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खेती बाड़ी: आमदनी बढ़ाने में बांस की खेती होगी कारगर, एक हेक्टेयर से कमाएं 80,000 रुपये तक

स समय 1.57 करोड़ हेक्टेयर से भी ज्यादा भूमि पर बांस की खेती होने का अनुमान है। देश में उगने वाले कुल बांस का लगभग 50 फीसदी पूर्वोत्तर क्षेत्र में होता है।

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सुरिंदर सूद   
Last Updated- August 25, 2024 | 9:18 PM IST

कभी ‘गरीबों की लकड़ी’ कहलाने वाला बांस अब किसानों के लिए रकम पैदा करने का जरिया बन गया है और इसीलिए उसे ‘हरा सोना’ कहा जाता है। आधुनिक तरीकों से इसकी खेती करना गन्ने और कपास जैसी कीमती फसलों से भी ज्यादा फायदेमंद साबित हो रहा है। इसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने की संभावना देखते हुए सरकार ने राष्ट्रीय बांस मिशन और एकीकृत बागवानी विकास मिशन को नए सिरे से शुरू किया गया है, जिसके तहत देश के विभिन्न हिस्सों में बांस की खेती को बढ़ावा देने के लिए योजनाएं लागू की जा रही हैं।

इन योजनाओं में लकड़ी के विकल्प के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में बांस का उपयोग बढ़ाने के उपाय शामिल हैं। साथ ही बांस और इससे बने उत्पादों के उत्पादन, देश में मार्केटिंग तथा निर्यात के लिए मूल्य श्रृंखला बनाने के उपाय भी किए जा रहे हैं। नीति आयोग का अनुमान है कि साल 2025 तक दुनिया में बांस का बाजार लगभग 98.3 अरब डॉलर का हो जाएगा। चीन के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांस उत्पादक देश है और तेजी से बढ़ते वैश्विक बाजार में बड़ा हिस्सा हासिल करने की कोशिश कर रहा है। देश में बांस की 136 देसी किस्में होती हैं और इस बहुमूल्य तथा बहुउपयोगी पौधे का करीब 32.3 लाख टन सालाना उत्पादन होता है।

जंगली पौधे के बजाय कृषि फसल के रूप में बांस की खेती को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2017 में भारतीय वन अधिनियम में एक अहम संशोधन किया गया, जिसके तहत बांस को ‘पेड़’ के बजाय ‘घास’ की श्रेणी में डाल दिया गया। इससे पेड़ों और दूसरे वन उत्पादों की कटाई, ढुलाई तथा बिक्री पर लगे तमाम तरह के प्रतिबंध बांस से हट गए। वनस्पति विज्ञान में पौधों का वर्गीकरण भी इस कदम को सही ठहराता है, जिसमें बांस को घास के एक विशेष परिवार में रखा गया है। इसमें गेहूं, चावल, जई, राई, मक्का, ज्वार और बाजरा जैसी खाद्य फसलें भी इसी परिवार में आती हैं। अब बांस की खेती भी दूसरी फसलों की तरह की जा सकती है और इसे बेचने के लिए न तो किसी लाइसेंस की जरूरत पड़ती है और न ही वन विभाग या किसी अन्य सरकारी एजेंसी की इजाजत लेनी पड़ती है।

बांस प्राकृतिक रूप से पूर्वोत्तर भारत और पश्चिम बंगाल में होता है, जहां इसका दायरा तेजी से बढ़ रहा है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और पश्चिमी घाट जैसे इलाकों में भी इसकी खेती तेजी से फैल रही है। इस समय 1.57 करोड़ हेक्टेयर से भी ज्यादा भूमि पर बांस की खेती होने का अनुमान है। देश में उगने वाले कुल बांस का लगभग 50 फीसदी पूर्वोत्तर क्षेत्र में होता है।

मीडिया में हाल में आई खबरों के मुताबिक गुजरात में पिछले दो वर्षों में बांस किसानों की संख्या दोगुनी हो गई है। महाराष्ट्र सरकार ने 7 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर प्रोत्साहन का ऐलान कर बांस की खेती का रकबा 10,000 हेक्टेयर तक बढ़ाने की योजना का ऐलान किया है। यह पहल पर्यावरण प्रदूषण पर अंकुश लगाकर कार्बन सिंक (कार्बन डाई ऑक्साइड सोखने वाले इलाके) बनाने की राज्य की रणनीति का हिस्सा है। बांस कार्बन डाई ऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने में बहुत कारगर होते हैं। कई अध्ययनों में पता चला है कि ज्यादातर पौधों की तुलना में बांस 35 फीसदी अधिक ऑक्सीजन का उत्पादन करता है।

खास बात है कि बांस दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाले पौधों में शामिल है। आम तौर पर यह एक ही दिन में 30 से 90 सेंटीमीटर (1 से 3 फुट) तक बढ़ जाता है, जिसके कारण यह बायोमास के सबसे कारगर उत्पादकों में से एक है। इस बायोमास का इस्तेमाल भोजन से ईंधन तक विभिन्न उत्पाद बनाने में किया जाता है। बांस की नई टहनियों से पूर्वोत्तर राज्यों में सब्जी बनाई जाती है या दूसरे स्थानीय व्यंजनों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। बांस से बने खाद्य पदार्थ सेहतमंद माने जाते हैं क्योंकि इनमें फाइबर भरपूर होता है मगर कैलरी कम होती हैं। इनका स्वाद भी एकदम अलग होता है। बांस की जड़ समेत उसके कुछ हिस्से औषधि के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। पूर्वोत्तर में इनका इस्तेमाल पारंपरिक उपचार में किया जाता है।

बांस को पर्यावरण के अनुकूल जैव ईंधन जैसे एथनॉल बनाया जा सकता है या इसकी लुगदी से कागज भी बनाया जा सकता है। मजबूती और लचीलेपन की वजह से निर्माण क्षेत्र में भी बांस का व्यापक उपयोग होता है, जहां इसकी मचानें खूब बनाई जाती हैं। इसके अलावा मेज, कुर्सी, पलंग जैसे फर्नीचर और दूसरे घरेलू सामान बनाने में भी इसका इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है क्योंकि यह हल्का, टिकाऊ होता है तथा बिल्कुल अलग दिखता है।

व्यावसायिक मकसद से खेती करने पर बांस को आम तौर पर बरसात के मौसम में रोपा जाता है। इसकी कलमों की रोपाई होती है। कटाई के बाद जो हिस्सा जमीन में बच जाता है, उससे भी नया बांस उग जाता है। पौधे को कटाई के लायक बनने में करीब 5 वर्ष लग जाते हैं। बांस की रोपाई के बाद शुरुआती दो-तीन वर्षों में इसके पौधों के बीच मौजूद जगह में हल्दी, मिर्च और अदरक जैसी कई फसल उगाई जा सकती हैं, जिनसे अतिरिक्त कमाई हो जाती है। एक हेक्टेयर रकबे में औसतन 30 से 35 टन बांस सालाना होता है।

बांस के बाग को अच्छी तरह संभाला जाए, ज्यादा उपज वाली किस्में लगाई जाएं, नकदी का इस्तेमाल हो और खेती की अच्छी पद्धति आजमाई जाएं तो उपज बढ़ भी सकती है। ‘बीमा बांस’ जैव प्रौद्योगिकी के जरिये तैयार की गई बांस की अधिक उपज वाली किस्म है, जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। एक बांस आम तौर पर 100 रुपये में बिकता है। इस हिसाब से इसकी खेती करने वाले सालाना 75,000 से 80,000 रुपये प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ कमा सकते हैं। इतना रिटर्न बहुत कम फसलों में मिल पाता है।

First Published : August 25, 2024 | 9:18 PM IST