हाल में तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा और उसके राजनीतिक निहितार्थ की वजह से अर्थव्यवस्था की स्थिति पहले की तुलना में बदतर है। कृषि क्षेत्र पूरी तरह से अक्षम है और इसमें सुधार की जरूरत है। जिन कानूनों को अब रद्द किया जा रहा है वे उतने प्रगतिशील भी नहीं थे। लेकिन मौजूदा सरकार और उसके बाद आने वाली अगली और उससे भी अगली सरकार ‘कृषि सुधार’ की बात करने में भी हिचकेगी।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान करीब 20 फीसदी है। इसका योगदान साल 2020 में बढ़ सकता है क्योंकि इसी साल सेवाओं, विनिर्माण और खनन (प्राथमिक क्षेत्र का भी हिस्सा) का दायरा घटा। जैसे-जैसे सेवाओं और विनिर्माण का योगदान फिर से बढ़ेगा, उन श्रेणियों में तेजी से वृद्धि होगी।
साल 2019 में लगभग 43 प्रतिशत कार्यबल कृषि क्षेत्र में जुटा हुआ था और इसमें एक बड़ी समस्या भी है। अगर 43 फीसदी आबादी, जीडीपी में 20 फीसदी की हिस्सेदारी देती है तो इसके बावजूद उसे बदले में कुछ खास नहीं मिलता है। वृद्धि के लिए किसी भी सुसंगत योजना में ऐसे उपाय या तरीके जरूर शामिल होने चाहिए जिससे अतिरिक्त श्रमबल को तेजी से वृद्धि करने वाले क्षेत्रों में खपाया जा सके।
यह कठिन है और यह एक बढ़ती, युवा आबादी के लिए आगे और भी जटिल है। ऐसा माना जाता है कि 15 साल की उम्र में भारतीय काम करने लगते हैं। हर महीने कामगारों की संख्या 10 लाख तक जुड़ जाती है। यह एक तरह से जनसांख्यिकीय लाभ भी है। अगर प्रति व्यक्ति उत्पादकता में वृद्धि नहीं भी होती है तब भी कार्यबल में वृद्धि के कारण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ सकता है।
कामकाजी उम्र की आबादी के निचले स्तर पर अस्थायी वृद्धि ने हर ऐतिहासिक वृद्धि की दास्तान में एक बड़ी भूमिका निभाई है। जापान, कोरिया, चीन और मलेशिया की मिसाल लें तो युवा कार्यबल में अस्थायी वृद्धि से उच्च उत्पादकता को समर्थन मिला है। युवा आबादी को क्रमिक रूप से बेहतर तरीके से शिक्षित किया गया है और तकनीकी विकास से उत्पादकता बढ़ी है। इन सभी सकारात्मक परिणामों के घटित होने के लिए निश्चित रूप से उत्पादक काम होना चाहिए। इसके अलावा अगर जनसंख्या बेहतर तरीके से शिक्षित नहीं है, तब उत्पादकता नहीं बढ़ेगी। अगर कार्यबल और आबादी में स्त्री-पुरुष की संख्या में संतुलन नहीं है तब भी इससे मदद मिलेगी। चीन में स्त्री-पुरुष अनुपात में असमानता है और इसकी वजह से अन्य मुद्दे खड़े होने के साथ ही अशांति बढ़ सकती है।
2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का चुनावी मुद्दा और नारे ‘विकास’ और ‘अच्छे दिन’ के इर्द-गिर्द घूमता रहा। चुनावी घोषणापत्र में हर साल रोजगार के एक करोड़ मौके (ज्यादातर विनिर्माण में) तैयार करने की प्रतिबद्धता जताई गई थी। जब 2019 में भाजपा दोबारा लोकसभा चुनावी दंगल में उतरी तब इन नारों को चुपचाप हटा दिया गया था क्योंकि इन नारों की वजह से वादा पूरा न किए जाने की खामियों की ओर ध्यान जाता था।
पिछले सात साल से लगातार बेरोजगारी बढ़ी है। रोजगार के मोर्चे पर कई अन्य परेशानी बढ़ाने वाले मुद्दे खड़े हुए हैं जो महामारी से बढ़ गए हैं। नोटबंदी के दौर के बाद बेरोजगारी बढ़ गई और यह पिछले 18 महीने में ज्यादा ही बढ़ी है और नौकरियों को भारी नुकसान हुआ है। कार्यबल में स्त्री-पुरुषों के अनुपात की असमानताएं भी बढ़ी हैं। भारत में हमेशा से सामान्य दौर में भी स्त्री-पुरुष अनुपात में अंतर एक बड़ा मुद्दा रहा है और महामारी के कारण भी कम महिलाएं ही नौकरी कर पा रही हैं।
श्रम भागीदारी में गिरावट आई है। इसका मतलब यह है कि कामकाजी उम्र वाले लोगों की संख्या भी बढ़ गई है जिन्होंने अब रोजगार ढूंढना भी छोड़ दिया है। वर्ष 2020-21 में करीब 3 प्रतिशत कार्यबल, सेवा और विनिर्माण क्षेत्र से वापस कृषि क्षेत्र में चले गए हैं। लॉकडाउन लगने और नौकरी के नुकसान के बाद कई लोग फिर से गांवों में चले गए हैं और दोबारा खेती करना शुरू कर दिया है। इसका मतलब यह है कि कृषि क्षेत्र से होने वाली आमदनी और भी कम होती जाएगी। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के आंकड़े भी बढ़ती ग्रामीण बेरोजगारी की ओर भी इशारा कर रहे हैं।
अब तक, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के आंकड़े लगभग 9 प्रतिशत बेरोजगारी (जो रोजगार ढूंढ रहे हैं उनके बीच) के संकेत देते हैं और लगभग 27 प्रतिशत श्रम भागीदारी (जिसका अर्थ है कि 15 से 60 साल की आयु के बीच वाले चार व्यक्तियों में से तीन काम नहीं ढूंढ रहे हैं) और 15-24 आयु वर्ग में 23 प्रतिशत बेरोजगारी (जिसका अर्थ है कि काम चाहने वाले युवा अब नौकरी नहीं ढूंढ रहे हैं) का अंदाजा मिलता है।
अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार होने पर इनमें से कुछ बिंदुओं के सही होने की उम्मीद है। हालांकि यहां भी उत्पादकता के साथ एक दीर्घकालिक समस्या है। जो स्कूल या कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे उन्हें एक व्यवधान का सामना करना पड़ा है जो उनके कौशल को प्रभावित कर सकता है। एक जीवंत, अत्यधिक कुशल युवा कार्यबल जिसमें स्त्री-पुरुष बराबर हों वह महज एक सपना ही है।
कृषि क्षेत्र हमेशा ही छोटी जोतों, विभाजित भूखंडों, राजनीतिक रूप से संचालित खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए मूल्य निर्धारण जैसी चुनौतियों से पीडि़त ही रहेगा, जिससे खराब फसल के विकल्प चुनने पड़ते हैं और मंडी में खरीदारी का एकाधिकार कायम होता है। खराब कानून बनाने और उन्हें वापस लेने का मतलब है कि उन मुद्दों को एक और आंदोलन के डर से हल नहीं किया जाएगा।
