दुनिया में हाल की सैन्य झड़पों में दूर से मार करने वाले साधन एवं हथियार जैसे लड़ाकू विमान, मिसाइल एवं ड्रोन जमकर इस्तेमाल में लाए गए हैं। इन्हें चलाने के लिए सैनिकों के जमावड़े या उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान भेजने की जरूरत नहीं पड़ती है। दूर से ही दुश्मनों के ठिकानों पर हमले करने के लिए उपग्रह प्रणाली से संचालित तकनीकों जैसे जीपीएस (अमेरिका), ग्लोनास (रूस), गैलीलियो (यूरोपीय संघ) और बेईदोउ (चीन) की जरूरत पड़ती है। ये तकनीक मिसाइलों एवं ऐसे अन्य हथियारों को लंबी दूरी तक मार करने और सटीक निशाना साधने में मदद करती हैं।
मगर युद्ध में स्वयं ये तकनीक निशाने पर आने लगी हैं। नए जमाने के युद्ध में जैमिंग (रिसीवरों को शोर से निष्क्रिय कर देना), स्पूफिंग (स्थान को लेकर गलत सूचना भेजना) और मीकोनिंग (देरी से मिल रहे या बदले संकेतों को दोबारा प्रसारित करना) की भूमिका काफी बढ़ गई है। अन्य तकनीकों में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शील्डिंग, सिग्नल मास्किंग और रेडार को निष्प्रभावी करने वाली सामग्री शामिल हैं। प्राकृतिक घटनाएं जैसे सौर ज्वालाएं या आयन मंडल में होने वाली हलचल भी उपग्रहों से आने वाले संकेतों की गुणवत्ता बिगाड़ सकते हैं जिनसे ये तकनीक अधिक कारगर नहीं रह जाते हैं।
यूक्रेन से लेकर पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया में जैमिंग, स्पूफिंग और साइबर हमले आम हो गए हैं जिससे जीपीएस वंचित माहौल में एक मजबूत और मल्टी-मॉडल नेविगेशन तकनीक की जरूरत महसूस की जा रही है। हालांकि, विकल्प के तौर पर जड़त्वीय संचालन प्रणाली (इनर्शियल नेविगेशन सिस्टम), भूभाग समोच्च मिलान (टेरकॉम), छवि आधारित निर्देश (इमेज बेस्ड गाइडेंस), एन्क्रिप्टेड सैटेलाइट सिग्नल और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) आधारित उपाय इस्तेमाल में लाए गए हैं मगर इनमें प्रत्येक की अपनी कुछ सीमाएं हैं।
जड़त्वीय संचालन प्रणाली समय के साथ बेअसर हो सकती है और इसके लिए समय-समय पर उपग्रहों को अद्यतन करने की आवश्यकता होती है। टेरकॉम के साथ दिक्कत यह है कि यह कम रोशनी या सपाट जगह पर प्रभावी तरीके से काम नहीं करती है और विस्तृत अद्यतन मानचित्रों पर निर्भर रहती है। अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में कूट संकेत (एन्क्रिप्टेड सिग्नल) भी बेअसर हो सकते हैं। एआई एल्गोरिद्म भी अनजानी परिस्थितियों में सीमित सूचनाओं के अभाव में बेअसर हो सकता है। इनमें कोई भी पूरी तरह पुख्ता नहीं है जिसे देखते हुए एक एकीकृत, अनुकूलित संचालन प्रणाली की जरूरत महसूस की जा रही है।
इन्हीं कारणों से क्वांटम मैग्नेटिक नेविगेशन सिस्टम (क्यूएमएनएस) का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। क्यूएमएनएस पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में बदलाव का पता लगाने के लिए क्वांटम सेंसर का इस्तेमाल करती है और इसके लिए उसे जीपीएस या उपग्रह से प्राप्त संकेतों पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ता है। क्यूएमएनएस अति संवेदनशील क्वांटम मैग्नेटोमीटर सेंसरों को चुंबकीय विसंगति मानचित्रों और एक इनर्शियल नेविगेशन सिस्टम के साथ जोड़ देता है। इन मानचित्रों की मदद से स्थानीय चुंबकीय मापों की तुलना कर क्यूएमएनएस प्रणाली जीपीएस की गैर-मौजूदगी में भी सटीक स्थान का पता लगा सकती है।
माना जा रहा है कि आने वाले समय में हवाई युद्ध और पानी के अंदर चलाए जाने वाले अभियानों दोनों में क्यूएमएनएस तकनीक का महत्त्व काफी बढ़ सकता है। पानी के अंदर परंपरागत उपग्रह आधारित संचालन प्रणाली जैसे जीपीएस उपलब्ध नहीं हैं। सैन्य पनडुब्बियों, मानव रहित पनडुब्बी वाहन (यूयूवी) और गहरे समुद्र में काम आने वाले टोही प्लेटफॉर्म आदि के लिए क्यूएमएनएस सटीक एवं भटकाव मुक्त संचालन में मदद करती हैं।
रक्षा क्षेत्र के अलावा यह तकनीकी आर्थिक गतिविधियों जैसे समुद्र के अंदर खनन, तेल अन्वेषण, समुद्र के अंदर केबल के निरीक्षण में भी काफी उपयोगी हो सकती है। समुद्री संसाधनों और समुद्री क्षेत्रों की सुरक्षा की होड़ दुनिया के देशों के बीच तेज होने के बाद क्यूएमएनएस समुद्र के भीतर स्वायत्त अभियानों को बढ़ावा देने में एक तेजी से उभरती अहम तकनीक साबित हो रही है।
स्पिन-एक्सचेंज रिलेक्सेशन-फ्री मैग्नेटोमीटर के विकास के बाद 1990 के दशक के अंत में क्वांटम मैग्नेटिक सेंसिंग में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ने लगी। स्पिन-एक्सचेंज रिलेक्सेशन-फ्री मैग्नेटोमीटर पुराने सेंसर की तुलना में कहीं अधिक सटीक अनुमान के साथ अत्यंत छोटे चुंबकीय क्षेत्र का पता लगा सकते हैं। 2010 के मध्य में अमेरिका और चीन में रक्षा एजेंसियों ने सैन्य इस्तेमाल (खासकर पनडुब्बियों और जीपीएस वंचित माहौल के लिए) के लिए क्वांटम मैग्नेटोमीटर के इस्तेमाल में निवेश करना शुरू कर दिया। 2020 के दशक की शुरुआत से छोटे नमूनों का परीक्षण हुआ है और उन्हें अगली पीढ़ी के इनर्शियल और समुद्र के अंदर के नेविगेशन प्रणाली से जोड़ा जा रहा है।
माना जा रहा है कि अमेरिका की रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी 2027 के बाद पनडुब्बियों और स्टेल्थ ड्रोन नेविगेशन के लिए पूरी तरह तैयार प्रणाली का उपयोग शुरू कर सकती है। अमेरिका ने हाल में जो परीक्षण किए हैं उनसे पता चलता है कि एक्यूएनएवी (क्वांटम नेविगेशन और एआई का संयुक्त रूप) समर्थित जीपीएस रहित विमानों का संचालन व्यावसायिक विमानों के संचालन से भी अधिक असरदार रहा है। दूसरे परीक्षणों से भी पता चला है कि क्यूएमएनएस सटीकता के मामले में जीपीएस को पीछे छोड़ सकता है।
कई देश क्यूएमएनएस के रणनीतिक महत्त्व को समझते हुए इसके विकास को आगे बढ़ा रहे हैं। उदाहरण के लिए चीन ने उच्च संवेदनशीलता वाले एटॉमिक मैग्नेटोमीटर का प्रदर्शन किया है और 2017-2018 की शुरुआत में क्वांटम नेविगेशन सिस्टम के फील्ड ट्रायल का दावा भी किया। माना जा रहा है कि यह सीमित परिचालन उपयोग के करीब है, खासकर पनडुब्बियों के मामले में। ब्रिटेन और जर्मनी भी अगली पीढ़ी की पनडुब्बियों और पानी के अंदर चलने वाले मानव रहित वाहनों में क्वांटम सेंसर लगाने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं।
भारत धीरे-धीरे क्यूएमएनएस तकनीक हासिल कर रहा है और उसके मौजूदा प्रयास शुरुआती चरण के अनुसंधान और नमूने के विकास पर केंद्रित हैं। 6,000 करोड़ रुपये की लागत से चल रहे राष्ट्रीय क्वांटम मिशन में क्वांटम सेंसिंग को काफी अहमियत दी जा रही है। रक्षा अनुसंधान एवं शोध संगठन (डीआरडीओ) ने अति सूक्ष्म परमाणु घड़ी विकसित करने के लिए क्वांटम टेक्नोलॉजी रिसर्च सेंटर की स्थापना की है। यह परमाणु घड़ी जीपीएस वंचित वातावरण में संचालन के लिए महत्त्वपूर्ण है। डीआरडीओ एक परमाणु मैग्नेटोमीटर के विकास में भी लगा हुआ है। आईआईटी बंबई एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने वाले मैग्नेटोमीटर के साथ क्वांटम सेंसर विकसित करने की भी प्रक्रिया में है।
पोर्टेबल मैग्नेटोमीटर ड्रोन में इस्तेमाल किए जा सकते हैं। कई स्टार्टअप कंपनियां अन्य दूसरी जरूरी तकनीक के विकास में भी लगी हुई हैं। उल्लेखनीय है कि जून 2025 में क्यूबीट्स (एक डीप टेक स्टार्टअप) को ‘अदिति 2.0’ डिफेंस चैलेंज के तहत भारतीय नौसेना के लिए क्वांटम पोजिशनिंग सिस्टम विकसित करने के लिए 25 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है। यह एक क्रियाशील क्यूएमएनएसन नमूना तैयार करने की दिशा में भारत की तरफ से किया गया पहला गंभीर प्रयास है।
भारत में तेजी से बढ़ रहा क्वांटम शोध, जीवंत स्टार्टअप तंत्र और उभरती रक्षा जरूरतों का समागम स्थानीय क्यूएमएनएस तकनीक को आगे बढ़ाने का एक अनोखा अवसर प्रदान कर रहा है। भारत के पड़ोस में इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली एवं उपग्रह रोधी हथियारों की तैनाती के कारण केवल उपग्रह-आधारित प्रणाली पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। क्यूएमएनएस सामरिक लिहाज से महत्त्वपूर्ण हिंद महासागर में पानी के अंदर से मौजूद महत्त्वपूर्ण जानकारियां हासिल करने के लिए भी जरूरी है।
इतना ही नहीं, क्यूएमएनएस तकनीक गहरे समुद्र में खोज, खनन और लचीले परिवहन ढांचे के माध्यम से भारत की समुद्री अर्थव्यवस्था को भी ताकत दे सकती है। फिलहाल ‘नाविक’ का अधिक विस्तार नहीं हो पाया है इसलिए क्यूएमएनएस भारत को परंपरागत संचालन प्रणाली से एक संप्रभु, पुख्ता तकनीक की तरफ कदम बढ़ाने की दिशा में उपयुक्त अवसर दे रही है।
(लेखक यूपीएससी के चेयरमैन और पूर्व रक्षा सचिव हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)