसे हुए कर्ज में इजाफा हुआ जिसे बाद के वर्षों में चिह्नित किया गया।

इस बीच तत्कालीन सरकार भ्रष्टाचार तथा कई घोटालों के आरोपों में घिर गई। मिसाल के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय ने 2012 में 122 दूरसंचार लाइसेंस निरस्त कर दिए। उस फैसले को लेकर अभी भी बहस होती है लेकिन इससे उस दौर के राजनीतिक और कारोबारी माहौल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 

चौतरफा समस्याओं से घिरी गठबंधन सरकार कड़े निर्णय नहीं ले सकी। यद्यपि 2012 में वित्त मंत्री बदलकर हालात को संभालने की कोशिश अवश्य की गई लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने संकेत दिया कि वह बॉन्ड खरीद कम करेगा। इससे वैश्विक वित्तीय बाजारों में अफरातफरी का माहौल बन गया। इसके चलते भारत लगभग मुद्रा संकट के कगार पर पहुंच गया। सितंबर 

2013 में भारतीय रिजर्व बैंक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद हालात में सुधार शुरू हुए। रिजर्व बैंक ने कुछ अन्य बातों के अलावा घोषणा की थी कि वह विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा करेगा। उसने अनिवासी भारतीयों से ऋण के जरिये ऐसा करने के साथ-साथ यह भी कहा कि मौद्रिक नीति ढांचे को दुरुस्त कर मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जाएगा। बैंक ने ऋण की वसूली में भी सुधार करने की बात कही।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने वृहद आर्थिक स्थिरता को मजबूत करने को प्राथमिकता दी। राजकोषीय स्थिति को मजबूत बनाने के अलावा उसने दो अहम निर्णय लिए। पहला, मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने की लचीली व्यवस्था से मूल्य स्थिरता को लेकर नीतिगत प्रतिबद्धता का मजबूत संदेश गया। दूसरा, ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) ने शक्ति संतुलन को लेनदारों के पक्ष में कर दिया। 

पहली बार, बड़ी कंपनियों के प्रवर्तकों को भी नियंत्रण गंवाने का डर सताने लगा। निश्चित तौर पर आईबीसी अभी सुधार की प्रक्रिया में है क्योंकि वह दिवालिया मामलों के निपटान में बहुत समय लगाती है। बहरहाल, इससे ऋण संस्कृति में सुधार हुआ है और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में उल्लेखनीय पूंजी डालने से दोहरी बैलेंस शीट के घाटे को दूर करने में मदद मिली है। राजग सरकार ने भी कई तरह के सुधारों को अंजाम दिया है ताकि कारोबारी सुगमता बढ़ाई जा सके।

महत्त्वपूर्ण बात है कि रिजर्व बैंक ने मुद्रा और विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन को लेकर जो उपाय किए उनसे वृहद आर्थिक स्थिरता को मजबूत बनाने में मदद मिली। बीते एक दशक में वृहद आर्थिक मोर्चे पर सुधार के बावजूद उच्च टिकाऊ वृद्धि के लिए निरंतर नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए महामारी के कारण भारत का सरकारी व्यय और सामान्य सरकारी घाटा ऊंचे स्तर पर बना हुआ है। 

भारत को अपने कर-जीडीपी अनुपात में सुधार करने में मदद मिली है और वस्तु एवं सेवा कर लागू होने के बावजूद अभी सुधार की प्रक्रिया में है। संक्षेप में कहें तो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का आकार बड़ा होने के कारण जहां कड़े निर्णय लेना मुश्किल था, वहीं राजनीतिक रूप से स्थिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सलाह-मशविरे वाले रुख से लाभ पहुंच सकता था। भूमि अधिग्रहण और कृषि सुधार के क्षेत्र में ऐसा हो सकता था। व्यापार को लेकर पेशेवर मशविरा उच्च टैरिफ वाली नीति से दूर रहने में मददगार हो सकता था।

First Published - February 11, 2024 | 9:45 PM IST

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