आठ जुलाई 1853 को कमोडोर मैथ्यू पेरी दो भाप इंजन वाले जहाजों और दो पाल वाली छोटी नावों के साथ टोक्यो की खाड़ी में पहुंचे। जब उन्हें विदेशी पोतों की इजाजत वाले नागासाकी बंदरगाह जाने का आदेश दिया गया तो उन्होंने उसे नकार दिया। इसी तरह उन्होंने स्थानीय अधिकारियों को अपने पोतों पर नहीं आने दिया और जोर दिया कि वह जापानी सम्राट के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति का संदेश लेकर आए हैं। पेरी के इस तरह दबाव बनाने के बाद जापान को अपना व्यापार खोलना पड़ा, अमेरिकी पोतों को जापानी बंदरगाहों पर ईंधन भरने की इजाजत देनी पड़ी और दूसरी रियायतें भी देनी पड़ीं।
इससे भी अहम, इससे जापान को पश्चिमी तकनीकी की श्रेष्ठता का पता चला क्योंकि उस समय तक उसके पास केवल लकड़ी से बने जहाज थे। क्या करना है इसे लेकर भ्रम और असहमति थी। ऐसे भी लोग थे जो बदलाव के विरुद्ध थे। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि सभी विदेशियों को निकाल बाहर किया जाए। आखिरकार, बदलाव लाने वाली शक्तियों की जीत हुई और एक दशक से कुछ अधिक समय बाद नए और युवा सम्राट मेइजी के अधीन देश ने आमूलचूल सुधारों की घोषणा की। सामंती व्यवस्था, भूस्वामित्व, शिक्षा व्यवस्था और सेना सहित तमाम क्षेत्रों में बदलाव किए गए। शोगुन शासन का अंत हुआ और 1867 में मेइजी पुनरुद्धार आरंभ हुआ।
एक पीढ़ी के भीतर जापान एक औद्योगिक शक्ति बन गया और उसने जंग में अपने से ताकतवर चीनी सेना को पराजित कर दिया। एक दशक बाद उसने साम्राज्यवादी रूस को हराया। उन दोनों देशों की शासन व्यवस्था सैन्य पराजय के बाद ढह गई। कमोडोर पेरी ने जो बदलाव जापान पर थोपा, उसने उसे दुनिया के अग्रिम देशों की जमात में ला खड़ा किया। हालांकि तुलना नहीं करनी चाहिए लेकिन इसमें भारत के लिए भी सबक हैं क्योंकि अमेरिकी दादागीरी उसके सामने भी ऐसा अवसर ला सकती है जैसा पेरी के साथ अमेरिकी दबंगई ने जापान को दिया।
यह ट्रंप के कदमों का बचाव करने की कोशिश नहीं है क्योंकि वे तो बचाव योग्य हैं ही नहीं। भारत का उनके द्वारा लगाए गए शुल्क को अनुचित, अविवेकपूर्ण और पाखंडी बताना सही है। परंतु हमें तर्क में जीत हासिल करना नहीं बल्कि आर्थिक युद्ध में जीत हासिल करना है। हमारी कमजोरियां उजागर हो चुकी हैं क्योंकि हम ट्रंप के सामने उस तरह नहीं खड़े हो सके जैसे चीन खड़ा हुआ। ट्रंप की कही बातों में सचाई भी है। सस्ता रूसी तेल इस्तेमाल करके रिफाइनरों ने अतिरिक्त मुनाफा कमाया जबकि खुदरा उपभोक्ताओं को कोई लाभ नहीं हुआ। हमारे शुल्क भी गलत दिशा में रहे जिनके चलते हमें ‘टैरिफ किंग’ का नाम दिया गया।
हकीकत यही है कि हम व्यापार के मामले में लंबे समय से पराये बने रहे हैं। हमने एशिया के क्षेत्रीय व्यापार समझौतों का हिस्सा बनने में रुचि नहीं ली। तीन दशक से अधिक समय से 6 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद और प्रति व्यक्ति आय को चार गुना तक सुधार लेने के बावजूद हमारे 90 फीसदी रोजगार अभी भी असंगठित क्षेत्र में हैं। इससे उत्पादकता वृद्धि और तकनीकी प्रगति दोनों प्रभावित हो रहे हैं।
मौजूदा दौर को बहुध्रुवीय बताना भले ही हमारे लिए कूटनीतिक दृष्टि से उपयोगी हो और हमारे विदेश मंत्री ने पश्चिम के दोहरे मापदंडों को रेखांकित किया हो लेकिन तथ्य यही है कि दुनिया में अभी भी दो ही प्रमुख ध्रुव हैं। उनमें से एक हमारा शत्रु नहीं तो भी हमारे विरुद्ध है। उसने हम पर सैन्य दबाव डाला है और अहम आपूर्तियों के मामले में भी हमें तंग किया है। भविष्य में वह ऐसे और कदम उठा सकता है। अगर अब हम अमेरिका के साथ भी शत्रुतापूर्ण रुख अपना लेते हैं तो खुद को एक कोने में धकेल बैठेंगे। हमें अमेरिका से निपटने का तरीका निकालना होगा। वैसे ही जैसे हमें चीन की विनिर्माण शक्तियों का तोड़ निकालना है। दोनों से बेरुखी हमारे हित में नहीं है।
अमेरिका के साथ हमारा बहुत कुछ दांव पर है। वह हमारी वस्तुओं का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है, हमारे सेवा निर्यात का प्राथमिक बाजार है और विदेशी मुद्रा का सब से बड़ा स्रोत भी है। हमारे इंजीनियरों की तकनीकी क्षमता ने दर्जनों बड़ी अमेरिकी कंपनियों को प्रोत्साहित किया है कि वे भारत में क्षमता केंद्र स्थापित करें, डॉलर कमाएं और बड़े पैमाने पर गुणवत्तापूर्ण रोजगार प्रदान करें। इसके अलावा हम रणनीतिक रिश्ते भी कायम कर रहे हैं और जनता के बीच भी जबरदस्त आपसी रिश्ता है क्योंकि करीब 50 लाख भारतीय मूल के लोग अमेरिका में रहते हैं। हम एच1बी वीजा के सबसे बड़ी लाभार्थी हैं जबकि अमेरिकी विश्वविद्यालय विदेश में पढ़ने की चाह रखने वाले भारतीय विद्यार्थियों की पहली पसंद हैं।
ट्रंप इनमें से कुछ नीतियों को पलटना चाहते हैं। अमेरिका में भी वर्क वीजा और आउटसोर्सिंग के खिलाफ जनमत तैयार हुआ है। इसके अलावा ट्रंप ने अमेरिकी साझेदारों और मित्रों को शत्रु भी बनाया है। मिसाल के तौर पर रूसी तेल के लिए भारत पर हमलावर हुए लेकिन चीन के बारे में कुछ नहीं कहा। इससे अविश्वास का माहौल बना है। इसके बावजूद वह बात सही है जेा मनमोहन सिंह ने एक बार निजी बातचीत में कही थी। उन्होंने कहा था कि अगर आप अमेरिका के मित्र के रूप में नजर आते हैं तो दुनिया आपके पक्ष में होती है। आज दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो अमेरिका की जगह ले सके। रूस उपयोगी मित्र और रक्षा साझेदार है लेकिन ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ के विकल्प बनने जैसी बातें पूरी तरह भ्रम हैं।
मोदी सरकार ने आर्थिक स्थिरता कायम करने, आर्थिक अधोसंरचना तैयार करने, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं मसलन पानी, गैस, शौचालय, आवास आदि की अवस्था सुधारने तथा विशिष्ट डिजिटल ढांचा तैयार करने में अच्छा काम किया है लेकिन अन्य क्षेत्रों में उसका काम उपयोगी नहीं रहा है। सन 1991 के सुधार अधूरे थे और तथाकथित दूसरी पीढ़ी के सुधार अपर्याप्त साबित हुए। उदाहरण के लिए हमें यह सवाल करना होगा कि आखिर क्यों चीन उर्वरकों के बड़े आयातक से निर्यातक बन गया जबकि हम अभी तक आयातक ही हैं और चीन से उर्वरक खरीद रहे हैं। क्या इसमें हमारी भ्रमित मूल्य और सब्सिडी नीतियों की भूमिका है? इसी तरह आखिर क्यों हमारी कृषि को 40 फीसदी शुल्क दर का कवच चाहिए? क्या हमारी कम उत्पादकता के चलते जिसे अब तक ठीक नहीं किया जा सका है?
ऐसी नाकामियों के चलते ही हम व्यापार के मोर्चे पर रक्षात्मक हैं और हमारी शुल्क दरें कम होने के बजाय बढ़ी हैं। पांच साल पहले घोषित नई शिक्षा नीति के साथ समुचित प्रगति नहीं हुई है। विनिर्माण का केंद्र बनने की हमारी कोशिशें मोबाइल फोन असेंबली से आगे नहीं बढ़ सकी हैं और हमारे रोजगार की हालत गंभीर बनी हुई है। अधिक से अधिक लोग कृषि अथवा स्वरोजगार की शरण में हैं। हमारे रक्षा क्षेत्र में समुचित फंडिंग नहीं है। कारोबारी मोर्चे पर चुनिंदा घरानों के पास बहुत अधिक शक्ति केंद्रित है। यह जापान और कोरिया के उलट है जहां कंपनियां विश्व स्तर पर नेतृत्व कर रही हैं। भारतीय कंपनियां देश के बाहर अपनी छाप नहीं छोड़ सकी हैं। हमारा शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करीब शून्य पहुंच गया है और इसमें भी एक संदेश छिपा है।
अगर ट्रंप हमारे साथ दादागीरी कर पा रहे हैं तो इसलिए क्योंकि हम ऐसा होने दे रहे हैं। अगर अमेरिका हमें चीन के मुकाबले पहले से कमतर आंकता है, तो ऐसा इसलिए क्योंकि हम वृद्धि दर के अलावा अन्य मामलों में काफी कमजोर प्रदर्शन करते रहे हैं। ट्रंप हम पर जो कीमत थोप रहे हैं उससे बचना मुश्किल है। परंतु हमें भावनाओं में बहने के बजाय समझदारी भरे चयन करने होंगे। हममें यह क्षमता है कि इस झटके को सहकर यहां से नए सिरे से आगे बढ़ सकें। हमें एक दबंग देश से निपटने के क्रम में इस काम पर ध्यान देना चाहिए। 19वीं सदी के मध्य के जापान से तुलना अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है लेकिन यह हमारे सामने वैसा ही अवसर हो सकता है जैसा पेरी के समय जापान के सामने आया था।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के संपादक और चेयरमैन रह चुके हैं)