राजनीतिज्ञ चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए करदाताओं की रकम का इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे भारत में कम करों वाला ढांचा तैयार करने में कठिनाई आ रही है। बता रहे हैं आर जगन्नाथन
मॉर्गन स्टैनली की एक रिपोर्ट में पिछले एक दशक में भारत में आए 10 बड़े बदलावों का जिक्र किया गया है। इनमें नौ बदलाव नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में हुए हैं। इन बदलावों में भारतीय अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण, रियल एस्टेट क्षेत्र के नियमन में सुधार, जन कल्याण योजनाओं के तहत रकम का सफलतापूर्वक अंतरण, आपूर्ति पक्ष में सुधार, दिवालिया संहिता, महंगाई दर के लक्ष्यीकरण में लचीला रुख, सेवानिवृत्ति की बाद की अवधि के लिए बचत को लेकर लोगों का अधिक गंभीर होना और निगमित करों (कॉर्पोरेट टैक्स) में कमी शामिल हैं।
ये सभी बदलाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब डिजिटल तकनीक एवं आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बढ़ रहा है।
मगर इन बदलावों के बीच राजनीतिज्ञों की मानसिकता नहीं बदली है और यह जस की तस है। वामपंथी-उदार विचारधारा रखने वाले लोग एक ऐसी विचारधारा के पक्षधर हैं जो सरकार की अधिक भूमिका देखना चाहते हैं। यह विचारधारा या सोच आम तौर पर राजनीतिज्ञों को रास आती है।
जिन बदलावों की चर्चा ऊपर की गई है वे ऐसे हैं जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपेक्षित परिणाम नहीं देंगे। हमारे देश में अक्सर चुनाव होते रहते हैं और राजनीतिक सोच दीर्घावधि के बजाय लघु अवधि तक सीमित रह जाती है। यह हाल तब है जब देश में लगभग पिछले 20 वर्षों से (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के 10 वर्ष और मोदी सरकार के लगभग 10 वर्ष) राजनीतिक स्थिरता रही है।
राज्यों में भी कई दल कई कार्यकालों से सत्ता में हैं मगर यह राजनीतिक स्थिरता राजकोषीय स्तर पर अस्थिर करने वाली है। राजनीतिज्ञ करदाताओं के पैसे से अपने चुनाव एवं उपचुनाव के लिए आवश्यक संसाधन जुटा रहे हैं। यहां तक कि राजकोषीय दृष्टिकोण से उदार नहीं समझे जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी भी समझ रहे हैं कि चुनावी ‘रेवड़ी’ के बिना बात बनने वाली नहीं है।
एक ओर जहां केंद्र पर रोजगार रहित वृद्धि दर के आरोप लगातार लगाए जा रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री विभिन्न राज्यों में सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों की पेशकश कर रहे हैं। यह समझने की आवश्यकता है कि केंद्र एवं राज्यों को सरकारी नौकरियों में विस्तार समस्या का हल नहीं है।
मॉर्गन स्टैनली की रिपोर्ट में 10 सकारात्मक बदलाव उत्साह बढ़ाने वाले अवश्य हैं मगर सफलताओं के साथ कुछ चुनौतियां भी पेश आती हैं। उदाहरण के लिए अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण से श्रम बाजार अधिक हुनर और कम हुनर वाले क्षेत्रों में बंट रहा है।
डिजिटलीकरण के कुछ लाभ भी हैं। इससे कर संग्रह में तेजी आती है, कारोबार सुगमता बढ़ती है और सरकारी राहत गलत लोगों तक पहुंचने से रोकने से मदद मिलती है। मगर इससे रोजगार के अवसर सृजित करने वाले अनौपचारिक के उभार की गति भी सुस्त होती है।
रोजगार के मोर्चे पर राजनीतिक सोच बदलने की आवश्यकता है। सरकार के समक्ष लोगों के लिए उद्यमशीलता-छोटे एवं बड़े स्तरों पर-के जरिये रोजगार सृजित करने की चुनौती है। मुद्रा योजना से कुछ हद तक इस दिशा में मदद जरूर मिली मगर जीविकोपार्जन के अवसर के विस्तार के लिए राज्य को लोगों के जीवन में हस्तक्षेप कम करना होगा।
राज्य का आकार बड़ा होता है तो इससे आर्थिक गतिविधियों में गतिरोध पैदा हो जाता है और लोगों पर अधिक कर लादने का सिलसिला शुरू हो जाता है। इसका एक और उदाहरण कल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत मिलने वाले रकम की धांधली में कमी है। जिससे राजनीतिज्ञों के लिए ‘रेवड़ियों’ का वादा करना और इन्हें बांटना आसान हो जाता है।
पहले मतदाताओं को राजनीतिक दलों द्वारा किए वादों पर भरोसा नहीं होता था (क्योंकि धांधली पहले बहुत होती थी) मगर अब वे जानते हैं कि राजनीतिज्ञ वादे जरूर पूरे करेंगे। इससे चुनाव जीतने और ‘रेवड़ियां’ बांटने का नकारात्मक चक्र शुरू हो जाता है।
सत्ता में बने रहना या मौजूदा सरकार को हटाना प्रत्येक राजनीतिक दल का प्रमुख लक्ष्य बनता जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि सरकार लोगों से अधिक से अधिक कर निचोड़ने की कोशिश करेगी क्योंकि उन्हें लोगों से किए गए अंधाधुंध वादे पूरे करने हैं।
हाल में विदेश में क्रेडिट कार्ड से खर्च पर कर लगाने का प्रस्ताव ऐसा ही एक उदाहरण है। कर नियमों में त्रुटियां दूर करने का प्रयास वास्तव में अप्रत्यक्ष रूप से सभी नागरिकों को कर दायरे में लाना और उन पर कर बढ़ाना है। इनमें वह रकम शामिल नहीं है जो काम जल्दी कराने के लिए सरकारी एजेंसियों को दी जाती है।
बुनियादी सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर कोई समझौता किए बिना अगर वृद्धि दर को बरकरार रखना है तो राजनीतिक एवं सार्वजनिक सोच अवश्य बदलनी होगी।
सबसे पहले राज्य को अपना विस्तार कम करना होगा। इससे जो स्थान बनेगा उसे राज्येतर संस्थानों, सामुदायिक संगठनों एवं कल्याणकारी संस्थाओं को भरना होगा। इसका अभिप्राय है कि व्यक्तिगत आय करों में अवश्य कटौती की जानी चाहिए, निजी एजेंसियों के जरिये कल्याणकारी योजनाओं के लिए संसाधन बढ़ाए जाने चाहिए। इसका विरोध वामपंथी-उदार विचारधारा वाले लोग जरूर करेंगे।
दूसरी अहम बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के बजाय उद्यमशीलता एवं स्व-रोजगार को बढ़ाने पर केंद्रित होना चाहिए। अनौपचारिक एवं औपचारिक मध्यम क्षेत्र को रोजगार एवं जीविकोपार्जन के मुख्य स्रोत के रूप में काम करना होगा।
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें कराधान को लेकर अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां आपसी विश्वास में कमी है वहां ऊंचा व्यक्तिगत कर लगाना बिल्कुल उपयुक्त नहीं होगा। लोग उच्च कराधान तभी स्वीकार करेंगे जब तक वे देखेंगे कि उनकी रकम कहां जा रही है और खासकर यह ‘हम जैसे लोगों’ तक पहुंच रही है या नहीं।
नॉर्डिक (स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, आइसलैंड और फिनलैंड) और अधिकांश यूरोपीय देशों में हाल तक प्रत्यक्ष कर की दर अधिक थी क्योंकि वहां एक जैसे लोग थे। मगर अफ्रीका और पश्चिम एशिया से लोगों के आने से इन ज्यादातर देशों में बाहरी लोगों के खिलाफ भावना उमड़ रही है। इसका एक परिणाम यह होगा कि लोग ऊंचे कर का विरोध करेंगे। कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन लोगों को मिलेगा जो ‘हमारे जैसे नहीं’ हैं।
हम समानता और भाईचारे की कितनी बातें क्यों न कर लें मगर इससे सामाजिक समूह की वास्तविकता नहीं बदलेगी। सामाजिक समूह का मतलब ही यह विभेद करना है कि ‘हम’ कौन हैं और ‘वे’ कौन हैं। राज्य को केवल उन सामाजिक समूहों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो अपनी मदद स्वयं नहीं कर सकते हैं।
चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आवश्यक सरकारी नौकरियों और गैर-सरकारी नौकरियों में पुनर्संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए। जब राज्य का दायरा बढ़ता है तो कानून व्यवस्था, लोक स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी नागरिक केंद्रित सेवाओं पर ध्यान देने के बजाय अफसरशाही का ताना-बाना खड़ा करने पर अधिक ध्यान जाएगा।
शैक्षणिक एवं सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में मेधा आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देने के प्रयासों में लगातार आ रही कमी हमें विदेश में संभावनाएं तलाशने के लिए प्रेरित करता है। भारत को प्रतिभा के पलायन का अब तक इसलिए नुकसान नहीं उठाना पड़ा है क्योंकि इसके पास अब भी ऐसे प्रतिभावान इंजीनियरों एवं प्रबंधकों के समूह मौजूद हैं जो बाहर नहीं जा सकते हैं।
मगर यह दुखती रग भी है। कोई भी अर्थव्यवस्था निरंतर प्रगति नहीं कर सकती अगर इसके सर्वाधिक प्रतिभावान लोग यहां नहीं रहना चाहते हैं। 2011 से लगभग 16 लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ दी है। उन्होंने जीवन में आगे निकलने या भारत की झंझट मुक्त जिंदगी से निजात पाने के लिए ऐसा किया है।
वैश्विक आर्थिक संकट के बाद अस्तित्व में आए बड़े शक्तिशाली राज्य के बढ़ते दायरे की जगह अब राज्येतर संस्थानों के साथ राज्य के बेहतर तालमेल को बढ़ावा दिया जाना चाहिेए। राज्य की भूमिका उन क्षेत्रों में नहीं बढ़नी चाहिए जहां इसकी आवश्यकता नहीं है। भविष्य में भारत और विदेश दोनों में राज्य का सदैव बढ़ता दायरा थम जाएगा। राज्य का दायरा सीमित होने पर ही हम एक समूह के रूप में अधिक तालमेल के साथ रह पाएंगे।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं।)