इंडसइंड बैंक में विदेशी मुद्रा देनदारी के हिसाब-किताब में हुई गड़बड़ी खबरों में खूब रही है। इससे कुछ दिन पहले ही पहले बैंक के निवर्तमान प्रबंध निदेशक को तीन साल के लिए फिर नियुक्त करने की सिफारिश ठुकराकर केवल एक साल के लिए नियुक्त किया जाना भी सुर्खियों में रहा था। इससे पहले भी बैंक ने तीन साल की दोबारा नियुक्ति की सिफारिश की थी, जिसे घटाकर एक साल कर दिया गया था। सिफारिश नकारना और गड़बड़ी होना संयोग हो सकता है मगर यह अब भी समझ नहीं आ रहा कि जिस व्यक्ति को तीन साल के लिए उपयुक्त नहीं माना गया था उसे कम समय के कार्यकाल के लायक कैसे मान लिया गया।
ऐसा ही 2023 में हुआ था, जब कोटक महिंद्रा बैंक के तत्कालीन प्रबंध निदेशक (एमडी) ने इस्तीफा दिया था। नए एमडी को आने में चार महीने थे तो बैंक ने उस बीच अंतरिम एमडी बनाने की इजाजत मांगी। मगर केवल दो महीने के लिए अंतरिम नियुक्ति की ही मंजूरी दी गई। फिर बाकी दो महीने के लिए नया अनुरोध करना पड़ा। एक ही बार में चार महीने के बजाय दो बार दो-दो महीने की इजाजत देने की तुक समझ नहीं आई।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) और भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) जैसे दूसरे वित्तीय नियामक भी ऐसा ही करते हैं। बाजार के बुनियादी ढांचे से जुड़ी संस्थाओं और बीमा कंपनियों जैसी विनियमित इकाइयों को सही उम्मीदवार चुनने में पहले लंबे-चौड़े नियमों का पालन करना पड़ता है और एमडी जैसे पद खाली होने से बहुत पहले उन पर नियुक्ति की मंजूरी लेनी पड़ती है। अगर नियामक चुने गए उम्मीदवारों के किसी कारण संतुष्ट नहीं हो तो और भी नाम मांग लेता है। मंजूरी की इस लंबी प्रक्रिया के कारण कई बार इन संस्थाओं को कुछ महीनों तक एमडी के बिना ही काम चलाना पड़ता है। कई बार तो छह महीने तक उनके पास एमडी नहीं होता।
विनियमित संस्थाओं द्वारा चुने गए उम्मीदवारों को नकारकर, नियुक्ति की अवधि घटाकर और उनका वेतन आदि बदलकर नियाकर एमडी की नियुक्ति पर अपना नियंत्रण बढ़ाते जा रहे हैं। वे निजी क्षेत्र की संस्थाओं के चेयरपर्सन, सीईओ, कार्यकारी निदेशकों और स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति मंजूर करते हैं और उनकी पुनर्नियुक्ति तथा सेवा विस्तार को भी हरी झंडी देते हैं। शुक्र है कि सेबी ने बाजार ढांचा संस्थाओं में अनुपालन अधिकारी, मुख्य जोखिम अधिकारी, मुख्य प्रौद्योगिकी अधिकारी और मुख्य सूचना सुरक्षा अधिकारी जैसी अहम प्रबंधकीय नियुक्तियों को भी अपनी मंजूरी के दायरे में लाने के एक हालिया प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
निजी संस्थाओं को उनके निदेशक मंडल चलाते हैं और उन्हें पद खाली होने से पहले ही उन पर नियुक्ति करनी होती है। सार्वजनिक क्षेत्र में अलग चुनौती हैं। संसद में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया कि सार्वजनिक बैंकों में निदेशकों के 42 फीसदी पद खाली हैं। नियुक्ति में ऐसी देर और रिक्तियों के लिए नियुक्ति की प्रक्रिया ही जिम्मेदार है, जिसमें कैबिनेट की नियुक्ति समिति की मंजूरी जरूरी है। इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं।
इसका मतलब यह मान लेना है कि निजी क्षेत्र में शेयरधारक और निदेशक मंडल सार्वजनिक क्षेत्र के निदेशक मंडलों की तरह बाजार के हितों की रक्षा नहीं कर सकते। फिर तो नियामक निष्पक्ष नहीं हुआ। विनियमित इकाई निजी हो या सार्वजनिक, उसके प्रदर्शन और नियामकीय नियुक्ति प्रक्रिया में कोई रिश्ता नहीं होता। सरकारी बैंकों तथा बीमा कंपनियों के सीएमडी और पूर्णकालिक निदेशकों की नियुक्ति में नियामकों की भागीदारी होती है। अक्सर पूर्व नियामकीय अधिकारी रिटायर होने के फौरन बाद विनियमित संस्थाओं के बोर्ड में पहुंच जाते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि जो व्यक्ति विनियमित संस्था के संचालक मंडल में है वही उसके नियामक के बोर्ड में भी है।
नियुक्ति प्रक्रिया में इतने गहरे जुड़ाव के बाद भी इंडसइंड बैंक को दोबारा नियुक्त होने से रोका नहीं गया, जबकि विदेशी मुद्रा की गड़बड़ी चल रही थी। इससे धारणा बनती है कि उन संस्थाओं को नियामक ही चला रहे हैं, जिससे प्रशासन से जुड़ी खामियों के लिए जिम्मेदार भी वही ठहराए जाते हैं और यह भ्रम भी हो जाता है कि नियामकीय मंजूरी के साथ नियुक्त लोग पद के योग्य होते ही हैं। इस कारण विनियमित संस्थाओं के प्रशासन और निगरानी में नियामक की भूमिका की व्यापक समीक्षा का सवाल खड़ा हो जाता है।
वित्तीय बाजार के समुचित संचालन और चुस्त-दुरुस्त वित्तीय तंत्र बनाए रखने के लिए वित्तीय नियामकों ने कुछ दशक पहले सीईओ की नियुक्ति का जिम्मा अपने ऊपर लिया था, जो सही भी था। वित्तीय संस्थाओं में भरोसा बढ़ाने के लिए वे ‘फिट ऐंड प्रॉपर’ की कसौटी लाए ताकि सर्वोच्च स्तर की निष्ठा सुनिश्चित हो सके। पंजीकरण के लिए वित्तीय सेवा प्रदाओं को इस कसौटी पर खरा उतरना होता है और उनके बड़े शेयरधारकों तथा बोर्ड सदस्यों को भी भरोसा कायम रखने की अपनी योग्यता दिखानी होती है। शुरू में ‘फिट ऐंड प्रॉपर’ का मतलब था ईमानदारी, नैतिकता, प्रतिष्ठा, निष्पक्षता, व्यक्तिगत चरित्र का होना और भगोड़ा, आर्थिक अपराधी अथवा देनदारी में चूक करने वाला नहीं होना था। नियामकों ने उम्मीदवारों की जांच और छंटनी की जिम्मेदारी ली क्योंकि विनियमित संस्थाओं के पास उनके अतीत की व्यापक जानकारी शायद नहीं होती।
समय के साथ इस प्रक्रिया में जांच की और परतें जुड़ती गईं और सीधे चयन के बजाय मंजूरी की प्रक्रिया शुरू हो गई, जिसे नियामक कोई और नाम दे सकते हैं। इस निगरानी की जद में अब नई नियुक्तियां ही नहीं आतीं बल्कि उन अधिकारियों का सेवा विस्तार भी आता है, जिनकी जांच पहले ही की जा चुकी है।
विनियमित संस्थाओं में नियुक्तियों में नियामकों की जरूरत से बड़ी भूमिका के अनचाहे परिणाम आ रहे हैं। उदाहरण के लिए नेतृत्व पर ऊहापोह संस्था की कारोबारी योजना पर असर डालती है, संचालन में चूक पर जवाबदेही का सवाल खड़ा करती है और नैतिक पतन का खतरा भी होता है। इसमें नियामकों को उन लोगों के खिलाफ कदम उठाने होते हैं, जिन्हें कुछ समय पहले ही एकदम उपयुक्त माना गया था। बताया जा रहा है कि कई प्रतिभाशाली और सक्षम पेशेवर सख्त विनियमन वाली संस्थाओं के बोर्ड में तथा नेतृत्व वाली भूमिका में आना ही नहीं चाहते। पिछले कुछ साल में इन संस्थाओं में भी प्रतिभाओं की भारी कमी हुई है। सूचीबद्ध संस्थाओं में ऐसी अनिश्चितता को बाजार भी बरदाश्त नहीं करता।
वित्तीय क्षेत्र में विनियमन ऐसा हो कि विनियमित संस्थाओं को नासमझ न समझा जाए बल्कि परिपक्व बनने दिया जाए। नियामकीय नजर सुरक्षा के लिए हो, आंतरिक संचालन की जगह लेने के लिए नहीं। जवाबदेही बोर्ड और प्रबंधन की हो और चूक होने पर उन पर कड़ा जुर्माना लगाया जाए। ऐसा संतुलित रुख ही मजबूत संचालन को बल देगा और वित्तीय क्षेत्र में लंबे समय तक स्थिरता एवं मजबूती रहेगी।
(डिसक्लेमर: कोटक परिवार द्वारा नियंत्रित संस्थाओं की बिज़नेस स्टैंडर्ड प्राइवेट लिमिटेड में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी है)