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ग्रामीण क्षेत्रों में खरा सोना साबित हो रहा फसलों का अवशेष, बायोमास को-फायरिंग के लिए पॉलिसी जरूरी

सरकार के अनुमानों के मुताबिक, भारत में हर साल 50 करोड़ टन से अधिक कृषि अवशेष बेकार पड़े होते हैं। बता रहे हैं जयंत सिन्हा

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जयंत सिन्हा   
Last Updated- September 09, 2025 | 10:28 PM IST

भारत ने हाल के वर्षों में ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े संकट, वायु प्रदूषण और स्वच्छ ऊर्जा की जरूरतों जैसी चुनौतियों को हल करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। ऐसी ही एक नीति है कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों में कोयले के साथ बायोमास पेलेट (जैविक अवशेष) भी जलाए यानी इस्तेमाल किए जाएं। यह एक ऐसा उपाय है जिससे उम्मीदें बढ़ रही हैं और अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाए और इसे समर्थन दिया जाए तो बड़े पैमाने पर अपनाया जा सकता है।

विद्युत मंत्रालय के तहत, समर्थ अभियान (ताप विद्युत संयंत्रों में कृषि अवशेषों के उपयोग पर सतत कृषि अभियान) के अंतर्गत सभी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को अपने यहां 5 फीसदी कोयले की जगह बायोमास पेलेट का इस्तेमाल करना जरूरी है और इस साल इसे बढ़ाकर 7 फीसदी किया जाएगा। यह लक्ष्य फिलहाल भले ही छोटे दिख रहे हों, लेकिन इन्हें व्यापक और व्यवस्थित तरीके से अपनाया जाए तो इनका आर्थिक और पर्यावरणीय महत्त्व बहुत अधिक है।

सरकार के अनुमानों के मुताबिक, भारत में हर साल 50 करोड़ टन से अधिक कृषि अवशेष बेकार पड़े होते हैं। इसका कुछ हिस्सा चारे, जलावन और खाद जैसे कामों में इस्तेमाल होता है, लेकिन करीब 14 करोड़ टन अतिरिक्त कचरा बच जाता है। इस बचे हुए हिस्से को या तो खेतों में जला दिया जाता है या फेंक दिया जाता है, जिससे वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में पराली जलाने से सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषण 40 फीसदी तक बढ़ जाता है, खासतौर पर गंगा के मैदानी इलाकों में।

इन जैविक अवशेष (बायोमास) को पेलेट यानी ईंधन के ठोस स्वरूप में बदलना एक अच्छा विकल्प है। इन पेलेट को विभिन्न कृषि अवशेषों (जैसे धान की पराली, कपास के डंठल, सरसों की भूसी या गन्ने की खोई) से बनाया जा सकता है और ताप विद्युत संयंत्रों में आंशिक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। शुरुआती प्रायोगिक परीक्षणों से पता चला है कि बायोमास के साथ जलाने से हर यूनिट बिजली उत्पादन पर कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 15 से 20 फीसदी तक की कमी आ सकती है, जो इस्तेमाल किए गए मिश्रण के अनुपात और ईंधन के स्रोत पर भी निर्भर करता है।

निश्चित रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी इसका अच्छा-खासा असर पड़ सकता है। अध्ययनों से पता चलता है कि किसान अपनी फसल के अवशेष को पेलेट निर्माताओं को बेचकर प्रति एकड़ 3,000 रुपये से 6,000 रुपये की अतिरिक्त कमाई कर सकते हैं। दो एकड़ खेती करने वाले किसी किसान के लिए यह अतिरिक्त आय 6,000 रुपये से 12,000 रुपये तक हो सकती है। यह उन क्षेत्रों के लिए खासकर महत्त्वपूर्ण है जहां खेती में ज्यादा लागत लगती है या फसलों की कीमतों में अनिश्चितता रहती है। कुल मिलाकर, अगर भारत के बचे हुए जैविक अवशेषों का एक-तिहाई भी इस्तेमाल कर लिया जाए तो इससे एक से दो करोड़ किसान परिवारों को मदद मिल सकती है और हर साल ग्रामीण क्षेत्रों में 6,000 से 24,000 करोड़ रुपये की नई आमदनी के मौके तैयार हो सकते हैं।

रोजगार के मौके तैयार करना इसका एक अहम पहलू है। उत्तरी और मध्य भारत में पेलेट बनाने वाली इकाइयों का एक नेटवर्क उभर रहा है। ये इकाइयां अक्सर छोटे उद्यमियों द्वारा चलाई जाती हैं, इसमें स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है और इससे आपूर्ति श्रृंखला को भी बढ़ावा मिलता है जिसमें परिवहन, इन अवशेषों को इकट्ठा करना और इसके लिए मशीनरी सेवाएं देना भी शामिल है। राष्ट्रीय जैव ऊर्जा अभियान के तहत यह अनुमान लगाया गया है कि बायोमास को बड़े पैमाने पर जलाए जाने की प्रक्रिया लागू करने पर सीधे तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बाई इलाकों में 50,000 नौकरियों के मौके तैयार होंगे।

अंतरराष्ट्रीय अनुभव भी इस दृष्टिकोण के महत्त्व की पुष्टि करते हैं। यूरोप में, स्वीडन और ब्रिटेन जैसे देशों ने बिजली बनाने के लिए कोयले के साथ बायोमास को मिलाकर जलाने को एक बदलाव की रणनीति के रूप में अपनाया है। ब्रिटेन का ड्रैक्स पावर स्टेशन कभी पूरी तरह से कोयले से चलता था, लेकिन अब उसमें 80 फीसदी से ज्यादा बिजली स्थानीय बायोमास से तैयार होती है। जापान और दक्षिण कोरिया की राष्ट्रीय ऊर्जा योजनाओं में मौजूदा कोयला संयंत्रों में 20 फीसदी तक बायोमास के इस्तेमाल का लक्ष्य है, जिसे लंबी अवधि के खरीद समझौतों और विशेष लॉजिस्टिक्स बुनियादी ढांचे का समर्थन मिला है।

भारत के करीब, इंडोनेशिया ने 52 कोयला संयंत्रों में बायोमास को साथ जलाने का फैसला किया है, जिसका लक्ष्य इस साल तक 10 फीसदी बायोमास का मिश्रण करना है। इन प्रयासों को ऐसे समाधानों के रूप में देखा जाता है जो कोयले के संयंत्रों को तुरंत और बड़े पैमाने पर बंद किए बिना ही उत्सर्जन कम कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण वास्तव में भारत की बिजली की वास्तविक स्थिति के अनुरूप है।

हालांकि इसे पूरी तरह से अपनाया नहीं गया है। कुछ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों ने इस दिशा में प्रगति की है, लेकिन अन्य इकाइयां लागत, तकनीकी अनुकूलता और ईंधन आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़ी चिंताओं के कारण पीछे हैं। कुछ निजी उत्पादक कंपनियां भी हिचकिचा रही हैं क्योंकि उन्हें पेलेट की सीमित उपलब्धता या अनिश्चित नियामकीय नियमों की चिंता है। ये बाधाएं दूर की जा सकती हैं, लेकिन इन पर व्यवस्थित तरीके से ध्यान देने की जरूरत है।

कुछ नीतिगत हस्तक्षेपों से इसे बेहतर ढंग से लागू करने में मदद मिल सकती है। सबसे पहली बात यह है कि बिजली संयंत्रों को बायोमास खरीद नियमों में ज्यादा स्पष्टता और स्थिरता से फायदा होगा। पेलेट के मानकों को तय करना, पारदर्शी मूल्य बेंचमार्क बनाना और विश्वसनीय आपूर्ति अनुबंध सुनिश्चित करने से उत्पादकों और उपयोगकर्ताओं दोनों के बीच गतिरोध कम होगा और विश्वास बढ़ेगा। साथ ही, बिजली संयंत्रों में समूचे बिजली उत्पादन के 3-5 फीसदी के लिए कोयले की जगह बायोमास पेलेट का इस्तेमाल अनिवार्य किया जाना चाहिए।

दूसरी अहम बात है खासतौर पर छोटे पेलेट विनिर्माणकर्ताओं को क्षमता निर्माण के लिए सहयोग मिलना जो आपूर्ति वृद्धि को तेज कर सकता है। इनमें ऋण की आसान उपलब्धता, गुणवत्ता मानकों को पूरा करने में तकनीकी सहायता और पेलेट को ग्रामीण क्षेत्रों से बिजली केंद्र तक ले जाने के लिए लॉजिस्टिक्स सहायता शामिल हैं।

तीसरा, इसके लिए बेहतर निगरानी और रिपोर्टिंग प्रणाली के तरीके अपनाना बेहद जरूरी हैं। संयंत्र के स्तर पर कोयले के साथ जैविक अवशेष जलाने के आंकड़े सार्वजनिक करना, उत्सर्जन में कमी का हिसाब रखना और सफल मामलों की जानकारी साझा करने से इस पहल को बढ़ावा मिलेगा और लोगों का भरोसा भी बढ़ेगा। आखिर में भारत, कोयले के साथ बायोमास को जलाने के क्रेडिट को कार्बन बाजार या अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्रों के साथ जोड़ने पर विचार कर सकता है। इससे नियमों का पालन करने और बेहतर प्रदर्शन करने वालों को अतिरिक्त वित्तीय प्रोत्साहन मिलेगा।

भारत को वर्ष 2070 तक अपना विशुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल करने और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान पूरा करने के लिए व्यावहारिक, जमीनी स्तर की रणनीतियां जरूर अपनानी होंगी। बायोमास को साथ जलाना कोई जादुई उपाय नहीं है, लेकिन यह एक ऐसा समाधान है जो कम लागत पर बड़े फायदे दे सकता है। नए अक्षय ऊर्जा स्रोतों या बड़े ग्रिड-स्तरीय भंडारण तंत्र के मुकाबले इसमें कम समय और पूंजी लगती है।

यह विकास का एक ऐसा मार्ग है जो सभी को साथ लेकर और संतुलित तरीके से चलता है। यह किसानों, गांव के मजदूरों, बिजली कंपनियों और पर्यावरण संरक्षण का पैरोकार करने वालों के हितों को एक साथ जोड़ता है, जो वास्तव में सार्वजनिक नीति में अक्सर मुश्किल होता है। भारत ने समर्थ मिशन के जरिये पहले ही इस दिशा में कदम उठा लिए हैं। अगर इसे बेहतर ढंग से लागू किया जाए और सही प्रोत्साहन दिए जाएं तो यह ग्रामीण भारत में जैविक कचरे, बिजली और समृद्धि से जुड़ी हमारी सोच को पूरी तरह बदल सकता है।


(लेखक केंद्रीय मंत्री और लोक सभा सदस्य रह चुके हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : September 9, 2025 | 10:15 PM IST