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राजनीति की महाभारत का सधा हुआ अर्जुन

Last Updated- December 05, 2022 | 9:17 PM IST

मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह का जीवन सफल हो गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब उच्च शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत सीटें पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित होंगी।


इतने साल के संघर्ष के बाद इस फैसले से दो बातें निकल कर आती हैं। एक, अर्जुन सिंह का सामाजिक न्याय का नजरिया वही है, जो 1980 में था। दूसरी, जातिगत राजनीति के बारे में सभ्य समाज की सोच वही है, जो 1980 में थी।


अब कुछ पल के लिए 1980 के पसमंजर में चलते हैं। मध्य प्रदेश की राजनीति में अर्जुन सिंह अभिमन्यु की तरह चारों तरफ से घिरे हुए थे। एक तरफ शुक्ला बंधु, श्यामाचरण और विधाचरण और दूसरी ओर, प्रभावशाली आदिवासी नेता शिवभानु सिंह सोलंकी। विधान सभा के चुनाव हो चुके थे और मुख्यमंत्री चुना जाना था।


सोलंकी और अर्जुन सिंह के बीच मुकाबला था। सिंह को 85 मत मिले और सोलंकी को 120 मत। बात संजय गांधी तक पहुंची। प्रणव मुखर्जी को भोपाल भेजा गया। महाराज मुख्यमंत्री बन गए। गद्दी तो हाथ लग गई, लेकिन चुनौती बरकरार थी। गद्दी को खिसकने से कैसे रोका जाए?


सिंह ने जो आज किया है, उस वक्त भी वही किया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भगवती प्रसाद मंडल की मशहूर मंडल कमिशन रिर्पोट को परे रख कर ताले में बंद कर दिया। लेकिन अर्जुन सिंह को मंडल कमिशन की रिर्पोट में अपरिमित संभावनाएं दिखाई दीं। यदि मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह को कुछ करना था, तो कांग्रेस आदिवासी और ऊंची जातियों के बूते कुछ नहीं कर सकती थी।


एक ओर ऐसे तबके को जोड़े जाने की जरूरत थी, जो अर्जुन सिंह का हो और इसलिए कांग्रेस का हो। अपनी जाति में अंतर्निहित सामंतवाद पर लगाम लगाकर अर्जुन सिंह ने रामजीलाल महाजन आयोग का गठन किया, जिसका काम था यह निश्चित करना कि पिछड़ी जातियों के पिछड़ेपन को कैसे खत्म किया जाए। 1982 में मंडल कमिशन की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में रख दी गई। लेकिन मध्य प्रदेश में महाजन आयोग के नतीजों को लागू कर दिया गया। इनमें प्रमुख था पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा में आरक्षण।


अर्जुन सिंह ने 1982 के फॉर्मुले को 2004 में झाड़-पोछ कर चमकाया और फिर उसका प्रयोग किया। संप्रग का नारा था : पिछड़ों का सामाजिक सशक्तिकरण। सांप्रदायिक शक्तियों का विरोध तो था ही, लेकिन पिछड़ी जातियों का विकास भी संप्रग का उद्धोष था।


जब वह मानव संसाधन मंत्री बने तो शुरू में इतिहास की पाठयपुस्तकों को नए सिरे से लिखने के मुद्दे पर सिंह ने जरूर ध्यान दिया। मगर यह मुद्दा एक  बार से ज्यादा उठाया नहीं जा सकता था। पाठयपुस्तकों को बार-बार लिखा नहीं जा सकता था। फिर सवाल आया समाज की नए सिरे से संरचना और उसमें मानव संसाधन विकास मंत्रालय की भूमिका का।


जब पिछड़ों के आरक्षण का मामला आया तो जाहिर है अगड़ों ने इसका कड़ा विरोध किया। आए दिन पिछड़ों और अगड़ों में घमासान छिड़ गया। सभी को याद हैं वे दिन, जब दिल्ली के जंतर-मंतर पर राज्य पुलिस को आंसू गैस छोड़नी पड़ती थी। बच्चों में डराव के अंदेशे से प्रधानमंत्री को अपील करनी पड़ी। अर्जुन सिंह ने सब सुन लिया, लेकिन टस से मस नहीं हुए। केवल कहा – ‘प्रधानमंत्री ने आरक्षण के विषय पर अपील की है। हमें उन पर यकीन होना चाहिए।’ यानी सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली।


पढ़ेलिखे वर्ग में ऐसा कोई भी नहीं होगा, जो यह कहेगा कि पिछड़ी जातियों के  लिए शैक्षणिक सुविधाएं देना न्यायसंगत नहीं है। लेकिन जब राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने कहना चाहा कि उच्च शिक्षा की मात्रा और क्वॉलिटी संबंधी मुद्दों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, तो सिंह दहाड़े।


यह मौका उन्होंने जाने नहीं दिया, पिछड़ों के प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए। यह प्रासंगिक है कि 1993 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए जब उन्हें निरीक्षक नियुक्त किया गया, तो उनके सामने दो नाम थे : राजा दिग्विजय सिंह और सुभाष यादव। उन्होंने यादव को नहीं चुना।


अर्जुन सिंह की सोच इतनी साफ और मंझी हुई है कि वे सभी प्रगतिशीलों के प्रिय हैं। हरकिशन सिंह सुरजीत हों या डी. राजा, सीपीआई हो या सीपीआईएम – उनकी कोई भी बात सिंह ने नहीं ठुकराई है। जब जामिया मिल्लिया के कुलपति की बात आई, तो मुशीरउल हसन ही बने। हसन भी उनकी प्रशंसा किए नहीं थकते। शायद यही कारण है कि अल्पसंख्यक प्रशासन मंत्रालय के मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को वे फूटी आंखों नहीं सुहाते।


एक जमाना था जब अर्जुन सिंह से बहुत उम्मीदें थीं। जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तब अर्जुन सिंह उनसे कहते रहे कि सोनिया गांधी को लाना चाहिए और यहां तक आरोप लगाया कि राजीव गांधी की हत्या मामले में सरकार सकारात्मक भूमिका नहीं अपना रही थी।


नारायण दत्त तिवारी के साथ उन्होंने पार्टी छोड़ दी। लेकिन सोनिया गांधी उनकी मदद करने 10, जनपथ से बाहर नहीं निकलीं। अब, जब शरद पवार ने कहा कि संप्रग को यह चाहिए कि मनमोहन सिंह को भावी प्रधानमंत्री घोषित किया जाए, तो अर्जुन सिंह ने तपाक से कहा कि उनकी समझ से राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री का पद संभालने के योग्य हैं।


अब शारीरिक दुर्बलता की वजह से शायद अर्जुन सिंह अपने बेटे को अपनी विरासत का हकदार नियुक्त कर दें। पर उन-सा नेता – समझदार, मंझा हुआ और भारत की इतनी गहरी पहचान रखने वाला -न कभी हुआ है और न कभी होगा।

First Published - April 12, 2008 | 12:06 AM IST

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