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रिजर्व बैंक पर ‘नकेल’ सही नहीं

Last Updated- December 05, 2022 | 9:11 PM IST

वित्तीय क्षेत्र में सुधारों पर बनी रघुराम राजन कमिटी की रिपोर्ट वेबसाइट पर पहुंच चुकी है और इस पर टिप्पणियां भी मांगी गई हैं।


मैं इस न्योते को डरते हुए स्वीकार कर रहा हूं। पिछले साल जब युवा पर्सी मिस्त्री ने अपनी रिपोर्ट ‘मुंबई : एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेंटर’ पर मुझे एक कॉलम लिखने को राजी किया था, तो बाद में उन्हें थोड़ी निराशा हुई थी।


दरअसल, मैंने इसमें तारीफ के साथ कुछ खामियों की भी बात कही थी। मुझे लगता है कि रघुराम राजन (प्रोफेसर ऑफ फाइनैंस, शिकागो बिजनेस स्कूल) थोड़े सख्तमिजाज हैं। इस वजह से मैं इस रिपोर्ट के ड्राफ्ट की कुछ खास कमजोरियों का ही जिक्र करूंगा। साथ ही मैं कहना चाहूंगा कि इस दस्तावेज में कई दिलचस्प और अच्छे सुझाव भी शामिल हैं। हम शुरुआत कमिटी के ढांचे से करते हैं।


कमिटी की संरचना में बुनियादी खामी नजर आती है। हालांकि मैं इस बात की ओर इशारा नहीं कर रहा हूं कि कमिटी में अर्थशास्त्रियों (एक भी नहीं) के मुकाबले वित्तीय महारथियों का दबदबा है। इससे भी अहम कमिटी में भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ प्रतिनिधियों की गैरमौजूदगी है।


भारत का अनुभव बताता है कि जब तक वित्तीय क्षेत्र के किसी भी दस्तावेज में रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय की नुमाइंदगी नहीं होती, ऐसी रिपोर्ट पर अमल की राह मुश्किल हो जाती है। बहरहाल, इन बातों पर चर्चा से अब कोई फायदा नहीं है। अब हम रिपोर्ट के तथ्यों के बारे में चर्चा करते हैं।


रघुराम राजन रिपोर्ट (आरआरआर) ने मैक्रो-इकोनॉमिक ढांचे को लेकर जो आकलन किए हैं, वह सैध्दांतिक जान पड़तं हैं और यह भारतीय मैक्रो-इकोनॉमिक ढांचा और अनुभव की हकीकत से दूर दिखाई देता है। रिपोर्ट को झांकने पर लगता है कि यह विकासशील देश में माइक्रो-इकोनॉमिक पॉलिसी की जरूरतों और संभावनाओं को समझने में नाकाम रही है।


अगर हाल के वर्षों में विकास और महंगाई की दर की हालत खराब होती, तो इसे नजरअंदाज भी किया जा सकता था, जबकि हकीकत यह है कि अन्य विकासशील देशों के मुकाबले इस मामले में भारत का प्रदर्शन काफी बढ़िया रहा है। रिपोर्ट में मैक्रो-इकोनॉमिक्स के प्रति इस नजरिए की वजह से दुस्साहसपूर्ण सिफारिशों का जिक्र किया गया है। मसलन, आरबीआई का सिर्फ एक ही मकसद होना चाहिए – महंगाई की दर को को कम करना।


युवा स्तंभकारों के लिए इसकी वकालत करना भले ही आज का फैशन हो, लेकिन इस बाबत किसी उच्चस्तरीय कमिटी द्वारा ऐसी सिफारिश किया जाना काफी गंभीर मामला है। इस सिफारिश का मतलब यह निकलता है कि रिजर्व बैंक के बाकी सारे मकसद बेमानी हैं। मसलन, देश की आर्थिक गतिविधियों का विकास, वित्तीय स्थिरता और एक्सचेंज रेट पर निगाह आदि।


दिलचस्प बात यह है कि रिपोर्ट में ठीक-ठीक यह भी नहीं बताया गया है कि इन कामों की जिम्मेदारी किसे सौंपी जानी चाहिए। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ देशों (खासकर विकसित देशों में) में किसी खास समय में केंद्रीय बैंकों पर महंगाई की दर का एकमात्र बोझ का विकल्प हिट साबित हो सकता है। जरूरत इस बात को समझने की है कि भारत की वर्तमान परिस्थितियों में यह विकल्प बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है।


यहां इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि विकसित वित्तीय प्रणाली मसलन अमेरिका में केंद्रीय बैंक कई मोर्चों पर काम करता है। इसके अलावा बैंक ऑफ इंग्लैंड ने पिछले साल सिर्फ महंगाई की दर पर फोकस नहीं किया। बैंक ने उस वक्त नार्दर्न रॉक संकट से निपटने के लिए कई नीतियों का ऐलान किया था।


अब हम रिपोर्ट में नियामक ढांचे के बारे में की गई चर्चा की बात करते हैं। मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि कमिटी ने ‘सिंगल नियामक’ मॉडल का राग नहीं अलापा है। हालांकि दुर्भाग्य से इसमें कई ऊटपटांग प्रस्तावों की बात कही गई है। इसके तहत वैधानिक फाइनैंशल सेक्टर ओवरसाइट एजेंसी (एफएसओए) बनाने की बात है।


नियामक संस्थाओं के प्रमुख को इसका सदस्य बनाने की बात है। साथ ही रिपोर्ट में महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थाओं पर निगाह रखने के लिए ‘स्थायी सचिवालय’ बनाने की सिफारिश भी की गई है। नई नियामक संस्थाओं के मद्देनजर इस देश में पैदा होने वाले खतरों को भांपने में आरआरआर पूरी तरह नाकाम रही है। भारत ऐसा मुल्क है, जहां नौकरशाह समस्या को हल करने के बजाय आपस में ही भिड़ जाते हैं।


अगर मामला एक-दूसरी नियामक संस्थाओं से जुड़ा होगा, तो एफएसओए विवाद का अखाड़ा बन जाएगा। इसके मद्देनजर बेहतर यह होगा कि केंद्रीय बैंक को प्रमुख अधिकार मुहैया कराए जाएं और समन्वय का मसला औपचारिक उपसंस्थाओं के जरिये हल किया जाए। जैसा हम शेयर बाजार पर रिजर्व बैंक के गवर्नर की अध्यक्षता में बनी कमिटी के जरिये कर रहे हैं। इसके अलावा खास मुद्दों पर वित्त मंत्री की मदद ली जा सकती है।


रिपोर्ट में प्रस्तावित फाइनैंशल डिवेलपमेंट काउंसिल (एफडीसी) पर भी मेरी कुछ ऐसी ही चिंता है। वित्त मंत्री की अध्यक्षता में बनने वाली इस काउंसिल का मकसद बड़े आर्थिक खतरों और विकास से जुड़े मुद्दों को देखना है। इससे भी स्वायत्त वित्तीय क्षेत्र की नियामक संस्थाओं पर नौकरशाही और जरूरत से ज्यादा सरकारी दखल का खतरा पैदा होगा।


बेहतर यह होगा कि वर्तमान सिस्टम से छेड़छाड़ न की जाए, जिसके तहत अपेक्षाकृत कम ठोस चैनलों के जरिये मंत्रालय अपनी सलाह देता है। साथ ही हमें यह भी जानने की कोशिश करनी चाहिए कि किन-किन देशों में ऐसी संस्थाएं मौजूद हैं और इसे किस तरह अमल में लाया जा रहा है या क्या भारत ही इस संबंध में यह प्रयोग करेगा?


इसी तरह नियामकों के लिए समय-समय पर संसदीय निगरानी के प्रस्ताव से भी काफी झंझट पैदा हो सकता है। इन नियामकों को अपनी भूमिका अदा करने में राजनीतिक दखलअंदाजी का सामना करना पड़ सकता है, जिसके बारे में इस कमिटी ने नहीं सोचा होगा।


मेरी सलाह यह होगी कि इस मामले में काफी सावधानी बरते जाने की जरूरत है। बहरहाल, आरआरआर के मद्देनजर मैंने अपनी चिंताओं और इस बाबत बदलाव का अजेंडा पेश कर दिया है। बीते वक्त ने मुझे रिपोर्ट पर टिप्पणियों के बाद इसमें ज्यादा बदलाव की अपेक्षा नहीं करना सिखाया है। हालांकि मैं इसकी परवाह नहीं करता और मैंने अपना धर्म निभाया है।

First Published - April 10, 2008 | 11:22 PM IST

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