देश भर में कोविड-19 के 4.25 लाख से अधिक मामले हो चुके हैं और नए मामलों की तादाद बढ़कर 15,000 रोजाना का आंकड़ा छू चुकी है। इसके बावजूद अभी देश में कोरोना अपने चरम पर नहीं पहुंचा है। ब्राजील को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख देशों में यह अपना शिखर छू चुका है। अमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया में इसकी दूसरी लहर भी देखने को मिल रही है। देश में तत्काल चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि 1.74 लाख से अधिक लोगों के अभी भी संक्रमित होने के अलावा 2.37 लाख से अधिक लोग इससे ठीक भी हो चुके हैं। वहीं 13,699 मृतकों का आंकड़ा भी आबादी की तुलना में कम ही है। सामान्य दिनों में देश में रोजाना 26,000 मौतें होती हैं और कोविड-19 से रोजाना होने वाली मौतों का मामला अधिकतम 425 के आसपास तक गया है जो काफी कम है। इसके बावजूद भारत वैश्विक स्तर पर कोरोना से होने वाली मौतों के मामले में आठवें स्थान पर है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की 21 जून की रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि भारत में प्रति लाख 30.4 कोविड-19 के मामले हैं जो दुनिया में सबसे कम आंकड़ों में शामिल हैं। वैश्विक औसत 114.67 प्रति लाख है। मंत्रालय ने इस आंकड़े को सरकार की सक्रियता और प्राथमिकता का प्रमाण बताया है। परंतु इस आत्मप्रशंसा से परे कुछ मसले भी हैं। उदाहरण के लिए आधिकारिक आंकड़ों की सच्चाई की बात करें तो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशानिर्देशों के कारण केवल उन्हीं मामलों की जांच की जा रही है जहां मरीजों में लक्षण नजर आ रहे हैं। उनके संपर्क में आने वालों की भी जांच की जा रही है।
सामुदायिक प्रसार की बात नहीं मानी जा रही लेकिन व्यापक जांच के बिना यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं। छोटे देशों में ज्यादा जांच से बिना लक्षण वाले मामले सामने आए जो अनचाहे ही बीमारी फैला रहे थे। हमारे देश के कई शहरों में अब आंकड़ा चीन के कुल संक्रमितों के आसपास पहुंच रहा है। रोज बढ़ते आंकड़ों से यही अनुमान है कि वास्तविक संक्रमित बहुत अधिक होंगे। बहुत संभव है कि ब्राजील की तरह हम 10 लाख का आंकड़ा पार कर जाएं। अमेरिका में 20 लाख से अधिक मामले हैं।
कम जांच के कारण आशंका यही है कि शायद हम भविष्य में बीमारी के विस्फोट की स्थिति में पर्याप्त तैयारी न रख पाएं। लॉकडाउन का दोहराव संभव नहीं क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंची और हमारी सरकार यूरोप, अमेरिका और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों जैसा सुरक्षा ढांचा नहीं दे सकती। सवाल यह है कि कहीं यह संकट देश की क्षमताओं पर भारी तो नहीं पड़ जाएगा? देश में 900 से भी कम जांच केंद्र हैं और उनमें आधे सरकारी हैं। यह तादाद नाकाफी है। देश के सरकारी अस्पतालों में 7 लाख बेड हैं और यही पूरा बोझ उठा रहे हैं। अगर स्टेडियम, होटल और धार्मिक स्थानों पर नए अस्पताल बनें तो भी चिकित्सकों और परिचारिकाओं की भारी कमी है।
चिकित्सा उपकरणों के उत्पादन में भी सुधार हुआ है और वेंटिलेटर तथा पीपीई आदि देश में ही बन रहे हैं। परंतु शायद सबसे बड़ी विफलता है देश के निजी अस्पतालों की अत्यंत खराब प्रतिक्रिया। इन अस्पतालों में बहुत अधिक धनराशि वसूली जा रही है और गरीबों के लिए जगह ही नहीं है। यह स्पष्ट नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारें उनके साथ नरमी से पेश आ रही हैं। आसन्न संकट का तकाजा यही है कि निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को भी पूरी तरह तैयार रहने को कह दिया जाए।