व्यापार में नई जान फूंकने और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए कुछ खास कदम उठाने की आवश्यकता है। इस बारे में नौ सुझाव दे रहे हैं अजय श्रीवास्तव
देश का विदेश व्यापार वर्ष 2023-24 में 1.63 लाख करोड़ डॉलर मूल्य का रहा और सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 41 फीसदी था। इससे देश की अर्थव्यवस्था और रोजगार निर्माण में इसकी अहम भूमिका जाहिर होती है। इस क्षेत्र के सामने अहम आंतरिक एवं बाह्य चुनौतियां मौजूद हैं। हम यहां नौ सुझावों की बात करेंगे जो नई सरकार के लिए व्यापार और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने में अहम साबित हो सकते हैं।
श्रम आधारित निर्यात को पुनर्जीवन
2015 की तुलना में 2023 में अधिकांश श्रम गहन क्षेत्रों में निर्यात कम हुआ। अहम उत्पाद श्रेणियों में शामिल हैं तैयार वस्त्र, कपड़ा, धागा, फाइबर, कालीन, चमड़े के उत्पाद, जूते-चप्पल, हीरे और सोने के आभूषण आदि। अन्य क्षेत्रों की तुलना में ये क्षेत्र निवेश पर अधिक रोजगार उत्पन्न करते हैं।
बांग्लादेश और वियतनाम ने वस्त्र तैयार करने के लिए आयातित कपड़े पर भरोसा किया और भारत को पीछे छोड़ दिया। इसके लिए उन्होंने बीते दो दशक में विशिष्ट उपाय अपनाए।
कपड़ा क्षेत्र के लिए उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना कामयाब नहीं रही है और उसे बंद करना ही बेहतर होगा। तकनीक कोई मुद्दा नहीं है। सलाहकारों की खुशनुमा भविष्य की रिपोर्ट के बजाय इस क्षेत्र को ईमानदार आकलन की जरूरत है। अगर निर्यात में गिरावट नहीं रुकती है तो हमें इन क्षेत्रों का आयात बढ़ता हुआ नजर आएगा।
सेवा निर्यात में विविधता
देश के सेवा निर्यात क्षेत्र की आय का तीन चौथाई हिस्सा सॉफ्टवेयर और आईटी तथा कारोबारी सेवा क्षेत्र से आता है। इन दोनों क्षेत्रों में भारत की वैश्विक हिस्सेदारी 9 फीसदी है जो काफी अधिक है। वैश्विक सेवा निर्यात में इस श्रेणी की हिस्सेदारी 36 फीसदी है। इन दोनों के अलावा अन्य सेवाएं वैश्विक निर्यात में 64 फीसदी की हिस्सेदार हैं जहां भारत की हिस्सेदारी महज 1.9 फीसदी है।
भारत की वैश्विक हिस्सेदारी वाली कुछ अन्य सेवाएं हैं परिवहन और यात्रा (2.4 फीसदी), रखरखाव और सुधार कार्य (0.24 फीसदी), बीमा और पेंशन सेवाएं (1.38 फीसदी), वित्तीय सेवाएं (1.30 फीसदी) तथा बौद्धिक संपदा के उपयोग के लिए शुल्क (0.23 फीसदी)। भारत को इन क्षेत्रों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि सेवा निर्यात में हमारा प्रदर्शन बेहतर हो।
चीन पर अहम निर्भरता में कमी
औद्योगिक वस्तुओं के लिए भारत के औसत वैश्विक आयात में 30 फीसदी चीन से आता है। इसमें दूरसंचार और स्मार्टफोन के कलपुर्जों की हिस्सेदारी 44 फीसदी, लैपटॉप और पीसी की 77.7 फीसदी, डिजिटल मोनोलिथिक इंटीग्रेटेड सर्किट की 26.2 फीसदी, असेंबल्ड फोटोवोल्टिक सेल्स की 65.5 फीसदी, लीथियम ऑयन बैटरी की 75 फीसदी, डाइ अमोनियम फॉस्फेट की 40.9 फीसदी, रेडियो ट्रांसमिशन और टेलीविजन आदि की 68.5 फीसदी तथा ऐंटीबायोटिक्स की 88.4 फीसदी है।
2019 से 2024 तक चीन को भारत का निर्यात करीब 16 अरब डॉलर सालाना पर ठहरा रहा। इस बीच चीन से होने वाला आयात वित्त वर्ष 19 के 70.3 अरब डॉलर से बढ़कर वित्त वर्ष 24 में 101 अरब डॉलर हो गया। अमेरिका और यूरोपीय संघ चीन से होने वाले आयात को कम करने के लिए शुल्क दरें बढ़ा रहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया चीन के निवेशकों से कह रहा है कि वे ऑस्ट्रेलिया के दुर्लभ जमीनी संसाधनों के खनन में अपनी हिस्सेदारी छोड़ें क्योंकि यह क्षेत्र पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा और रक्षा क्षेत्र के लिए अहम है।
भारत में चीन से होने वाला आयात बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि संयुक्त उपक्रमों अथवा व्यक्तिगत स्तर पर भी चीनी कंपनियां भारत में प्रवेश कर रही हैं। भारत को नए सिरे से आकलन करने की आवश्यकता है। उसे अपने आयात के स्रोतों में विविधता लाने तथा घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़ाने की भी जरूरत है।
सुनिश्चित करें कि एफटीए इनवर्टेड ड्यूटी ढांचे में वृद्धि न हो: इनवर्टेड शुल्क ढांचा तब माना जाता है जब तैयार वस्तुओं पर आयात शुल्क कच्चे माल से कम होता है।
उदाहरण के लिए अगर पीतल और उससे तैयार पाइप, दोनों पर 5 फीसदी शुल्क हो तथा मुक्त व्यापार समझौता पाइप पर शुल्क को घटाकर शून्य कर दे तो स्थानीय रूप से उत्पादित पाइप कम प्रतिस्पर्धी रह जाते हैं। कंपनियां सस्ते आयात पर जोर देती हैं और स्थानीय निर्माण प्रभावित होता है।
पहले बजट में ऐसी कमियां दूर कर दी जाती थीं। बहरहाल, बढ़ते मुक्त व्यापार समझौते (FTA) अधिकांश औद्योगिक उत्पादों पर आयात शुल्क को शून्य करके समस्या बढ़ा रहे हैं। गैर एफटीए वाले देशों से कच्चे माल के आयात पर उच्च शुल्क और एफटीए साझेदार से शुल्क मुक्त तैयार वस्तु, स्थानीय खरीद पर आयात को बढ़ावा दे रहे हैं।
एफटीए के प्रदर्शन पर डेटा प्रकाशन
भारत ने 14 व्यापक एफटीए पर हस्ताक्षर किए हैं और उसने छह छोटे प्राथमिकता वाले व्यापार समझौतों पर दस्तखत किया है। सरकार को आंकड़े जारी करने चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या एफटीए अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं या फिर सुधार की जरूरत है। इससे निकले सबक भविष्य की वार्ताओं में मदद करेंगे।
यूरोपीय जलवायु नियमन के प्रतिकूल प्रभाव
यूरोपीय संघ के वनों की कटाई के नियम, कार्बन सीमा समायोजन उपाय (सीबीएएम) नियमन, विदेशी सब्सिडी नियमन और जर्मन आपूर्ति श्रृंखला उचित सावधानी अधिनियम असर डालेंगे और देश के निर्यात में अनिश्चितता बढ़ाएंगे। यूरोपीय संघ से आने वाली अपुष्ट खबरों के मुताबिक आधे से कम भारतीय निर्यातकों ने ही सीबीएएम के अनुपालन के आंकड़े संघ के साथ साझा किए हैं।
पूरे क्रियान्वयन के बाद सीबीएएम के कारण भारतीय कंपनियों पर 20-35 फीसदी आयात शुल्क लगेगा। कंपनियों को सभी संयंत्र और उत्पादन सूचनाएं यूरोपीय संघ के साथ साझा करनी होंगी। इसके अलावा कंपनियों को दो उत्पादन लाइन संचालित करनी होंगी ताकि प्रभावी प्रतिस्पर्धा कर सकें: एक, यूरोपीय देशों में निर्यात के लिए महंगे किंतु पर्यावरण के अनुकूल उत्पाद तथा दूसरा, शेष विश्व के लिए मानक उत्पाद। अब वक्त है एक योजना तैयार करने की ताकि यूरोपीय संघ के नियमन का मुकाबला किया जा सके और यूरोपीय संघ से होने वाले आयात पर ऐसे ही नियम लगाए जा सकें।
गुणवत्ता व्यवस्था में सुधार
हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर और अमेरिका ने हाल में भारतीय ब्रांड के मसालों को लेकर जो चिंता जताई है, वह बताती है कि तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। भारतीय खाद्य एवं कृषि निर्यातकों को अक्सर अमेरिकी और यूरोपीय संघ के इनकार का सामना करना पड़ता है। ऐसा अक्सर कीटनाशकों की मात्रा और अन्य गुणवत्ता कारणों से होता है।
भारत को अपने गुणवत्ता मानकों को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना चाहिए ताकि ऐसे नकारे जाने के मामले कम हों, सब्जियों, मसालों और डेरी उत्पादों आदि प्रमुख निर्यात के लिए खेत से लेकर खाने तक ब्लॉकचेन ट्रेसिंग का विस्तार करना चाहिए, उद्योग के साथ परामर्श के बाद गुणवत्ता नियंत्रण आदेश देना चाहिए। भारतीय उत्पादों की वैश्विक स्वीकार्यता को बढ़ावा देने के लिए प्रमुख निर्यात भागीदारों के साथ परस्पर समझौतों पर हस्ताक्षर करना चाहिए।
कारोबारी सुगमता को बढ़ावा
हमें सरकार और कारोबारों के रिश्तों को सरकारी विभागों के चंगुल से निकालकर कारोबारों के अनुरूप करना होगा। फिलहाल निर्यातकों को कई सरकारी विभागों से अलग-अलग निपटना होता है।
उपयोगकर्ताओं के अनुकूल ऑनलाइन राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क कायम करने से कारोबारों के लिए एक ही स्थान पर प्रक्रियाएं पूरी करना आसान होगा। इस बदलाव से एक लाख छोटी कंपनियां एक साल के भीतर निर्यात आरंभ कर सकती हैं।
अन्य निर्यात संवर्धन उपाय
देरी और लागत कम करने के लिए सीमा शुल्क प्रक्रिया को स्वचालित करना होगा। आधुनिक बंदरगाहों में निवेश, किफायती लॉजिस्टिक्स और डिजिटल व्यवस्था अपनानी चाहिए। मौजूदा बाजारों में उच्च मूल्य वाली वस्तुओं का निर्यात, छोटे कारोबारों को वैश्विक पहुंच बनाने में मदद, ऋण तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना, ई-कॉमर्स निर्यात को बढ़ावा और अहम बाजारों में गैर टैरिफ गतिरोध को समाप्त करना, कुछ और कदम हो सकते हैं।
जानकारों के मुताबिक निर्यात वृद्धि को गति देने के लिए किसी देश को आयात टैरिफ कम करना चाहिए, एफटीए पर हस्ताक्षर करने चाहिए और वैश्विक मूल्य श्रृंखला के साथ एकीकरण करना चाहिए।
बहरहाल यह रणनीति केवल तभी कारगर होगी जब हम पहले लागत कम करेंगे और कारोबारी माहौल में सुधार लाएंगे। बिना कारोबारी सुगमता में सुधार किए शुल्क दरों में कमी करने से आयात बढ़ेगा और स्थानीय विनिर्माण और रोजगार की जगह लेगा।
(लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं)