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गहरा अलगाव

Last Updated- December 15, 2022 | 7:49 AM IST

आर्थिक परिदृश्य और शेयर बाजार के बीच का अलगाव बढ़ता जा रहा है। कोविड-19 महामारी के शुरुआती दिनों में महत्त्वपूर्ण गिरावट के बाद बाजार ने तेजी से वापसी कर ली। ऐसा तब हुआ जबकि अर्थव्यवस्था में और गिरावट आना तय माना जा रहा था। भारत ही नहीं कुछ अन्य बाजारों में भी यह विरोधाभास बना हुआ है। जनवरी में जब महामारी बस आई ही थी, तब निफ्टी 12,340 अंकों के साथ अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचा था। मार्च के अंत तक जब भारत में लॉकडाउन लगा, सूचकांक 40 फीसदी गिरकर 7,511 पर आ चुका था। परंतु अगले तीन महीनों में यह दोबारा सुधरकर 10,300 के स्तर पर पहुंच गया है।
तमाम आर्थिक पूर्वानुमानों ने एकमत होकर पहले कहा कि इस वित्त वर्ष में वृद्धि कम होगी और उसके बाद सकल घरेलू उत्पाद में कमी की बात भी मानी लेकिन बाजारों ने इन पूर्वानुमानों को तवज्जो नहीं दी है। लॉकडाउन के पहले भी कई तिमाहियों तक कमजोर कॉर्पोरेट नतीजों के बाद पिछली तिमाही में बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी आई और अब कोविड के मामले 5.50 लाख से अधिक हो चुके हैं लेकिन इनके रुकने की कोई संभावना नहीं दिख रही। चीन के साथ गतिरोध भी व्यापार पर बुरा असर डालेगा। निफ्टी अभी भी 26.5 के मूल्य-आय अनुपात पर काम कर रहा है हालांकि कंपनियों से निहायत कमजोर संकेत हैं और महामारी का भी कोई अंत नजर नहीं आ रहा है। बहरहाल, यह चाहे जितना अतार्किक और विरोधाभासी प्रतीत हो रहा हो लेकिन कुछ कारकों के चलते कीमतें ऊंची बनी हुई हैं।
वैश्विक नकदी प्रवाह भी बाजार को गति देने वाला एक कारक है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने कंपनियों के बॉन्ड खरीदने शुरू किए। भारतीय केंद्रीय बैंक ने भी मौद्रिक हालात का सहज रहना सुनिश्चित किया। आसान नकदी जोखिम उठाने की पूर्व शर्त है। यह भी एक कारण है जिसके चलते विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने मई और जून में मिलाकर 35,000 करोड़ रुपये से अधिक के शेयर खरीदे। इससे पहले मार्च में उन्होंने 62,000 करोड़ रुपये की बिकवाली की थी। रिजर्व बैंक के कदमों ने भी बॉन्ड प्रतिफल को कम रखा है। आर्थिक गतिविधियां धीमी होने के कारण कॉर्पोरेट जगत की ओर से भी वित्त की मांग नहीं है। 4 फीसदी से कम के प्रतिफल पर वास्तविक रिटर्न शून्य है।
डेट बाजार से नकारात्मक या कम वास्तविक प्रतिफल के कारण निवेशकों ने जोखिम के संदर्भ में दो अतियों मे से एक का चयन कर लिया। रूढि़वादी निवेशक सोने में निवेश किए हुए हैं जो अनिश्चित समय में होता रहा है। बहरहाल, अधिकांश निवेशकों ने शेयर में निवेश जारी रखा है। म्युचुअल फंड में निवेश इसका उदाहरण है और यह लॉकडाउन के दौरान भी मजबूत बना रहा। शेयर में आस्था बरकरार रहने के पीछे कुछ तर्क भी हैं। यह सही है कि शेयर मूल्यांकन को अल्पावधि में उचित नहीं ठहरा सकते और कॉर्पोरेट प्रदर्शन कम से कम अगले दो वर्ष तक स्थिर रहेगा। दीर्घावधि में शेयर अन्य परिसंपत्तियों से बेहतर साबित हो सकते हैं।
दिक्कत यह है कि आय में सुधार की कोई स्पष्ट समय सीमा नहीं है और वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारी विसंगति को देखते हुए स्थायी सुधार होने में काफी वक्त लग सकता है। यह भी संभव है कि कई कारोबारी अगले सुधार तक बच ही न सकें। केंद्रीय बैंक के असीमित नकदी डालने पर भी सभी कारोबार नहीं बच सकेंगे। यह ऐसा बाजार है जहां खराब भविष्य वाले कारोबार भी अवास्तविक मूल्यांकन पर काम कर रहे हैं। यह निवेश लायक संसाधनों के गलत आवंटन को बढ़ावा देता है। परिसंपत्ति आवंटन की कोई भी योजना कुछ हिस्सा शेयरों में रखने का सुझाव देगी। परंतु निवेशकों को सावधानी बरतनी होगी क्योंकि अतिशय मूल्यांकन आगे चलकर गिरावट का सबब बन सकता है।

First Published - June 30, 2020 | 12:18 AM IST

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