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Editorial: नए जातीय समीकरण

मंडल आयोग और आर्थिक उदारीकरण: पिछड़े वर्गों के लिए क्या बदलाव?

Last Updated- October 03, 2023 | 10:06 PM IST
Census

विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा अगस्त 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने (जिसकी वजह से अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को आरक्षण में हिस्सेदारी मिली) की घोषणा के 11 महीने बाद पी वी नरसिंह राव सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की दिशा में शुरुआती कदम बढ़ाए। निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़े और सामाजिक और आर्थिक तरक्की के लिए सरकारी नौकरियां ही प्राथमिक वाहक नहीं रहीं।

निश्चित रूप से आर्थिक उदारीकरण ने सरकार का राजस्व बढ़ाने में मदद की। उसने केंद्रीय और राज्य सरकारों को समाज कल्याण के लिए और अधिक धन मुहैया कराया। उदाहरण के लिए मौजूदा सरकार का कहना है कि उसकी कई कल्याण योजनाएं मसलन मुद्रा योजना के लाभार्थी अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित और महिलाएं हैं। आर्थिक उदारीकरण ने अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के लोगों के लिए कौशल आधारित रोजगार भी तैयार किए हैं।

मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद पूर्व समाजवादी पार्टियों के विभिन्न अवतारों में शीर्ष पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग के नेताओं की उपस्थिति बढ़ी। भारतीय जनता पार्टी ने बदलाव को अपनाने में कांग्रेस की तुलना में अधिक तेजी दिखाई। मंडल ने उत्तर और पश्चिम भारत की राजनीति को बदल दिया। दक्षिण भारत के राज्य यह प्रक्रिया सन 1960 के दशक से ही देख रहे थे।

बहरहाल, मंडल आयोग से मुख्य रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग की रसूखदार जातियां लाभान्वित हुईं। देश की शिक्षा व्यवस्था की खस्ता हालत का अर्थ यह था कि इन जातियों में भी जो लोग हाशिये पर थे उन्हें आर्थिक उदारीकरण के लाभों को हासिल करने लायक कौशल हासिल नहीं हो सका। इस बीच अन्य पिछड़ा वर्ग में राज्य और केंद्र की सूचियों में 1990 के बाद से काफी इजाफा हुआ है।

हाल के वर्षों में मराठा जैसी कई जातियां इस सूची में शामिल होने के लिए सड़कों पर उतरीं। सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाले नेताओं ने मांग की है कि आरक्षण को निजी क्षेत्र में भी लागू किया जाना चाहिए या फिर यह भी कि अब वक्त आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण के लिए तय 50 फीसदी की सीमा को भंग किया जाए।

बल्कि 2017 में केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति जी रोहिणी आयोग का गठन किया ताकि आरक्षण के फॉर्मूले को नए तरीके से परखा जा सके और उसने अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों की उप श्रेणियां बनाने की अनुशंसा की। परंतु पिछड़ा वर्ग की आबादी के विश्वसनीय आंकड़े नहीं होने के कारण नीतिगत निर्णय प्रभावित हुए।

आखिरी जाति जनगणना सन 1931 की जनगणना में हुई थी। मंडल आयोग ने उस आंकड़े के आधार पर अनुमान लगाया था कि देश में पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 52 फीसदी होगी। बिहार में हुआ जाति सर्वेक्षण उस कमी को दूर करता है। संभावना यही है कि अन्य राज्यों में भी इसका अनुकरण किया जाएगा या फिर जाति जनगणना ही होगी।

बिहार जाति सर्वेक्षण से पता चला है कि वहां की आबादी में पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 63 फीसदी है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अति पिछड़ा वर्ग, दर्जनों बंटी हुई छोटी जातियां 36 फीसदी हैं। पिछड़ा वर्ग में 12.9 फीसदी मुस्लिम हैं। 15.52 फीसदी सामान्य आबादी में 4.8 फीसदी मुस्लिम हैं।

राजनीतिक तौर पर इस बात का जोखिम है कि जाति गणना में समस्या से और अधिक ध्रुवीकरण हो सकता है तथा इसके दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं। बहरहाल, समय के साथ जैसा कि मंडल राजनीति ने दिखाया भी भाजपा और कांग्रेस समेत सभी दलों को अपनी राजनीतिक रणनीति को नए परिदृश्य के मुताबिक बदलना होगा।

इस संदर्भ में जाति आधारित कोटा पर 50 फीसदी की सीमा को लेकर निश्चित रूप से विवाद होगा। जिन जातियों को मंडल आयोग का लाभ नहीं मिला वे अपनी हिस्सेदारी मांगेंगी। परंतु जैसा कि भारतीय इतिहास बताता है वास्तविक प्रगति तेज आर्थिक वृद्धि और शिक्षा एवं तकनीक में निवेश के जरिये ही हो सकती है ताकि जनांकिकीय लाभ हासिल किया जा सके।

राजनीतिक वर्ग को केवल आरक्षण के माध्यम से सशक्तीकरण पर ध्यान नहीं देना चाहिए। पिछड़ा वर्ग का वास्तविक सशक्तीकरण केवल तभी होगा जब राज्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और लाभप्रद रोजगार दिला सकेगा। जाति सर्वेक्षण या अधिक आरक्षण अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं हो सकते।

First Published - October 3, 2023 | 9:58 PM IST

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