इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने हाल ही में सूचीबद्ध कंपनियों के लिए न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (एमपीएस) की अनिवार्यता शिथिल करने और बड़े इश्यूअर्स को नियामकीय सीमा पूरी करने के लिए अधिक समय देने का निर्णय लिया है। इस फैसले के उद्देश्य तथा तर्क को सार्वजनिक निवेशकों और कॉरपोरेट संचालन के दृष्टिकोण से परखा जाना आवश्यक है।
नियामक का घोषित लक्ष्य है बड़ी कंपनियों द्वारा प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) की राह आसान बनाना। इसके पीछे जो तर्क दिया जाता है उसमें यह बात शामिल है कि अत्यधिक हिस्सेदारी बेचने या नकदीकरण पर बाजार के लिए उसकी खपत करना मुश्किल होगा। संभव है कि कंपनियों को अधिक फंड की आवश्यकता न हो। तात्कालिक नकदीकरण से बाजार में शेयरों की अतिरिक्त आपूर्ति के हालात बन सकते हैं और अतिरिक्त नकदीकरण का अनुमान शेयर कीमतों पर असर डाल सकता है।
नियामक ने राहत देने के लिए कंपनियों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा है। बड़ी कंपनियों के लिए यह इतना लचीला हो गया है कि सूचीबद्ध होने के समय केवल 2.5 फीसदी की न्यूनतम सार्वजनिक पेशकश की अनुमति दी जाती है, और न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (एमपीएस) की 25 फीसदी सीमा तक पहुंचने के लिए 10 वर्षों का लंबा समय दिया जाता है।
कौन सी कंपनियां इस श्रेणी में आ सकती हैं? कुछ सरकारी कंपनियों के अलावा इनमें वही कंपनियां आएंगी जिनके प्रवर्तक अमीर हैं, और जो निजी निवेशकों तथा रणनीतिक साझेदारों से निजी निवेश के माध्यम से बड़े पैमाने पर धन जुटाने में सक्षम हैं।
सार्वजनिक सूचीबद्धता न केवल किसी कंपनी को बेहतर दृश्यता प्रदान करने में मदद करती है बल्कि ऐसे निवेशकों को बाहर निकलने का अवसर भी देती है जो आईपीओ से पहले निजी निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं। यकीनन इसका उद्देश्य नए फंड जुटाना नहीं हो सकता। 2.5 फीसदी की सार्वजनिक पेशकश भले ही पूरी की पूरी नई पूंजी हो लेकिन एक बड़ी कंपनी के लिए वह सागर में एक बूंद के समान है।
तो फिर आईपीओ के जरिये शेयर खरीदने वाले नए निवेशकों का क्या? कहा जा सकता है कि आईपीओ के रास्ते आने वाले सार्वजनिक निवेशकों के पास यह अवसर होता है कि वे हिस्सेदारी हासिल करें और सूचीबद्धता से लाभान्वित हों। इस संभावना का करीबी परीक्षण करने की आवश्यकता है। क्या एमपीएस से संबंधित नियामकीय शिथिलता इन अंशधारकों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करती है या फिर इस बात की कोई संभावना है कि इससे कंपनी के कारोबारी संचालन में सुधार होगा?
बहुत कम लोग इस बात से असहमत होंगे कि आदर्श रूप से, आईपीओ के लिए जाने वाली कंपनियों को सूचीबद्ध होने के समय ही एक बार में 25 फीसदी न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (एमपीएस) की अनिवार्यता पूरी करने का निर्देश दिया जाना चाहिए। कल्पना कीजिए कि दो स्थितियों में शेयर मूल्य की खोज में कितना अंतर हो सकता है। पहली स्थिति में सूचीबद्ध होते समय 25 फीसदी हिस्सेदारी की बिक्री, और दूसरी स्थिति में केवल 2.5 फीसदी हिस्सेदारी की बिक्री, जिसमें 25 फीसदी तक पहुंचने के लिए 10 वर्षों का समय दिया गया हो।
हाल के वर्षों में भारतीय पूंजी बाजार की वृद्धि शानदार रही है। वर्ष 2019 से बाजार पूंजीकरण और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात 81 फीसदी से बढ़कर 135 फीसदी हो गया। डीमैट खातों की संख्या अप्रैल 2019 के 3.6 करोड़ से बढ़कर अब 20.7 करोड़ हो चुकी है। वर्ष 2025 में अब तक आईपीओ से फंड जुटाने के मामले में भारतीय बाजार दुनिया में चौथे स्थान पर है। यकीनन अभी बाजार विकास के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है लेकिन क्या बाजार में अपर्याप्त गहराई का होना शिथिलता प्रदान करने की पर्याप्त वजह हो सकती है? शायद नहीं।
किसी गैरसूचीबद्ध कंपनी का मूल्यांकन एक कठिन और जटिल प्रक्रिया है। इसमें संस्थागत निवेशकों और मर्चेंट बैंकरों की धारणा प्रमुख भूमिका निभाती है। हाल के वर्षों में आईपीओ बाजार में अभूतपूर्व उछाल बावजूद, विशेष रूप से बड़े इश्यू में, निर्गम मूल्य और सूचीबद्ध मूल्य के बीच भारी अंतर ने अक्सर निवेशकों की भावना को दमित किया है। इस तरह की प्रस्तावित समयसीमा जिसके तहत न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता की अंतिम आवश्यकता को पूरा करने के लिए आगे और हिस्सेदारी कम की जानी है, निवेशकों की दुविधा और भ्रम को और बढ़ा सकती है। जहां तक कारोबारी संचालन की बात है तो केवल 2.5 फीसदी की सार्वजनिक शेयरधारिता बेमानी है। ऐसे में सालाना आम बैठक में प्रस्ताव पारित करना एक मजाक होगा।
सेबी को इस नीतिगत निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। 25 फीसदी एमपीएस सूचीबद्धता के समय ही होनी चाहिए। बहुत किया जाए तो सूचीबद्धता के समय अधिक से अधिक 10 फीसदी की शिथिलता दी जाए और 25 फीसदी तक पहुंचने के लिए दो से तीन साल का समय ही हो। कम से कम कागज पर 10 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले अंशधारकों को कुछ सामूहिक अधिकार होंगे। इनमें प्रमुख हैं: यदि निवेशकों को दमन या कुप्रबंधन का सामना करना पड़ता है तो वे असाधारण आम बैठक बुलाने की मांग कर सकते हैं और राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट यानी एनसीएलटी में याचिका दायर कर सकते हैं। किसी भी हालत में समयसीमा में और छूट नहीं दी जानी चाहिए। अगर जरूरी हो तो बड़े इश्यूअर्स अपनी व्यावसायिक संरचना और मॉडल का पुनर्गठन करने पर विचार कर सकते हैं। मसलन वे अपनी गतिविधियां विभिन्न सहायक कंपनियों में बांट सकते हैं और फिर उन्हें सूचीबद्ध करने पर विचार कर सकते हैं।
शेयरधारकों द्वारा प्रस्ताव पर पारित करने की चर्चा के साथ रहते हुए, कंपनी अधिनियम, 2013 के अनुसार किसी सामान्य प्रस्ताव को पारित करने के लिए मूल्य के आधार पर 50 फीसदी या उससे अधिक के शेयरधारकों की सहमति आवश्यक होती है। विशेष प्रस्तावों के लिए यह सीमा 75 फीसदी निर्धारित है। अतः सूचीबद्ध कंपनियों के लिए वर्तमान में निर्धारित 25 फीसदी न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता की व्यवस्था भी प्रवर्तक शेयरधारकों के किसी अत्यधिक अनुचित व्यवहार को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती। वर्ष 2019 के बजट में एमपीएस को बढ़ाकर 35 फीसदी करने का सुझाव था।
बहरहाल, मुक्त व्यापार को लेकर उत्साहित लोगों ने दलील दी कि उच्च सार्वजनिक शेयरधारिता बाजार की परिपक्वता के साथ खुद आती है। ऐसे में किसी उपाय की आवश्यकता नहीं है। दुर्भाग्य से तमाम अन्य बातों की तरह यहां भी स्वैच्छिक कदम शायद ही कारगर हों। ऐसे में प्रस्ताव पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। एमपीएस की जरूरत को बढ़ाकर 30 फीसदी किया जा सकता है। इसके साथ ही कंपनी अधिनियम के तहत विशेष प्रस्ताव पारित करने की सीमा को बढ़ाकर 80 फीसदी किया जा सकता है।
एक अन्य अहम पहलू यह है कि उच्च सार्वजनिक शेयरधारिता का अर्थ जरूरी तौर पर यह नहीं है कि द्वितीयक बाजार में कारोबार के लिए बड़ी तादाद में शेयर उपलब्ध हों। सहयोगी या समूह कंपनियों, कंपनी के बोर्ड में नामित निदेशक रखने वाली संस्थाओं, कंपनी के निदेशकों, केंद्र/राज्य सरकार, रणनीतिक हित रखने वाले निगमों और अन्य दीर्घकालिक निवेशकों (जिनमें कुछ प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक भी शामिल हैं) द्वारा रखे गए शेयर, यद्यपि सार्वजनिक शेयरधारकों की परिभाषा में आते हैं, लेकिन ये सामान्यतः ट्रेडिंग के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं।
एमपीएस की अवधारणा को ‘फ्री फ्लोट’ यानी मुक्त प्रवाह की अवधारणा द्वारा प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि किसी सूचीबद्ध कंपनी के शेयरों के प्रतिशत का उचित मूल्यांकन किया जा सके, जिनके ट्रेडिंग के लिए स्वतंत्र रूप से उपलब्ध होने की संभावना है। इसकी परिभाषा को लेकर भी सभी हितधारकों के बीच सहमति होनी चाहिए।
कई लोग इन सुझावों पर हंस सकते हैं और कह सकते हैं कि ये कारोबारी सुगमता के सिद्धांत के विरुद्ध हैं। बहरहाल याद रहे, निवेशकों के हितों की रक्षा ही नियामक का पहला काम है। सेबी अधिनियम की प्रस्तावना भी यही कहती है।
(लेखक ओआरएफ के विशिष्ट फेलो और सेबी के पूर्व चेयरमैन हैं)