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कॉरपोरेट जगत में पारिवारिक झगड़े हैं चेतावनी भी, और नीति निर्धारण के लिए संकेत भी

India Inc को एक नए सामाजिक समझौते की आवश्यकता है, जो पारिवारिक नियंत्रण और जनहित के बीच संतुलन स्थापित करे। बता रही हैं

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तुलसी जयकुमार   
Last Updated- August 06, 2025 | 11:06 PM IST

भारत के कॉरपोरेट जगत पर लंबे समय से औद्योगिक घरानों और प्रवर्तक नियंत्रित कंपनियों का दबदबा रहा है। दशकों से इन कंपनियों ने देश की तरक्की में बहुत योगदान दिया, रोजगार के मौके तैयार किए और कई बड़े ब्रांड बनाए। लेकिन इस कामयाबी के पीछे एक कड़वी हकीकत भी है। इसमें पारिवारिक झगड़े, अस्पष्ट तरीके से निर्णय लेना और कमजोर बोर्ड, कंपनी के निवेशकों और कॉरपोरेट प्रशासन के नियमों के लिए लगातार चुनौती बन रहे हैं। रेमंड, रेलिगेयर और हीरो मोटोकॉर्प जैसी कंपनियों से जुड़े हाल के विवादों ने यह साफ कर दिया है कि अब भारत की कंपनियों को चलाने के तरीके में बदलाव की सख्त जरूरत है।

भारतीय पूंजीवाद की एक विशेषता यह है कि यहां प्रवर्तक-केंद्रित स्वामित्व मॉडल है। भारत की लगभग 70 फीसदी सूचीबद्ध कंपनियों में 50 फीसदी से अधिक इक्विटी पर प्रवर्तकों का नियंत्रण होता है और अक्सर इनके पास स्वामित्व के साथ-साथ कार्यकारी अधिकार भी होता है। जहां एक ओर यह व्यवस्था दीर्घकालिक सोच और तुरंत निर्णय लेने में मदद कर सकती है वहीं दूसरी ओर यह लगातार कंपनी में प्रशासन संबंधी जोखिम भी पैदा करती है। छोटे शेयरधारक अक्सर पारिवारिक झगड़ों, निजी विवादों और अपारदर्शी बोर्ड फैसलों के कारण मुश्किल में पड़ जाते हैं।

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हाल के महीने में ये चिंताएं और खुलकर सामने आई हैं। हीरो मोटोकॉर्प जैसी प्रमुख भारतीय प्रवर्तक नियंत्रित कंपनियां, कॉरपोरेट प्रशासन में कथित कमियों और फंड के दुरुपयोग को लेकर जांच के दायरे में आ गई हैं। वहीं रेलिगेयर एंटरप्राइजेज का मामला संस्थापक परिवार के भीतर लंबे समय से चल रहे विवादों, आपराधिक जांच और बोर्डरूम में उथल-पुथल से भरा रहा है।

वहीं दूसरी ओर रेमंड कंपनी में, गौतम सिंघानिया और उनकी अलग रह रही पत्नी नवाज मोदी सिंघानिया जो खुद बोर्ड की सदस्य हैं, उनके बीच विवाद सार्वजनिक हो गया था। इस झगड़े में वित्तीय अनियमितता, कंपनी और निजी संपत्तियों पर नियंत्रण और बोर्ड की स्वतंत्रता पर सवाल जैसे गंभीर आरोप सामने आए। हालांकि ऐसी कंपनियों में प्रवर्तकों का दबदबा बना रहता है लेकिन इस तरह के विवाद यह दिखाते हैं कि जिन कारोबारों पर परिवार का कड़ा नियंत्रण होता है वहां बोर्ड के लिए अपनी निगरानी और स्वतंत्रता बनाए रखना कितना मुश्किल होता है।

कंपनियों के बोर्ड क्यों कमजोर होते हैं?

इन विवादों की जड़ में एक बड़ी संरचनात्मक खामी है, प्रवर्तकों द्वारा चलाई जा रही कंपनियों में स्वतंत्र निगरानी की कमी। स्वतंत्र निदेशकों की अक्सर न तो इतनी संख्या होती है और न ही इतने अधिकार कि वे हावी रहने वाले प्रवर्तकों को चुनौती दे सकें। भले ही नियम-कानून कागजों पर मौजूद हों, लेकिन सामाजिक संबंध, सांस्कृतिक अंतर और आर्थिक निर्भरता जैसी चीजें, उनकी प्रभावशीलता को कम कर देती है।

कंपनी बोर्ड की अनिवार्य संरचना में कम से कम एक-तिहाई स्वतंत्र निदेशक (और उन सूचीबद्ध कंपनियों के मामले में आधे जिनमें कोई कार्यकारी अध्यक्ष नहीं होता) रखने का प्रावधान है और इसे एक सुरक्षा उपाय के तौर पर तय किया गया था। फिर भी, बड़े-बड़े मामलों से यह पता चलता है कि स्वतंत्र निदेशकों को दरकिनार कर दिया जाता है या प्रवर्तकों की ताकत पर रोक लगाने के बजाय उनका इस्तेमाल सिर्फ नाम और प्रतिष्ठा बनाने के लिए किया जाता है।

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इसके अलावा, संबंधित-पक्षों के बीच होने वाले लेनदेन (आरपीटी) लगातार प्रशासन संबंधी जोखिम का कारण बने रहते हैं। हालांकि भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने हाल के वर्षों में आरपीटी के खुलासे के नियमों और शेयरधारकों की मंजूरी की जरूरतों को सख्त किया है, लेकिन इन नियमों का पालन पूरी तरह से नहीं हो पाता है। पारिवारिक कंपनियों में निजी और व्यावसायिक हितों के बीच की रेखा अक्सर धुंधली होती है। खासतौर पर जब संपत्ति के हस्तांतरण, कंपनियों के बीच ऋण और ब्रांड लाइसेंसिंग की बात आती है। यह सब अक्सर छोटे शेयरधारकों को मूल्य के नुकसान और कामकाज संबंधी जोखिमों में डालता है।

पारिवारिक झगड़ों की आर्थिक लागत

ये विवाद सिर्फ प्रतिष्ठा को ही नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि इनका सीधा आर्थिक नुकसान भी होता है। लंबे समय तक चलने वाले झगड़ों से प्रबंधन का ध्यान भटकता है, जरूरी फैसलों में देरी होती है और निवेशकों का भरोसा कम होता है। इसका नतीजा अक्सर कंपनी के बाजार मूल्य में गिरावट, कामकाज में रुकावट और नियामकीय दंडशुल्क के रूप में सामने आता है, जिसका असर सिर्फ उस कंपनी पर नहीं, बल्कि पूरे बाजार निवेशकों की धारणा पर पड़ता है।

इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज के दौर में जब वैश्विक निवेशक पर्यावरण, सामाजिक और शासन (ईएसजी) संबंधी मानकों को बहुत प्राथमिकता दे रहे हैं तब बार-बार होने वाले शासन संबंधी विवाद, भारत के बाजार मूल्यांकन पर नकारात्मक असर डाल सकते हैं। परिवार का नियंत्रण, जिसे कभी स्थिरता और निरंतरता का प्रतीक माना जाता था, अब पूंजी बाजारों में एक संभावित कमजोरी के रूप में देखा जा रहा है। निवेशक अब पारदर्शिता, जवाबदेही और स्वतंत्र निगरानी चाहते हैं।

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नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता

 इसका समाधान प्रवर्तक नियंत्रण को खत्म करना नहीं है और न ही भारतीय संदर्भ में यह संभव है, क्योंकि यहां पारिवारिक उद्यमशीलता की जड़ें बहुत गहरी हैं। दरअसल प्रवर्तकों, बोर्ड और छोटे शेयरधारकों के बीच शक्ति का संतुलन फिर से बनाने की जरूरत है। इस नए समझौते को बनाने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका को सही मायने में मजबूत बनाना होगा। उनकी नियुक्ति प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए और उसे प्रवर्तकों के प्रभाव से दूर रखना चाहिए, ताकि वे सार्वजनिक शेयरधारकों के प्रति अधिक जवाबदेह हों। नियमित प्रशिक्षण, कार्यकाल की स्पष्ट सीमाएं और उनके प्रदर्शन व बोर्ड की बैठकों में उपस्थिति का सार्वजनिक खुलासा करने से बोर्ड की निगरानी की गुणवत्ता को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।

दूसरा, परिवार से जुड़े और संबंधित-पक्षों के लेन-देन के खुलासे को और अधिक विस्तृत तरीके से और समय पर करना जरूरी है ताकि छोटे शेयरधारकों को जानकारी की कमी का सामना न करना पड़े। तीसरा, कंपनियों को अपने बोर्ड के भीतर औपचारिक रूप से हितों के टकराव से निपटने के लिए नियम बनाने चाहिए। खासकर पारिवारिक कंपनियों में, संभावित टकरावों की पहचान करने, उनका खुलासा करने और उन्हें सही तरीके से संभालने के लिए स्पष्ट नियम होने से बोर्ड को संवेदनशील स्थितियों को अधिक निष्पक्षता से संभालने में मदद मिलेगी। चौथा, प्रवर्तक-नियंत्रित कंपनियों को अपनी उत्तराधिकार योजनाओं को सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए और समय-समय पर इसे अद्यतन भी करना चाहिए। इससे नेतृत्व में बदलाव के समय में स्पष्टता आएगी और व्यक्तिगत या पारिवारिक विवादों के समय कामकाज और बाजार के जोखिम कम होंगे।

अंत में, प्रवर्तक-नियंत्रित कंपनियों में शासन संबंधी उल्लंघनों को दूर करने के लिए नियामक प्रक्रियाओं को और अधिक तेज और समय-सीमा के भीतर होना चाहिए। भारत की प्रवर्तक-नियंत्रित कंपनियां एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी हैं। वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी और निवेशकों के प्रति संवेदनशील माहौल में उनकी लगातार सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे खुद को निजी जागीर बनाने के बजाय एक जवाबदेह सार्वजनिक कंपनियों में कितनी प्रभावी ढंग से बदल पाती हैं।

हाल ही में हुए विवाद एक चेतावनी भी हैं और नीति बनाने के लिए एक संकेत भी हैं। प्रवर्तकों को यह समझना होगा कि बिना जवाबदेही के नियंत्रण अब संभव नहीं है। बदले में, नियामकों, बोर्ड और आम शेयरधारकों को भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल और अधिक सक्रिय रूप से करना होगा। पारिवारिक नियंत्रण और जनहित के बीच संतुलन बनाने वाला एक नया सामाजिक समझौता, भारत के कॉरपोरेट जगत की विश्वसनीयता और पूंजी बाजार की मजबूती बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी है।

(लेखिका एसपीजेआईएमआर के सेंटर फॉर फैमिली बिजनेस ऐंड आंत्रप्रेन्योरशिप की कार्यकारी निदेशक और प्रोफेसर (अर्थशास्त्र तथा नीति) हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

First Published : August 6, 2025 | 11:06 PM IST