भारत में परिवहन एवं ढुलाई व्यवस्था (लॉजिस्टिक्स) पर लागत पिछले दशकों से एक अक्रियाशील आर्थिक वास्तविकता मानी जाती थी। अनुमान के अनुसार यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 13-14 प्रतिशत थी जो भारत के समकक्ष देशों की तुलना में बहुत अधिक थी। इस पहलू को अक्सर ‘छिपा हुआ कर’ बताया जाता था जिसने भारतीय विनिर्माण को गैर-प्रतिस्पर्द्धी बना दिया था। मगर 20 सितंबर को यह मान्यता चुपके से लेकिन पूरी तरह समाप्त हो गई।
सरकार ने राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक शोध परिषद (एनसीएईआर) और उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (डीपीआईआईटी) द्वारा एक विस्तृत राष्ट्रव्यापी अध्ययन के बाद 2023-24 के लिए लॉजिस्टिक लागत पर पहला विश्वसनीय आंकड़ा जारी किया जो जीडीपी का 7.97 प्रतिशत था। यह तथ्य संख्या में सुधार के अलावा भी काफी महत्त्व रखता है। यह इस सोच को नए सिरे से परिभाषित करता है कि भारत में प्रतिस्पर्द्धा को लेकर क्या धारणा है। भारत में लॉजिस्टिक पर लागत अब दुनिया की उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के इर्द-गिर्द ही है। उदाहरण के लिए यह अमेरिका की 8.8 प्रतिशत, जर्मनी की 8 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया की 8.6 प्रतिशत के बराबर है।
खबरों और भाषणों में लगातार अंतहीन रूप से इस ऊंची लागत यानी 13-14 प्रतिशत का जिक्र हो रहा था मगर यह ठोस गणना विधि पर आधारित नहीं था। व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रारूप अपनाने और उनके हिसाब से ढलने की वजह से यह भारी भरकम आंकड़ा आ रहा था। ये प्रारूप भारत के अनुरूप बिल्कुल नहीं थे। नीति निर्माताओं, उद्योग और मीडिया ने इसे बार-बार दोहराया जिससे इस धारणा ने गहरी जड़ जमा ली कि लॉजिस्टिक भारत की कमजोर कड़ी बन चुकी है।
वृहद आंकड़ों (राष्ट्रीय लेखा आंकड़ा, सप्लाई ऐंड यूज टेबल्स, भारतीय रिजर्व बैंक का बहीखाता) को परिवहनकर्ताओं (ट्रांसपोर्टर), गोदामों और सेवा उपयोगकर्ताओं के 3,500 से अधिक हितधारक सर्वेक्षणों के आंकड़ों के साथ मिलाकर एक मिश्रित दृष्टिकोण के जरिये तैयार रिपोर्ट ‘भारत में लॉजिस्टिक लागत का आकलन’ अब तक का सबसे मजबूत अनुमान व्यक्त करता है। यह संख्या न केवल आश्चर्यजनक रूप से कम है बल्कि अधिक विश्वसनीय और पारदर्शी भी है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत की लॉजिस्टिक लागत 2023-24 के मूल्यों पर 24.01 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है, जो गैर-सेवा उत्पादन का 9.09 प्रतिशत है। सड़क परिवहन के लॉजिस्टिक पर आने वाली लागत में भारी भरकम हिस्सेदारी है। यह 3.78 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर है जो रेल (1.96 रुपये) और जलमार्ग (2.30 रुपये) से काफी अधिक है। हवाई भाड़ा 72 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर के साथ सबसे अधिक है। छोटी कंपनियों को अधिक बोझ का सामना करना पड़ता है क्योंकि 5 करोड़ रुपये से कम कारोबार वाले व्यवसाय लॉजिस्टिक पर अपने राजस्व का लगभग 17 प्रतिशत खर्च करते हैं जबकि बड़ी कंपनियों के लिए यह आंकड़ा केवल 7.6 प्रतिशत है।
वेयरहाउसिंग दबाव और बढ़ा देता है जिस पर औसत 30 रुपये प्रति वर्ग फुट प्रति माह लागत आती है लेकिन शीत भंडारण के मामले में यह 60 रुपये तक पहुंच जाती है। निर्यात-आयात लॉजिस्टिक भी बाधित है क्योंकि इसे बंदरगाहों पर लगातार समस्याओं से निपटना होता है। इनमें टर्मिनल हैंडलिंग शुल्क और दस्तावेज पर आने वाले अधिक खर्च शामिल हैं। इस तरह, भारत की लॉजिस्टिक प्रणाली इतनी अक्षम नहीं है जितनी मानी जा रही थी मगर संरचनात्मक चुनौतियां अब बरकरार हैं।
दो मिथक तो कम से कम दूर हो चुके हैं। पहला, भारत की लॉजिस्टिक लागत जीडीपी का 13-14 प्रतिशत नहीं है। दूसरा, लॉजिस्टिक वह मील का पत्थर नहीं है जैसा इसे पेश किया गया। उन्नत अर्थव्यवस्थाएं 7-8 प्रतिशत की सीमा के भीतर काम करती हैं और भारत भी इसी दायरे में है।
सड़क परिवहन में ईंधन की अधिक खपत कम करना निहायत जरूरी है। इसमें ईंधन खपत देश में डीजल खपत का 55 प्रतिशत और लॉजिस्टिक लागत में इसकी (सड़क परिवहन की) हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है। सड़क से माल परिवहन काफी अधिक है जिसकी हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है वैश्विक मानक 8-10 प्रतिशत से बहुत अधिक है। रेल परिवहन के 27 प्रतिशत के मुकाबले यह काफी अधिक है। राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति का लक्ष्य इसे 2030 तक 10 प्रतिशत से कम करना है। इसमें रेल परिवहन की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है।
मल्टीमोडल लॉजिस्टिक तंत्र के विस्तार और स्रोत से लेकर गंतव्य तक परिवहन एवं ढुलाई ढांचा मजबूत करने से सड़क माध्यम से माल ढुलाई पर निर्भरता कम हो जाएगी। इसके अंतर्गत स्वीकृत 35 मल्टीमोडल लॉजिस्टिक पार्क (एमएमएलपी) और इनके साथ 41 लॉजिस्टिक पार्कों की मदद से हरेक महीने 3,20,000 कार्गो की आवाजाही हो रही है।
पीएम गति शक्ति नैशनल मास्टर प्लान ने 156 अहम ढांचागत कमियों की पहचान की है और 8,891 किलोमीटर सड़कों एवं 27,000 किलोमीटर रेल लाइनों को सशक्त किया है। इन जरूरतों के लिए मजबूत संस्थागत ढांचे के साथ एकीकृत मल्टी मोडल योजना, जैसे परिवहन संचालन के लिए राष्ट्रीय शीर्ष निकाय की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री द्वारा गति शक्ति ट्रांसपोर्ट प्लानिंग ऐंड रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (जीटीपीआरओ) में इनकी परिकल्पना की गई है। इसके साथ ही मजबूत राज्य-स्तरीय शहरी एवं क्षेत्रीय परिवहन प्रशासन भी आवश्यक है।
वेयरहाउसिंग विशेष रूप से कोल्ड-चेन सेगमेंट में कमियों को दूर करना एक और अत्यावश्यक कार्य है। छोटे एवं मध्यम उद्यमों (एसएमई) को साझा लॉजिस्टिक ढांचे के माध्यम से लक्षित समर्थन की भी आवश्यकता होती है जो उनके लिए लागत बोझ कम कर सकता है। अंत में, निर्यात-आयात प्रतिस्पर्द्धा बंदरगाहों और हवाई अड्डों पर लगातार प्रशासनिक व्यवधान दूर करने पर निर्भर करती है, विशेष रूप से टर्मिनल हैंडलिंग और सीमा शुल्क दस्तावेजीकरण सुव्यवस्थित करने पर। चेन्नई बंदरगाह पर भ्रष्टाचार के आरोप सोशल मीडिया पर सुर्खियां बनने से मौजूदा चुनौतियां और बढ़ गई हैं।
भारत पीएम गति शक्ति, समर्पित माल गलियारे, सागरमाला, भारतमाला, यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफॉर्म (यूएलआईपी) और राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति जैसी पहल के माध्यम से अपने लॉजिस्टिक परिदृश्य को बदलने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठा रहा है। ये सभी एकीकरण, डिजिटलीकरण और विविध प्रारूपों (मल्टीमोडल) दक्षता पर जोर देते हैं। इस गति को आगे बढ़ाते हुए मौजूदा रिपोर्ट में सुधार के लिए एक क्रमबद्ध मार्ग का प्रस्ताव दिया गया है। वर्ष 2030 तक लॉजिस्टिक लागत को जीडीपी के 7 प्रतिशत के करीब लाने का लक्ष्य है जो दुनिया के श्रेष्ठ आंकड़ों से मुकाबला करने वाला एक मानक है।
नया तथ्य सामने आने के बाद आत्मविश्वास बहाल होता है। निवेशकों के लिए यह संकेत देता है कि भारत का ‘लॉजिस्टिक्स जुर्माना’ अब बाधा नहीं है। नीति निर्माताओं के लिए यह सुधार के लिए एक विश्वसनीय आधार रेखा प्रदान करता है। उद्योग के लिए यह लॉजिस्टिक को एक बाधा के बजाय अवसर के रूप में बदल देता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह इस बात पर जोर देता है कि भारत के समन्वित सुधार असरदार साबित हो रहे हैं।
भारत में लॉजिस्टिक अब एक चुनौती नहीं रह गई है। यह एक परिवर्तनशील अर्थव्यवस्था को वैश्विक प्रतिस्पर्द्धियों के साथ खड़ा होने में मदद कर रहा है। यह त्रुटियों एवं बाधाओं को दूर कर भारत को 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में मदद कर रहा है। अब चर्चा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई कमियों के बजाय महत्त्वाकांक्षी संभावनाओं पर होनी चाहिए। सरकार का नया आंकड़ा ‘जीडीपी का 7.97 प्रतिशत’ सिर्फ एक संख्या नहीं है। यह भारत की अर्थव्यवस्था के सफर में एक अहम मोड़ है और एक प्रमाण है कि जब सुधारों को विश्वसनीय आंकड़ों का साथ मिलता है तो मिथक दूर होते हैं और आत्मविश्वास बढ़ता है।
(लेखक अधोसंरचना क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह द इन्फ्राविज़न फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध न्यासी भी हैं। मुतुम चाओबिसना ने शोध आंकड़े उपलब्ध कराए हैं)