पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के बड़े नेताओं में से एक माने जाने वाले अमरिंदर सिंह ने इस्तीफा देने की धमकी दी है। अगर वह ऐसा करते हैं तो यह तीसरी बार होगा। यह पहले की तरह एक त्याग होगा, लेकिन इस पूर्व सैन्य अधिकारी के लिए रणनीति के लिहाज से गहरा सियासी। वह पटियाला के पूर्व राजशाही परिवार के वंशज हैं। जब वर्ष 1984 में सेना ने स्वर्ण मंदिर में प्रवेश किया था, उस समय उन्होंने पहली बार लोक सभा और कांग्रेस छोड़ी थी। जब उन्हें ऑपरेशन ब्लू स्टार की खबरें मिलीं, तब वह शिमला के नजदीक गोल्फ खेल रहे थे। उन्होंने कांग्रेस के अपने सभी सहयोगियों से कहा कि वे उनके साथ दिल्ली में इंदिरा गांधी से मिलने और यह बताने के लिए चलें कि वे इस घटनाक्रम से कितने व्यथित हैं। लेकिन सहयोगियों ने अलग-अलग बहाने बनाकर इनकार कर दिया। आखिर में सिंह केवल एक सहयोगी के साथ ही गए।
इंदिरा गांधी खुश नहीं थीं। राजीव गांधी ने सिंह को शांत करने के लिए उनसे बात की, लेकिन वह अपने रुख पर अड़े रहे। उन्होंने अपने जीवनीकार खुशवंत सिंह को बताया, ‘गुरु गोबिंद सिंह ने मेरे पूर्वजों को एक हुकुमनामा (धर्म को सुरक्षित रखने के लिए आज्ञा पत्र) भेजा था। मेरे लिए अपने फैसले से पलटने का कोई सवाल ही नहीं था।’ यह कदम भले ही भावनात्मक हो, लेकिन राजनीतिक रूप से भी समझदारी भरा था।
उन्होंने दूसरी बार लोक सभा से इस्तीफा वर्ष 2016 में सतलज-यमुना संपर्क नहर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विरोध में दिया। सिंह ने दावा किया था कि इस फैसले से पंजाब के किसान पानी पर अपने वाजिब हक से वंचित होंगे। यह इस्तीफा राजनीतिक रूप से तर्कसंगत था। वह अमृतसर संसदीय सीट पर अरुण जेटली को हराकर लोक सभा में आए। पंजाब में विधासभा चुनाव 2017 में होने थे। अगर शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को सत्ता से बाहर करना था तो यह काम केवल अमरिंदर सिंह ही कर सकते थे। उन्होंने यह काम किया। पंजाब के मुख्यमंत्री पद के लिए लोक सभा सीट छोड़ी।
अब भी इस्तीफे की धमकी सियासी है। उन्होंने घोषणा की थी कि 2017 का चुनाव उनका आखिरी चुनाव होगा। लेकिन उन्होंने अपना मन बदल लिया और इस साल की शुरुआत में कहा कि वह 2022 के राज्य विधानसभा चुनाव भी लड़ेंगे। हालांकि वह चुनाव अभी 16 महीने दूर है। लेकिन अपनी पार्टी को यह बता देना तर्कसंगत है कि वह इस समय जिस पद पर आसीन हैं, उसकी दौड़ में पूरी तरह शामिल हैं। इस फैसले का इससे बेहतर समय क्या हो सकता था, जब विपक्ष खुद को संगठित और इस आरोप से बरी करने की कोशिश कर रहा है कि वह उन गतिविधियों में भागीदार नहीं था जिन्हें किसान-विरोधी के रूप में देखा जा रहा है।
सिंह ने उस मौके पर तेजी से कदम बढ़ाए हैं, जो केंद्र ने उन्हें आसानी से सौंप दिया है। केंद्र की तरफ से लाए गए कृषि सुधार कानूनों का पंजाब में भारी विरोध हो रहा है। इस कानूनों ने विपक्षी दल शिअद को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। बहुत से लोगों का मानना है कि सिंह इन कानूनों को पारित कराने में शिअद की सहभागिता को लेकर बार-बार तंज कस रहे थे, जिससे शिअद को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा दिलाने को मजबूर होना पड़ा।
इस राजनीतिक खेल में इन कृषि कानूनों के वास्तविक प्रावधान मायने नहीं रखते हैं। पंजाब में धारणा यह है कि इन कानूनों से किसानों के लिए आजीविका चलाना मुश्किल हो जाएगा। इस धारणा का केंद्र बिंदु यह है कि आगे चलकर केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) खत्म कर देगी और किसानों को बेसहारा छोड़ देगी।
भले ही यह धारणा सही हो या नहीं, मगर पंजाब ने इन केंद्रीय कानूनों को पलट दिया है। राज्य विधानसभा ने ऐसे कानून पारित किए हैं, जो केंद्र के कानूनों के संस्करण को बदल देंगे। पंजाब विधानसभा ने एक ऐसा विधेयक पारित किया है, जिसमें एमएसपी से कम पर गेहूं या धान की बिक्री या खरीद के लिए तीन साल से अधिक की जेल का प्रावधान है। दूसरा विधेयक खाद्यान्न की कालाबाजारी पर रोक लगाता है। ढाई एकड़ से कम जमीन वाले किसानों को उनकी जमीन की कुर्की से सुरक्षा दी गई है।
इन कानूनों को जब पिछले दिनों पंजाब विधानसभा ने पारित किया था, तब शिअद और आप समेत पूरे विपक्ष ने उनका समर्थन किया था। जब इन विधेयकों पर मतदान हुआ तो भारतीय जनता पार्टी के दो विधायक गैर-मौजूद रहे। इस पर कांग्रेस ने चुटकी लेते हुए कहा कि भाजपा ने कायरता का रास्ता अख्तियार किया है क्योंकि वह इस हकीकत का सामना नहीं कर सकती है कि उसके कानून किसान विरोधी हैं।
अमरिंदर सिंह जो चाहते थे, उसे हासिल कर चुके हैं। ऐसे में अब वह किसानों को दबाव कम करने के लिए कह रहे हैं। वह यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि अधिक ताव वाले इस राज्य में विरोध की जन भावनाओं को लंबे समय तक भड़काए नहीं रखा जा सकता है। किसानों ने बहुत से किसान संगठनों के आह्वान पर 1 अक्टूबर से रेल मार्ग अवरुद्ध कर दिया था। कुछ रेल मार्ग 24 सितंबर से बंद किए हुए हैं। उर्वरकों और अन्य जिंसों की किल्लत को मद्देनजर रखते हुए बाद में कुछ मालगाडिय़ों को गुजरने की अनुमति दी गई।
अब पंजाब के राज्यपाल वी पी एस बदनोर दुविधा में फंस गए हैं। वह राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को मंजूरी देने से इनकार कर सकते थे, लेकिन इससे किसानों का आक्रोश और बढ़ता। इसके अलावा यह मुद्दा शिअद को भी बड़ी राजनीतिक मुश्किल में डालेगा। अगर वह इस मामले में कूदती है तो सिंह को अगली रणनीति तैयार करनी होगी। हालांकि एक विकल्प राज्य में समय से पहले चुनाव है, जिसका कोई जिक्र नहीं कर रहा है। सिंह पहले ही यह घोषणा कर चुके हैं कि वह अगले चुनाव के लिए तैयार हैं।
